शर्मनाक है बीएचयू की घटना
आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव भारतीय लोकतंत्र की मूल भावना नहीं है. जब किसी के धर्म के आधार पर उसकी विद्वता का फैसला किया जाने लगे, तो निश्चित रूप से यह गहरी चिंता का विषय है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों […]
आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in
जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव भारतीय लोकतंत्र की मूल भावना नहीं है. जब किसी के धर्म के आधार पर उसकी विद्वता का फैसला किया जाने लगे, तो निश्चित रूप से यह गहरी चिंता का विषय है.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों को किसी मुसलमान शख्स का संस्कृत पढ़ाना स्वीकार्य नहीं है. बीएचयू में संस्कृत धर्म संकाय में असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर डॉ फिरोज खान की नियुक्ति के विरोध में छात्रों ने 15 दिनों तक कुलपति आवास के सामने धरना दिया और आगे भी आंदोलन जारी रखने का एलान किया है. छात्र अड़े हुए हैं कि एक मुसलमान संस्कृत और धर्मशास्त्र कैसे पढ़ा सकता है? वे इसे आदर्शों के विपरीत बताते हुए इसे रद्द करने की मांग कर रहे हैं. उनका कहना है कि वे किसी मुस्लिम प्रोफेसर से हिंदू धर्म के कर्मकांड नहीं सीख सकते है. हालांकि बीएचयू प्रशासन ने स्पष्ट कर दिया है कि प्रोफेसर फिरोज कर्मकांड नहीं, संस्कृत साहित्य पढ़ायेंगे. उनका चयन धर्म विज्ञान संकाय के साहित्य विभाग में हुआ है.
कुलपति की अध्यक्षता में चयन समिति की बैठक में विषय विशेषज्ञों ने पारदर्शी प्रक्रिया अपनाते हुए डॉ फिरोज खान को इस विषय को पढ़ाने के लिए योग्य पाया. यह धारणा गलत है कि संस्कृत हिंदुओं और विशेष रूप से ब्राह्मणों की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की, जबकि कोई भी भाषा उनकी होती है, जो उसे सीखते हैं, पढ़ते हैं, चाहे वे कोई किसी भी धर्म अथवा जाति के हों. भाषा चाहे संस्कृत हो या उर्दू, वह किसी मजहब की नहीं होती है. उसे कोई भी पढ़ सकता है और पढ़ा सकता है. व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी विद्वता के आधार पर होना चाहिए न कि जाति या धर्म के आधार पर. जाति या धर्म के आधार पर विरोध किसी भी हालत में जायज नहीं है.
यह युवाओं का देश है और युवा पीढ़ी से इस देश को बहुत आशाएं हैं. यह बेहद समझदार और जागरूक पीढ़ी है और उनसे हम सब की अपेक्षा है कि वे देश और समाज के इस आधार पर बांटने का अपराध नहीं करेंगे. विरोध के केंद्र असिस्टेंट प्रोफेसर फिरोज खान हैं, इसलिए उनकी पृष्ठभूमि जानना भी जरूरी है. उन्होंने 5वीं कक्षा से संस्कृत पढ़नी शुरू की थी. इसके बाद उन्होंने जयपुर के राष्ट्रीय संस्कृत शिक्षा संस्थान से एमए और पीएचडी की उपाधि हासिल की. फिरोज खान को 14 अगस्त को मनाये जाने वाले संस्कृत दिवस पर राज्य स्तरीय संस्कृत युवा प्रतिभा सम्मान समारोह में भी सम्मानित किया जा चुका है.
कहने का आशय यह कि फिरोज खान संस्कृत के विद्वान हैं और उनकी आत्मा उसी में रचती बसती है. उन्होंने संस्कृत क्यों पढ़ी, इसके जवाब में उन्होंने बीबीसी को बताया कि भारत की प्रतिष्ठा के दो आधार हैं- एक संस्कृत और दूसरा संस्कृति. अगर आप भारत को समझना चाहते हैं, तो बिना संस्कृत पढ़े पूरी तरह से नहीं समझ सकते हैं. भारत का जो मूल तत्व है, वह संस्कृत में ही है. डॉ खान संस्कृत में लक्षण ग्रंथ को बहुत बेहतर समझते हैं. उन्हें पूरा काव्य प्रकाश कंठस्थ है. इसमें अलंकार, गुण और रीति-दोष आते हैं. फिरोज खान ने वेदों को भी पढ़ा है. वह संस्कृत में कविताएं लिखते हैं. दूरदर्शन पर वार्तावाणी साप्ताहिक प्रोग्राम करते हैं.
