इतिहास-लेखन का हिस्सा हैं आत्मकथाएं

।। उर्मिलेश ।। वरिष्ठ पत्रकार गांधी-नेहरू के बाद के नेताओं में बहुत कम ने ही अपने जीवन पर सुचिंतित लेखन किया. शायद, इसलिए कि हमारे समाज में शुरू से ही अपने जीवन के निजी पहलुओं को छुपाने का चलन रहा है. समाज को इसका खामियाजा भी झेलना पड़ा है.कांग्रेस की ‘शाउटिंग ब्रिगेड’ अपने पूर्व वरिष्ठ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 5, 2014 4:43 AM
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।। उर्मिलेश ।।

वरिष्ठ पत्रकार

गांधी-नेहरू के बाद के नेताओं में बहुत कम ने ही अपने जीवन पर सुचिंतित लेखन किया. शायद, इसलिए कि हमारे समाज में शुरू से ही अपने जीवन के निजी पहलुओं को छुपाने का चलन रहा है. समाज को इसका खामियाजा भी झेलना पड़ा है.कांग्रेस की ‘शाउटिंग ब्रिगेड’ अपने पूर्व वरिष्ठ नेता के नटवर सिंह पर बेवजह गुर्रा रही है. हाल ही में प्रकाशित किताब ‘वन लाइफ इज नाट एनफ’ में उन्होंने नेहरू-गांधी परिवार या पार्टी के मौजूदा नेतृत्व के बारे में कहीं भी अभद्र या आपत्तिजनक टिप्पणी नहीं की है. लेकिन वरिष्ठ कांग्रेसी इन दिनों नटवर पर गुर्राते नजर आ रहे हैं.

इन लोगों को तो नटवर का आभारी होना चाहिए कि नौ साल पहले तत्कालीन यूपीए सरकार और कांग्रेस पार्टी से बड़े बेआबरू होकर बाहर किये जाने के बावजूद पूर्व विदेश मंत्री अपनी किताब में सोनिया-राहुल-प्रियंका को लेकर बेहद संजीदा और संतुलित नजर आते हैं. नेहरू-गांधी परिवार के किसी कथित घोटाले या व्यक्तिगत भ्रष्टाचार पर उन्होंने अंगुली नहीं उठायी है.

उनकी ज्यादातर नकारात्मक टिप्पणियां या सूचनाएं नेतृत्व के अदूरदर्शी फैसलों या व्यक्तिगत समझ-संवेदना संबंधी कमियों पर केंद्रित हैं. इनसे सहमत-असहमत हुआ जा सकता है, पर इसे ‘विश्वासघात’ बता कर खारिज नहीं किया जा सकता.

22 अध्यायों की किताब में सोनिया गांधी पर सिर्फ एक अध्याय है. परंतु चर्चा सिर्फ उस अध्याय के एक खास रहस्योद्घाटन की हो रही है. वह है- 2004 में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री न बनने के पीछे की असल वजह. अब तक माना जाता रहा है कि 2004 में कांग्रेस को सरकार की अगुवाई करने का मौका मिला, तो सोनिया गांधी ने ‘अंतरात्मा की आवाज’ पर प्रधानमंत्री बनने से इनकार किया था.

उन्होंने अपना ‘ताज’ डॉ मनमोहन सिंह को पहना दिया. तब कांग्रेसियों ने पूरे देश में इस बात को प्रचारित किया. लेकिन नटवर सिंह की किताब इस ‘बहुप्रचरित और स्थापित कथा’ को गलत साबित करती है. उन्होंने 10-जनपथ पर आयोजित अति-महत्वपूर्ण बैठक, जिसमें पार्टी के सिर्फ कुछ शीर्ष नेता ही शामिल थे, का हवाला देते हुए बताया है कि सोनिया ने अपने पुत्र राहुल गांधी के वीटो के चलते प्रधानमंत्री नहीं बनने का फैसला किया. बकौल नटवर वह स्वयं उस बैठक में शामिल थे.

राहुल गांधी का तर्क था कि अतीत में उन्होंने अपनी दादी को खोया, अपने पिता को खोया और अगर सोनिया प्रधानमंत्री बनीं तो अपनी मां भी खो बैठेंगे, इसलिए वह मां को पद से दूर रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. नटवर की टिप्पणी से साफ जाहिर होता है कि राहुल की इसी जिद के चलते सोनिया और परिवार को फैसला बदलना पड़ा.

किताब के छपने से पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी ने नटवर से उनके जोरबाग स्थित बंगले पर जाकर मुलाकात भी की. पिछले नौ साल में यह पहला मौका था, जब सोनिया और नटवर के बीच किसी तरह का कोई संवाद हुआ. बकौल नटवर, दोनों ने किताब के प्रकाशन को रोकने का उनसे अनुरोध किया. उन दोनों की चिंता इसी तरह के कुछ अति-संरक्षित या छुपाये हुए तथ्यों के सार्वजनिक होने को लेकर थी. नटवर चूंकि परिवार के अति-निकटस्थ मित्र और अनेक मामलों के राजदार थे, इसलिए उनकी आत्मकथा के प्रकाशन को लेकर सोनिया की चिंता स्वाभाविक थी.

