बुधिया और उसका गर्भस्थ शिशु

बुधिया और उसके गर्भस्थ शिशु को एक साथ संवेदनशील मन और जाग्रत विवेक से देखना चाहिए. क्या बुधिया वर्तमान नहीं है और गर्भस्थ शिशु भविष्य? बुधिया की प्रसव-वेदना तत्कालीन भारत की प्रसव-वेदना है. गर्भस्थ शिशु एक नया भारत है. हिंदी की जो कहानियां हमें बार-बार पुन:पाठ के लिए आमंत्रित करती हैं, बेचैन और परेशान, उनमें […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 4, 2014 12:37 AM

बुधिया और उसके गर्भस्थ शिशु को एक साथ संवेदनशील मन और जाग्रत विवेक से देखना चाहिए. क्या बुधिया वर्तमान नहीं है और गर्भस्थ शिशु भविष्य? बुधिया की प्रसव-वेदना तत्कालीन भारत की प्रसव-वेदना है. गर्भस्थ शिशु एक नया भारत है.

हिंदी की जो कहानियां हमें बार-बार पुन:पाठ के लिए आमंत्रित करती हैं, बेचैन और परेशान, उनमें ‘कफन’ कहानी अन्यतम है, जो मुहम्मद आकिल द्वारा संपादित उर्दू पत्रिका ‘जामिया’ में दिसंबर, 1935 में प्रकाशित हुई थी. इसका हिंदी अनुवाद ‘चांद’ पत्रिका के अप्रैल, 1936 अंक में प्रकाशित हुआ था. बुधिया और होरी की मृत्यु के बाद प्रेमचंद ने इस दुनिया को अलविदा किया. क्या संयोग है कि एशिया के तीन महान कथाकार- गोर्की (रूस), लू शुन (चीन) और प्रेमचंद (भारत) 1936 में दिवंगत हुए? भारत में 1937 में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बनने के पूर्व प्रेमचंद का निधन (8 अक्तूबर, 1936) हुआ.

‘कफन’ कहानी पर काफी विचार किया गया है. क्या ‘कफन’ पर स्वतंत्र रूप से एक किताब लिखने की जरूरत नहीं है, जिसमें हम एक साथ कहानी के आरंभ के ‘बुङो अलाव’ से लेकर गरीबी, शोषण, कामचोरी, दलित स्थिति, स्त्री दशा, ब्राrाणवादी-वर्णवादी व्यवस्था, सामंत-जमींदार, महाजन, लोक-परलोक, मर्यादा, दिखावा, आडंबर, बाजार, मधुशाला, मृत्यु का जश्न-सम्मान और जीवन का अपमान पर ऐतिहासिक, भारतीय संदर्भ में विचार करें? कथालोचकों ने कहानी के अनेक अर्थ-स्तरों पर विचार किया है. किसी भी रचना या कृति का कोई एक अर्थ नहीं होता. यह रचना का वह विश्वविद्यालयी पाठ है, जो रचना के वास्तविक मर्म को समझने-समझाने में बाधक है. जिसे हम ‘कहानी का मर्म’ कहते हैं, उसका संबंध कहानी के अनेक स्तरों से होता है.

कहानी के पाठक दो प्रकार के होते हैं- सामान्य और विशिष्ट. सामान्य पाठक जहां रचना का एक अर्थ ग्रहण करता है, वहां विशिष्ट पाठक कहानी में अनेक अर्थो की तलाश करता है. कथाकार सामान्य पाठक की अवहेलना कर लोकप्रिय नहीं हो सकता. प्रश्न पाठकीय बोध के स्तर का है. पाठकीय बोध का विकास आलोचक के जिम्मे है. विषय-विचार की दृष्टि से कहानी का जो अर्थ-स्तर होता है, वही भावात्मक दृष्टि से नहीं.

