विवादों के भंवर में जेएनयू
प्रभु चावला एडिटोरियल डायरेक्टर द न्यू इंडियन एक्सप्रेस prabhuchawla @newindianexpress.com मेधा का शिल्प हमेशा ही उस इमारत के शिल्प को प्रतिबिंबित नहीं करता, जहां वह फलती-फूलती है. मिसाल के तौर पर, वामपंथी विचारधारा के गढ़ एवं आधी सदी पुराने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) को लें, जो अलगाववाद का अड्डा और वैचारिक रूप से फैशनेबल उस […]
प्रभु चावला
एडिटोरियल डायरेक्टर
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
prabhuchawla
@newindianexpress.com
मेधा का शिल्प हमेशा ही उस इमारत के शिल्प को प्रतिबिंबित नहीं करता, जहां वह फलती-फूलती है. मिसाल के तौर पर, वामपंथी विचारधारा के गढ़ एवं आधी सदी पुराने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) को लें, जो अलगाववाद का अड्डा और वैचारिक रूप से फैशनेबल उस जमात की पनाहगाह है, जिसके मस्तिष्क में मार्क्स तथा कार्यसूची में कश्मीर रहा करता है.
शायद ही कोई विश्वविद्यालय वैचारिक रूप से प्रेरित प्रतिपक्षी बना करता है, पर देश की चार सौ से भी अधिक ऐसी संस्थाओं में जेएनयू वैसे निकायों की सर्वाधिक उग्र विरोधी है, जो कई स्तरों पर बद्धमूल उसके असंतुलनों को सुधारने की कोशिश में लगते हैं. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की रिपोर्ट के अनुसार, अन्य संस्थाओं में प्रति छात्र एक हजार रुपये प्रति वर्ष से भी कम खर्च करने के विरुद्ध केंद्र जेएनयू में प्रति छात्र ढाई लाख रुपये प्रतिवर्ष से भी अधिक व्यय करता है.
पिछले कुछ हफ्तों से जेएनयू के छात्र उस फैसले के खिलाफ प्रदर्शन करते रहे हैं, जिसने उन्हें शिक्षा एवं लगभग निःशुल्क आवास पर किंचित अधिक व्यय कराने का प्रयास किया है. उनका यह पाखंडपूर्ण क्रोध केवल वित्तीय मामलों तक ही सीमित न रहकर अपनी रौ में सियासी दायरे तक भी जा पहुंचा है, मानो अभी-अभी लेनिन अपने क्रांतिकारी रूप में अवतरित हुए हों. जेएनयू संभवतः अकेला ऐसा सरकारी सहायता प्राप्त संस्थान है, जिसके छात्र अपने हॉस्टल रूम के लिए मात्र 20 रुपये प्रति माह की नगण्य राशि भुगतान करते हैं.
सभी पीएचडी डिग्रियों के लिए वार्षिक शुल्क जहां केवल 240 रुपये प्रति छात्र है, वहीं कई स्नातकोत्तर एवं स्नातक पाठ्यक्रमों के लिए यह सिर्फ 216 रुपये ही है. हालांकि छात्रों के विरोध पर सरकार ने बढ़ी हुई राशि का अधिकांश हिस्सा वापस ले लिया, फिर भी छात्रों का विरोध थमने का नाम नहीं ले रहा है. शासक दल का यह यकीन है कि एक लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार पर छात्र स्वयत्तता के नाम पर हो रहे आक्रमण को परोक्ष अनुदान देना सार्वजनिक धन का अपव्यय है.
संघ परिवार इस तथ्य को पचा पाने में असमर्थ है कि जेएनयू ऐसा अकेला शैक्षिक संस्थान है, जिसकी मानव संसाधन संरचना उसके घोर विरोधी साम्यवादियों के साथ खड़ी होती है. भाजपा जहां जोर देकर यह कहती है कि जेएनयू राष्ट्र विरोधी तत्वों को प्रश्रय देती है, वहीं इस यूनिवर्सिटी के समर्थकों का यह दावा है कि यह ऐसी एक ही यूनिवर्सिटी है, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा अकादमिक उत्कृष्टता एक साथ पल्लवित होती है.
जेएनयू का वार्षिक बजट 260 करोड़ रुपयों से भी ज्यादा है, जबकि इसके हजार एकड़ के परिसर में नौ हजार छात्र-छात्राओं के लिए 650 से भी अधिक प्राध्यापक नियुक्त हैं.
