कुमार प्रशांत
गांधीवादी विचारक
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ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अयोध्या मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का फैसला क्यों किया, यह तो पता नहीं, लेकिन मुझे यह पता है कि यह फैसला उन्हें भी शर्मशार करेगा अौर देश को भी! जीत का रहस्य यह है कि वह संयम में शोभा पाता है; हार का खोखलापन यह है कि वह बेवजह जख्म को हरा करता रहता है.
अयोध्या विवाद का जो फैसला सर्वोच्च न्यायालय ने दिया है, उसके बाद हिंदू, मुसलमान तथा देश के दूसरे सभी धर्मावलंबियों ने खासी समझदारी का परिचय दिया है. ऐसा नहीं है कि यह फैसला सबको संतोषजनक लगा है.
शिकायतें हैं, लेकिन संयम का अहसास भी है. सबको संतोषजनक लगे, ऐसा कोई रास्ता अगर होता तो इस मामले को न्यायालय तक अाने की जरूरत ही क्यों होती! ऐसा कोई रास्ता किसी के पास था ही नहीं. अब जब अदालत का फैसला अा गया, फिर उसे नामंजूर कैसे किया जा सकता है?
अदालत के फैसले में अंतर्विरोध भी हैं अौर कई मामलों में भटकाव भी. लेकिन मुझ समेत सबने यह तो कहा ही है कि हम फैसले को अमान्य नहीं करते हैं. उसकी विसंगतियां सबके सामने रखना उसका मजाक उड़ाना या उससे इनकार करना नहीं है, बल्कि मानवीय प्रयासों की सीमा बताना है. यही भूमिका अॉल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भी लेनी चाहिए.
अदालत ने अपनी असहमति जाहिर कर दी है अौर हम जिस संवैधानिक व्यवस्था के तहत रहते हैं, उसमें हमारी सर्वोच्च अदालत सहमति-असहमति का अाखिरी दरवाजा है. हमने ही स्वीकार किया है कि यहां से अागे सहमति-असहमति नहीं, निर्णय होगा अौर सभी उसे मानेंगे.
हम यहां से अाया निर्णय कबूल न करें या अंत-अंत तक कबूल न करने का तेवर दिखाते रहें, तो यह पराजित मानसिकता को अधिक ही तीखा बनायेगा अौर दूसरे पक्ष को भी कटुता पर उतरने के लिए मजबूर करेगा.
मंदिर बनाने की अनुमति पा जाने के कारण ही हिंदुत्व धड़ा इतना संयम दिखा रहा है. सारे मुस्लिम समाज को यह बात समझनी चाहिए कि मस्जिद के विवाद को पीछे छोड़कर हम जितनी जल्दी अागे निकल जायेंगे, हिंदुत्व का विषदंत उतनी ही जल्दी भोथरा हो जायेगा. वहां ऐसे तत्व हैं, जो चाहते हैं कि चिंगारी छिटके, जहरीली हवा चले और अाग भड़के! हमें उनके हाथों खेलना नहीं है, उनको बेअसर करना है.
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक अायोग के वर्तमान अध्यक्ष गैरुल हसन रिजवी ने भी मुस्लिम समाज को अागाह किया है कि पुनर्विचार याचिका का विचार प्रतिकूल परिणाम लायेगा. हमारी संवैधानिक व्यवस्था में पुनर्विचार याचिकाएं मुकदमा फिर से खोलने का उपकरण नहीं हैं. सामान्य प्रक्रिया तो यही है कि न्यायाधीश महोदय अपने चैंबर में ही वादी-प्रतिवादी दोनों की बातें सुन लेते हैं, उस रोशनी में अपने ही फैसले की समीक्षा कर लेते हैं अौर फिर याचिका को स्वीकृत या अस्वीकृत करते हैं.
क्या अभी-अभी जिस विवाद की इतनी लंबी सुनवाई हुई है, उस संदर्भ में अॉल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ऐसा कोई एकदम नया साक्ष्य लेकर अाया है, जिससे इस फैसले की बुनियाद बदल जाये? मेरा खयाल है कि ऐसा कोई साक्ष्य किसी के हाथ नहीं लगा है. तब सारा मामला साक्ष्यों के अाधार पर बननेवाली मनोभूमिका का है. पांच जजों की विशेष संविधान पीठ के सामने हमने जो कुछ कहा, दिखाया, बताया उन सबके अाधार पर ही अदालत ने गहरे विमर्श अौर हर तरह की संभावनाअों को तौलते हुए एक मनोभूमिका बनायी अौर वही फैसले के रूप में हमारे समक्ष रखा है.
एक पक्ष को मंदिर बनाने के लिए ट्रस्ट बनाने की अनुमति मिली, तो दूसरे पक्ष को पांच एकड़ जमीन मिली, जिसका वे मनचाहा इस्तेमाल कर सकते हैं. एक बड़ी लकीर खींचने का ऐसा वक्त हमारे हाथ में अा गया है, जिसके अागे फिर कोई दूसरी मस्जिद या मंदिर या चर्च या गुरुद्वारे का सवाल खड़ा नहीं कर सकेगा. जड़ कटे अौर कोई एक नया पौधा उगे, ऐसी कोई सलाहियत हमें खोजनी है.
पराजय या डर की मनोभूमिका होगी तो हम यह काम नहीं कर सकेंगे. अात्मविश्वास से भरा अौर पुरानी सारी शंकाअों को पीछे रखकर, पुरानी लिखावटें मिटाकर, भारतीय समाज का एक बड़ा घटक सारे समाज को संबोधित करते हुए, साथ लेते हुए कुछ नया लिखने की कोशिश करे, यह वैसा अवसर है.
अदालत के फैसले को हम ऐसे अवसर में बदल सकते हैं. अभी समाज में ऐसी ग्रहणशीलता बनी है. इसे पुनर्विचार याचिका डालकर हमें खोना नहीं चाहिए. इससे मुस्लिम समाज का अहित तो होगा ही, पूरा भारतीय समाज इससे अाहत होगा.
गांधी ने एक अाजाद मुल्क में धर्मों की जिस भूमिका को रेखांकित करने की कोशिश की थी, उस भूमिका को समझने अौर उस दिशा में मजबूती से बढ़ने का यह समय है. अाज गति नहीं, दिशा महत्वपूर्ण है; उन्माद नहीं, विवेक महत्वपूर्ण है; प्रतिक्रिया नहीं, प्रक्रिया महत्वपूर्ण है.
क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कोई ऐसी पहल कर सकेगा कि पांच एकड़ जमीन का वह टुकड़ा भारतीय समाज के स्वस्थ तत्वों की साझेदारी का नमूना खड़ा करे? जिन्हें अाकाश चूमता मंदिर बनाना हो, वे बनायें, लेकिन अापके पांव किस कीचड़ में सने हैं, जमाना तो यह भी देखेगा. हमारे पांवों में भारतीय समाज के नये साझा स्वरूप का बल हो अौर हमारे निर्माण में भारतीय समाज के साझा अस्तित्व की तस्वीर हो, तो यह संकट स्वर्णिम अवसर बन सकता है.