उन्होंने बांग्ला के गानों को संस्कृत में दूरदर्शन के लिए गाया है. इसी साल फिरोज खान को राजस्थान के मुख्यमंत्री ने संस्कृत युवा प्रतिभा पुरस्कार दिया था. ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्ति की नियुक्ति पर धर्म के आधार पर सवाल उठाने से बड़ा कोई अपराध नहीं है. उनका विरोध करने वाले छात्र यह नहीं जानते कि वे देश का कितना नुकसान कर रहे हैं. फिरोज खान की पारिवारिक पृष्ठभूमि पर भी नजर डाल लें. उनका परिवार राजस्थान के बगरू में रहता है. उनके पिता रमजान खान ने भी संस्कृत में शास्त्री योग्यता हासिल की है. वह मंदिरों में भजन गाते हैं और पास की गोशाला में गायों की सेवा करते हैं. वह मस्जिद भी जाते हैं और नमाज भी अदा करते हैं. रमजान खान को लेकर कभी किसी को कोई परेशानी नहीं हुई. उनके पिता तो इस बात से बेहद उत्साहित थे कि बेटा अब बीएचयू में संस्कृत पढ़ायेगा, लेकिन छात्रों के विरोध ने उस पर पानी फेर दिया.
बीएचयू का जब भी उल्लेख आता है, तो पंडित मदन मोहन मालवीय का नाम स्वयं सामने आ जाता है. मदन मोहन मालवीय ने बीएचयू की स्थापना की थी. वह एक महान स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, वकील और समाज सुधारक थे. महात्मा गांधी ने मदन मोहन मालवीय को महामना की उपाधि दी थी. बापू उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे. मालवीय जी ने कांग्रेस के कई अधिवेशनों की अध्यक्षता भी की. उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभायी. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अंग्रेजों के शासनकाल में देश में एक स्वदेशी विश्वविद्यालय का निर्माण मदन मोहन मालवीय की कितनी बड़ी उपलब्धि थी. महामना ने विश्वविद्यालय निर्माण में चंदे के लिए पेशावर से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्रा की थी और 1.64 करोड़ रुपये जुटाये थे. मालवीय जी ने बीएचयू की स्थापना इस उद्देश्य से की थी कि यह विश्वविद्यालय धर्म, जाति, संप्रदाय आदि के भेदभाव से ऊपर उठ कर राष्ट्र निर्माण के लिए सभी को अध्ययन एवं अध्यापन के समान अवसर प्रदान करेगा. उन्होंने बीएचयू में उर्दू, अरबी और फारसी विभाग भी स्थापित किया था. इन विभागों में विद्वता ही पैमाना रही है और हिंदू-मुस्लिम सभी समुदायों के लोग पढ़ते पढ़ाते आ रहे हैं. बीएचयू के उर्दू विभाग में पिछले 11 वर्षों से डॉ ऋषि शर्मा उर्दू पढ़ा रहे हैं. उन्हें कोई परेशानी है.
ऐसा नहीं है कि फिरोज खान पहले मुस्लिम शख्स हैं, जो संस्कृत पढ़ा रहे हों. डॉ नाहिद आबिदी काशी विद्यापीठ में संस्कृत पढ़ाती हैं. संस्कृत में उनके योगदान के लिए उन्हें 2014 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया था. ऐसे अनेक उदाहरण हैं. बीएचयू के कुलाधिपति और पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मूर्ति गिरिधर मालवीय ने कहा है कि महामना की सोच व्यापक थी. यदि वह जीवित होते, तो निश्चित रूप से इस नियुक्ति का समर्थन करते.
ऐसी घटनाओं से आभास होता कि आपसी विश्वास की कमी समाज में कितने गहरे तक जा पहुंची है, जबकि जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव भारतीय लोकतंत्र की मूल भावना नहीं है. जब किसी के धर्म के आधार पर उसकी विद्वता का फैसला किया जाने लगे, तो निश्चित रूप से यह गहरी चिंता का विषय है. इस पर समाज उद्वेलित नहीं होता, लोगों में चिंता नहीं जगती. चिंता का विषय है कि ऐसी घटनाएं हमें सोचने को मजबूर नहीं कर करती हैं कि हम किस दिशा में जा रहे हैं. भारतीय लोकतंत्र धार्मिक समरसता और विविधता में एकता की मिसाल है. यहां अलग-अलग जाति, धर्म, संस्कृति को मानने वाले लोग वर्षों से बिना किसी भेदभाव के रहते आये हैं. भारत जैसी विविधिता दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलती. यह भारत की बहुत बड़ी पूंजी है और यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि इसे बचा कर रखें.