इसमें भला क्या दो राय हो सकती है कि देश की सत्ता पर सबसे लंबे समय तक काबिज रहे इस परिवार के पास ऐसा बहुत कुछ होगा, जिसे वह हमेशा छुपाये रखना चाहेगा.

किताब में इंदिरा, राजीव, सोनिया और राहुल को लेकर और भी बहुत सारी बातें हैं. लेकिन इनमें कुछ भी विस्फोटक नहीं है. सोनिया के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए वह कांग्रेस अध्यक्ष की ढेर सारी खूबियों को गिनाते हैं, पर एक जगह यह बताना भी नहीं भूलते कि किस तरह उनके अंदर कुछ न कुछ ‘अन-इंडियन’ है. बुजुर्गो के प्रति सम्मान करना नहीं जानतीं. अपने लोगों पर भी वह भरोसा नहीं करतीं. यूपीए सरकार में कमोबेश सभी प्रमुख मंत्रलयों में वह कोई न कोई अपना एक एजेंट जरूर रखती थीं.

संभव है, इराक तेल घोटाले पर वोल्कर कमेटी रिपोर्ट में नामोल्लेख के चलते अगर नटवर की विदाई सरकार और कांग्रेस से नहीं हुई होती, तो उनकी आत्मकथा आती भी तो कुछ अलग ढंग की होती. पर इस एक पहलू के चलते उनकी आत्मकथा को पूर्वाग्रहों का दस्तावेज नहीं कहा जा सकता, जैसा कि कांग्रेसी कह रहे हैं.

नटवर की किताब में नेहरू के जमाने से राहुल के वक्त तक के बहुत सारे अन्य पहलुओं की भी चर्चा है. इसमें एक महत्वपूर्ण पहलू है-भारतीय राजनीति और राजसत्ता पर अमेरिकी-प्रभाव का. पर इसे लेकर न तो कोई कांग्रेसी चर्चा कर रहा है, न तो भाजपाई ही. मीडिया में भी इसका उल्लेख नहीं हो रहा है. किताब में कई जगहों पर भारतीय राजनीति में बढ़ते अमेरिकी-दबदबे की बातें कही गयी हैं.

स्वयं अपने बारे में उन्होंने लिखा है कि किस तरह अमेरिकी नहीं चाहते थे कि 2004 में वह यूपीए सरकार के विदेश मंत्री बनें. किताब छपने के बाद भी नटवर ने अपने कई साक्षात्कारों में यह बात पुरजोर ढंग से उठायी है कि कैसे स्वयं प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने उन्हें बताया कि अमेरिकी नहीं चाहते थे कि आप विदेश मंत्री बनें. नटवर ने पंडित नेहरू के अपने दफ्तर में एक ‘सीआइए एजेंट’ होने की बात कही है. उनके मुताबिक नेहरू सरकार का ऐसा कोई पेपर नहीं होता था, जो अमेरिकियों के हाथ नहीं लगता था. 83 वर्षीय नटवर जीवित हैं और पूरी तरह सक्रिय हैं. इसलिए उनके आत्मकथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती.

महत्वपूर्ण लोगों के आत्मकथ्य समाजों-देशों के इतिहास में कई बार बड़े तथ्य पेश करते हैं, जो इतिहासकारों के लिए जरूरी स्नेत साबित होते हैं. पर अपने देश में न तो इतिहास-लेखन की पुरानी परंपरा रही है और न तो आत्मकथा-लेखन की. कल्हण की राजतरंगिणी जैसे कुछेक अपवादों को छोड़ दें, तो हमारे इतिहास और समाज पर विदेशी पर्यटकों या सम्राटों के दरबारियों ने ही ले-देकर थोड़ी बहुत रोशनी डाली.

फिर अंगरेजों ने अपने नजरिये से इतिहास-लेखन किया-कराया. स्वाधीनता आंदोलन के दौरान पहली बार हमारे यहां इतिहास-लेखन की सुचिंतित कोशिश शुरू हुई, जो दीनानाथ बत्र सरीखे ‘देशभक्त-स्वयंसेवकों’ के विघ्न के बावजूद लगातार आगे बढ़ रही है. हमारे यहां बड़े राजनेताओं या सार्वजनिक जीवन में सक्रिय व्यक्तियों के बीच आत्मकथात्मक लेखन की भी कोई सुदीर्घ परंपरा नहीं रही. गांधी-नेहरू के बाद के नेताओं में बहुत कम ने ही अपने जीवन पर सुचिंतित लेखन किया.

शायद, इसलिए कि हमारे समाज में शुरू से ही अपने जीवन के निजी पहलुओं को छुपाने का चलन रहा है. समाज को इसका खामियाजा भी झेलना पड़ा है. इसलिए यही कहूंगा-आत्मकथा जिंदाबाद, क्योंकि वह इतिहास को समझने और लिखने की सामग्री मुहैया कराती है.

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