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कैसे रुके दुष्कर्म

बलात्कार जैसी जघन्य घटनाओं पर होनेवाली चर्चा अक्सर कुछ बिंदुओं के इर्द-गिर्द घूमती है. कोई अपराधियों को चौराहे पर फांसी देने या पीटकर मार देने की मांग करता है, तो कोई महिलाओं पर कमोबेश पाबंदी की सलाह देता है. कुछ लोग नशे, फोन, कपड़े आदि पर भी दोष मढ़ते हैं. ऐसी बातें सांसदों, विधायकों, नेताओं […]

बलात्कार जैसी जघन्य घटनाओं पर होनेवाली चर्चा अक्सर कुछ बिंदुओं के इर्द-गिर्द घूमती है. कोई अपराधियों को चौराहे पर फांसी देने या पीटकर मार देने की मांग करता है, तो कोई महिलाओं पर कमोबेश पाबंदी की सलाह देता है. कुछ लोग नशे, फोन, कपड़े आदि पर भी दोष मढ़ते हैं.
ऐसी बातें सांसदों, विधायकों, नेताओं व पुलिसकर्मियों के मुंह से भी सुनायी देती हैं और समाज में भी कही जाती हैं. ऐसा हर बार होता है, जब किसी नृशंस अपराध पर देश क्रोधित हो उठता है.
लगातार होती घटनाओं को देखते हुए बलात्कार के विरुद्ध व्याप्त रोष एवं क्षोभ स्वाभाविक है, लेकिन जन-प्रतिनिधियों, प्रशासनिक अधिकारियों और नागरिकों को ठहरकर इस आपराधिक समस्या पर विचार करने की आवश्यकता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, 2017 में 32.5 हजार से अधिक बलात्कार के मामले दर्ज हुए थे.
ऐसे 93.1 प्रतिशत मामलों में आरोपित पहले से पीड़िता से परिचित थे. इनमें परिवार के लोग, रिश्तेदार, संगी और सहकर्मी शामिल हैं. वर्ष 2017 में बलात्कार के लंबित मामलों के निबटारे की दर 32 प्रतिशत से कुछ अधिक रही थी. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-16) का कहना है कि यौन हिंसा की 99.1 प्रतिशत घटनाओं की शिकायत पुलिस में होती ही नहीं है. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि आरोपितों को तुरंत भीड़ द्वारा सजा देने से समस्या का समाधान संभव नहीं है.
पहले तो यह सुनिश्चित करना होगा कि यौन हिंसा के सभी मामले कानून के संज्ञान में आएं. महिलाओं के प्रति नकारात्मक और आपराधिक सोच में बदलाव एक सामाजिक प्रक्रिया बने. न तो महिलाओं की आवाजाही पर अंकुश लगाकर या उनके भीतर अपराध भावना भर देने से समाधान हो सकता है और न ही भीड़ के न्याय से हो सकता है. किसी शिकायत पर पुलिस कैसे कार्रवाई करे, इसके भी नियम बने हुए हैं. लेकिन कई मामलों में देखा गया है कि पुलिस बेहद लचर ढंग से काम करती है. बहुत सारे आरोपित तो सिर्फ इस लापरवाही के कारण बच निकलते हैं.
इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय है कि देश में पुलिसकर्मियों के लाखों पद खाली हैं, जिसके कारण निगरानी व जांच में बाधा पहुंचती है. समुचित प्रशिक्षण और संवेदनशीलता के अभाव में पुलिसकर्मियों का रवैया कई बार बेहद आपत्तिजनक भी होता है. ऐसा ही हाल अदालतों का है, जो जजों और कमरों की कमी की वजह से लंबित मुकदमों के बोझ तले दबी हुई हैं. विभिन्न स्तरों पर सवा लाख से अधिक बलात्कार के मामले सुनवाई पूरी होने का इंतजार कर रहे हैं, जबकि इस अपराध में तुरंत सुनवाई करने का नियम है.
जन-प्रतिनिधियों का काम कानून बनाना और उसे लागू करने की व्यवस्था करना है. बदले की हिंसा के लिए उकसाना असल में जवाबदेही से भागने की कोशिश है. जरूरी यह है कि लोगों की मानसिकता बदले और जांच व न्याय प्रक्रिया की खामियों को तुरंत ठीक किया जाये.

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