अशोक कुमार पांडेय
लेखक
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एलिसन बुश के बारे में मुझे सबसे पहले प्रो पुरुषोत्तम अग्रवाल से पता चला था, जब वर्ष 2011 में उनकी किताब ‘पोएट्री ऑफ किंग्स : द क्लासिकल हिंदी लिटरेचर ऑफ मुगल इंडिया’ ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपी थी. इसके लिए उन्होंने मुगल काल की प्रथम सदी का दौर चुना, जिसमें अब तक संस्कृत में काव्य रच रहे कवियों ने लोक भाषाओं में काव्य रचना शुरू की तथा धीरे-धीरे मुगल दरबार तक पहुंचे.
भर्त्सना के शिकार रीति काव्य को एलिसन ने शृंगार से आगे बढ़कर तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश के साथ जोड़कर देखा और अपने प्रिय कवि केशव के सहारे वह प्रक्रिया खोजी, जिससे ब्रजभाषा एक ‘कॉस्मोपोलिटन वर्नाकुलर’ में बदलकर उस दौर के श्रेष्ठ साहित्य का माध्यम बनी तथा इसका दायरा ब्रज क्षेत्र से आगे पश्चिम में कच्छ और पूर्व में बंगाल तथा पंजाब और दकन तक फैल गया.
साल 2014 में एलिसन की एक और किताब ‘कल्चर एंड सर्कुलेशन : लिटरेचर इन मोशन इन अर्ली इंडिया’ अायी थी, जिसे उन्होंने डच हिंदी विद्वान डॉ थॉमस दे ब्रुईं के साथ संपादित की थी. इसमें उन्होंने हिंदी, बंगाली, फारसी और मराठी के प्रमुख विद्वानों के लेखों को संकलित किया था और उस दौर में ब्रजभाषा के महत्व को बहुत विस्तार से बताया था.
फिलहाल वह पद्माकर और मान कवि तथा केशवदास के रसिकप्रिया और कविप्रिया के अनुवादों पर काम कर रही थीं. शिकागो विवि से 2003 में हिंदी साहित्य से पीएचडी एलिसन का काम इसलिए भी बेहद महत्वपूर्ण है कि वह ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेली के साथ उर्दू-फारसी को भी मध्यकालीन साहित्य के शोध के लिए पूरी दक्षता के साथ उपयोग करती हैं.
कोलंबिया विवि के मध्य-पूर्व, दक्षिण एशियाई और अफ्रीकी अध्ययन विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर एलिसन मध्यकालीन हिंदी साहित्य की एक महत्वपूर्ण शोधकर्ता और अध्येता थीं. हिंदी में साहित्य का इतिहास लिखने के क्षेत्र में आमतौर पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ को ही पहली किताब माना जाता है.
मध्यकाल पर काम तो बहुत हुए, लेकिन मध्यकाल को लेकर जो दृष्टिकोण रहा, वह दक्षिणपंथी और वामपंथी, दोनों तरह के अतिवादों का शिकार रहा. एक तरफ भक्तिकाल के इर्द-गिर्द एक ऐसे समर्पण का भाव जिसमें पुरातन के गौरव को स्थापित करने से लेकर भारत को एक धर्म केंद्रित समाज सिद्ध कर आधुनिक काल में पुनरुत्थान जैसी प्रेरणाएं थीं, जिनमें फारसी के प्रभाव और उसकी उपस्थिति को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया और अक्सर तो दोनों भाषाओं और संस्कृतियों को प्रतिद्वंद्वी बनाने की कोशिशें हुईं, तो दूसरी तरफ इस काल के साहित्य को धार्मिक तथा सामंती कह इसका पूर्ण नकार हुआ.
चूंकि इस काल के ज्यादातर कवि राजदरबारों में थे और ब्राह्मण थे, तो दलित साहित्य ने इसे ‘ब्राह्मण साहित्य’ कहकर उपेक्षित करना ही चुना. इससे इतर, जिन विद्वानों ने साहित्य को इतिहास के वैकल्पिक स्रोत की तरह उपयोग कर उस समय के समाज और उस दौर की राजनीति की पड़ताल तथा उनमें उन स्रोतों की तलाश कर आधुनिक भारत की वैचारिक और सांस्कृतिक पहचान का निर्माण किया, उनमें प्रो अग्रवाल के साथ एलिसन एक महत्वपूर्ण नाम हैं.
‘इतिहास में हिंदी और हिंदी में इतिहास’ के इस शोध प्रविधि को आमतौर पर ‘देशज आधुनिकता’ का नाम दिया गया, जो मूलतः मध्यकालीन समाज के उन प्रस्थान बिंदुओं की तलाश है, जिन्होंने पतनशील प्रवृत्तियों के बरअक्स सहजीविता के नये मानवीय आदर्श विकसित किये. इस प्रक्रिया में ब्रज, अवधी, बुंदेली जैसी भाषाओं के उस सतत प्रवाह की भी तलाश मुमकिन होती है, जो खड़ी बोली से जुड़ती भी है और उसे एक मजबूत आधार भी प्रदान करती है.
अपने एक प्रसिद्ध लेख- ‘हिडेन इन प्लेन व्यू : ब्रजभाषा पोएट्री इन मुगल कोर्ट’ में वह बहुत विस्तार से सिद्ध करती हैं कि ब्रजभाषा की कविता केवल हिंदू राजाओं और सामंतों तक नहीं, बल्कि मुगल दरबार में महत्वपूर्ण स्थान बना चुकी थी.
औरंगजेब के दरबार में भी ब्रज को प्रोत्साहन देनेवाला माहौल था. बादशाह के बेटे आजम शाह की ब्रज कविता में खासी दिलचस्पी थी. ब्रज साहित्य के कुछ बड़े नामों जैसे महाकवि देव को उसने संरक्षण दिया था. एक और बड़े कवि वृंद तो औरंगजेब के प्रशासन में भी नियुक्त थे.
एलिसन मुगलकालीन भारत में फारसी, संस्कृत और ब्रजभाषा के शानदार सहअस्तित्व का वर्णन करती हैं कि मुगल दरबारों की संस्कृति फारसी की संस्कृति नहीं थी, बल्कि इन तीनों भाषाओं की अंतःक्रिया से उपजी मिली-जुली संस्कृति थी और वह सूत्र भी देती हैं, जिससे भारत में हिंदू-मुस्लिम सहकार और सहअस्तित्व विकसित हुआ था, जिसे अमूमन गंगा-जमुनी संस्कृति कहा गया था. कट्टरपंथ की राजनीति से लेकर भाषा और संस्कृति तक में गहराते जाने के इस दौर में एलिसन का असमय निधन इस क्षेत्र में पहले से ही उपस्थित अभाव को और गहरा करेगा.