क्या ‘कफन’ कहानी में घीसू-माधव (पिता-पुत्र) का काम न करना ‘वेपन ऑफ द वीक’ है- कमजोरों का हथियार? नामवर सिंह ने कामचोरी को ‘पैसिव ढंग का हथियार’ कहा है. वे इस कहानी को ‘निराशा और पस्ती की कहानी’ के रूप में न देख कर ‘प्रोटेस्ट और विद्रोह’ के रूप में देखते हैं- जमींदारी व्यवस्था के विरुद्ध. ‘कफन’ जमींदारी व्यवस्था के विरुद्ध नहीं, ब्राrाणवादी, कर्मकांडी, वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध है- ‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तक ढांकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफन चाहिए.’ दुनिया के इस ‘दस्तूर’ पर रीति-रिवाज, ढोंग-पाखंड पर प्रेमचंद पूरी ताकत से प्रहार करते हैं. कहानी में घीसू-माधव के बीच बातचीत है. बुधिया की केवल गूंजती-फैलती हुई कराह है. माधव की जवान बीवी ‘बुधिया प्रसव-वेदना से पछाड़ खा रही थी.’ होरी (गोदान) की मृत्यु पर धनिया पछाड़ खाकर गिर पड़ी थी. क्या ‘कफन’ कहानी में बुधिया मात्र एक चरित्र है-विपन्न, स्त्री, दलित चरित्र? क्या बुधिया का गर्भस्थ शिशु मात्र एक शिशु है? एक स्त्री का गर्भ अपने में एक विश्व है. गर्भ में शिशु की मृत्य के अनेक कारण हैं. बुधिया और उसके गर्भस्थ शिशु दोनों की मृत्यु का कारण गरीबी है. बुधिया श्वसुर और पति की तरह कामचोर नहीं है. ‘जब से यह औरत आयी थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी. जब से यह आयी, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे.’ घीसू और माधव जैसे चरित्र जिस सामाजिक व्यवस्था में बनते हैं, उसे बदले बगैर, भारतीय समाज का कायांतरण, रूपांतरण नहीं हो सकता. ‘कफन’ एक कहानी मात्र है या भारतीय समाज-व्यवस्था का एक उदाहरण? कामचोर होकर भी घीसू-माधव जीवित हैं और बुधिया कामकाजी होकर भी मरती है. होरी भी तो ‘गोदान’ में श्रम करता हुआ ही मरा था. ‘कफन’ में घीसू विधुर है. बेटा माधव भी कहानी में विधुर हो जाता है. बुधिया भी जननी हो सकती थी, वह नहीं हो पाती. बुधिया की मृत्यु सामान्य मृत्यु नहीं है. उसकी प्रसव-वेदना क्या 1935 के भारत की प्रसव-वेदना नहीं है?

‘कफन’ कहानी का स्त्री-पाठ, दलित पाठ, वर्गीय पाठ खंडित पाठ है. इस खंडित पाठ से कहानी का वास्तविक अर्थ और मर्म उद्घाटित नहीं होता. प्रेमचंद-साहित्य के जो तीन दौर (1907-1920, 1920-1930-32, 1932-1936) है, उसमें तीसरे दौर में प्रेमचंद सामान्य जनों की अधिक कहानियां लिख रहे थे, जिनके अधिसंख्य पात्र पिछड़ी और छोटी जाति के हैं. लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन (1930) के बाद कांग्रेस की स्थिति अच्छी नहीं थी. तीस के दशक के आरंभिक वर्ष कांग्रेस के लिए भटकाव के थे. आंदोलन लगभग थमा हुआ था. प्रेमचंद के सामने पहले से भिन्न यथार्थ था. कांग्रेस के लिए यह दौर भटकाव का था और प्रेमचंद के लिए रचनात्मक उत्कर्ष का. इसी समय प्रेमचंद ने ‘साहित्य का उद्देश्य’ घोषित किया था- ‘साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है- उसका दरजा न गिराइए. वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सच्चई भी नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सच्चई है.’

बुधिया की कराह कहानी के एक पात्र की कराह नहीं, उस भारत की कराह है, जो आज भी जारी है. कहानी में बुधिया मां नहीं बनती. घीसू और माधव ‘एलियनेशन’ पर काफी विचार किया गया है, पर बुधिया की प्रसव-वेदना पर नहीं. ‘सवेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठंडी हो गयी थी. सारी देह धूल से लतपथ हो रही थी. उसके पेट में बच्च मर गया था.’ बुधिया और उसके गर्भस्थ शिशु को एक साथ संवेदनशील मन और जाग्रत विवेक से देखना चाहिए. क्या बुधिया वर्तमान नहीं है और गर्भस्थ शिशु भविष्य? बुधिया की प्रसव-वेदना तत्कालीन भारत की प्रसव-वेदना है. गर्भस्थ शिशु एक नया भारत है.

1937 के विधानसभा चुनाव से लेकर आज तक सभी चुनावों ने किस भारत को जन्म दिया है? बुधिया की कराह सुन कर भी घीसू-माधव कुछ नहीं कर सके . आज क्या हम बुधिया की प्रसव-वेदना की कराह सुन रहे हैं? मौजूदा समाज में आज जहां भी बुधिया व उसका गर्भस्थ शिशु है, प्रश्न उसे बचाने का है, जो नयी व्यवस्था के बिना क्या संभव है? प्रश्न कामचोर बनानेवाली स्थितियों को दूर करने का, श्रम के सम्मान का, गरीबी दूर करने का, जमींदारों एवं महाजनों से सामान्य जनों को बचाने का, अलाव को जाड़े में बुझने न देने, कर्मकांड और धार्मिक ढकोसलों को दूर करने का, उन सबको बचाने का है, जिनसे हम सही अर्थो में इनसान बने रहते हैं. बड़ा सवाल यह है कि बुधिया और गर्भस्थ शिशु को बचाने का काम कौन करेगा? कैसी व्यवस्था करेगी?

रविभूषण

वरिष्ठ साहित्यकार

delhi@prabhatkhabar.in

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