जेएनयू के विद्रोही एवं वामपंथी चरित्र का मूल इसके छात्र-छात्राओं तथा प्राध्यापकों की उस चयन प्रक्रिया में सन्निहित है, जो यहां वैचारिक रूप से केवल सुसंगत युवाओं का प्रवेश सुनिश्चित करता है. वर्ष 1969 में एक वामपंथी मूनिस रजा को इसका रेक्टर चुना गया. वर्ष 1972 में कट्टर वामपंथी नूरुल हसन केंद्रीय शिक्षा मंत्री बने, जिन्होंने यहां साम्यवादी विचारधारा की मजबूती सुनिश्चित की. जेएनयू के प्रशंसक इसे एकमात्र वैसी यूनिवर्सिटी मानते हैं, जो निर्धन वर्ग के छात्रों को काफी अनुदानित शिक्षा मुहैया करता है, जिनमें 90 प्रतिशत से भी अधिक अन्य राज्यों से आते हैं.
शुल्क वृद्धि की हालिया घोषणा के बाद छात्र नेताओं का यह दावा था कि यहां के 43 प्रतिशत छात्र ऐसे परिवारों से हैं, जिनकी वार्षिक आय चार लाख रुपये से कम है. पर वे केवल गरीब छात्रों के लिए ही रियायत नहीं मांग रहे थे.
शुल्क वृद्धि की वापसी से वैसे छात्र भी लाभान्वित होंगे, जो एक दशक से भी अधिक वक्त से यहां रुके हुए हैं. इसके अलावा, यहां 25 प्रतिशत से अधिक छात्र समृद्ध परिवारों से हैं. उनमें भी बड़ी तादाद सियासी रहनुमाओं, नौकरशाहों तथा शैक्षिक हस्तियों की संबंधी है, जो बड़ी आसानी से यहां के निर्धन छात्रों की शिक्षा का भार वहन कर सकती है. जेएनयू में छात्रों के प्रवेश का आधार अधिक व्यापक करने के सभी प्रयासों को इसके वाम-नियंत्रित हितों द्वारा विफल बना दिया जाता है.
मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रैंकिंग के अनुसार हालंकि यह शैक्षिक उत्कृष्टता में द्वितीय स्थान पर स्थित है, पर इसका समग्र चरित्र अर्द्ध-राजनीतिक है. जेएनयू भारत की ऐसी इकलौती यूनिवर्सिटी है, जहां 60 प्रतिशत से भी अधिक छात्र उदार छात्रवृत्तियों तथा स्टाइपेंड से लाभान्वित होते हुए एमफिल एवं पीएचडी पाठ्यक्रमों में दाखिला लेते हैं. यह पहेली ही है कि जेएनयू एक यूनिवर्सिटी का ठप्पा लगाये रखने के विशेषाधिकार से विभूषित है, जबकि इसके आधे से अधिक प्राध्यापक तथा छात्र इसके परिसर से बाहर सियासी गतिविधियों में अपनी कक्षाओं से अधिक समय व्यतीत करते हैं.
चाहे अथवा अनचाहे, कांग्रेस ने जेएनयू की सियासत और प्रबंधन में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी, इसलिए इस संस्थान ने सीताराम येचुरी, प्रकाश करात एवं कन्हैया कुमार जैसी वामपंथी हस्तियां पैदा कीं. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, बीएचयू एवं एएमयू इत्यादि ने राष्ट्रवादी नेताओं को जन्म दिया, जो आज कांग्रेस एवं भाजपा के सिरमौर बने हुए हैं. निर्मला सीतारमण तथा एस जयशंकर जैसे केंद्रीय मंत्री वैचारिक पोषण की बजाय सिर्फ संयोगवश ही आज भगवा रंग में रंगे हैं.
एक वामपंथी प्राध्यापक ने जेएनयू की तारीफ करते हुए कहा कि हर क्षेत्र की नामचीन हस्तियों में बड़ी तादाद जेएनयू के लोगों की मिलेगी. इसमें कोई शक नहीं कि जेएनयू से निकले लोग आज कई महत्वपूर्ण पदों काबिज हैं, पर इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि उनमें से कुछ ‘टुकड़े-टुकड़े गिरोह’ से भी सहानुभूति रखते हैं. मोदी तथा उनकी विचारधारा का विरोध इस परिसर के लिए आज आस्था की ही बात है.
इसके छात्रों में से कई के लिए धारा 370 की समाप्ति की दिशा में लोकतांत्रिक ढंग से अंगीकार किया गया संकल्प कश्मीरियत पर एक प्रहार का प्रतीक है. इस संदर्भ में हेनरी किसिंजर का वक्तव्य प्रासंगिक है- विश्वविद्यालय की राजनीति इसलिए विद्वेषपूर्ण होती है क्योंकि दांव पर मामूली चीजें होती हैं. जेएनयू की चेतना की ठाठ व पेशेवराना वामपंथी विरोध के रेशमी आडंबर में फीस जैसी बातें भी अचानक बड़ी हो उठी हैं. (अनुवाद: विजय नंदन)