अमेरिका की अफगान नीति

प्रो सतीश कुमार अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार singhsatis@gmail.com अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पिछले सप्ताह अचानक अफगानिस्तान पहुंच गये. बीते सितंबर में करीब 19 राउंड वार्ता के बाद तालिबान के साथ संभावित शांति वार्ता खटाई में पड़ गयी थी, जब एक ट्वीट द्वारा ट्रंप ने इस बात की घोषणा की थी. फिर अफगानिस्तान जाने की वजह […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 12, 2019 6:43 AM
प्रो सतीश कुमार
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
singhsatis@gmail.com
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पिछले सप्ताह अचानक अफगानिस्तान पहुंच गये. बीते सितंबर में करीब 19 राउंड वार्ता के बाद तालिबान के साथ संभावित शांति वार्ता खटाई में पड़ गयी थी, जब एक ट्वीट द्वारा ट्रंप ने इस बात की घोषणा की थी. फिर अफगानिस्तान जाने की वजह क्या थी? अमेरिका में चुनाव नजदीक है और ट्रंप की विदेश नीति पर सवालिया निशान लग चुका है. उत्तर कोरिया और ईरान का मसला अमेरिका के लिए किरकिरी बन चुका है.
अमेरिका ने भारत पर भी दबाव बनाकर ईरान के साथ एक मजबूत कड़ी को कमजोर करने की कोशिश की है. भारत की सुरक्षा अफगानिस्तान से जुड़ी हुई है. अमेरिका और भारत मिलकर अफगानिस्तान में काम कर रहे थे, लेकिन अचानक तालिबान के साथ अमेरिकी वार्ता भारत के लिए चिंता का विषय बन गया. जब वार्ता टूट गयी, तो पुनः उसको जोड़ने का कोई अर्थ नहीं था. यानी, हो सकता है कि अमेरिका तालिबान की हर शर्त मानने के लिए बाध्य है. यह स्थिति पूरी तरह से भारत विरोधी है, जिसका अंजाम खतरनाक होगा.
जब वार्ता विफल हुई थी, तो तालिबान ने धमकी दी थी कि इसका खामियाजा सबसे ज्यादा अमेरिका को भुगतना होगा. फिर तीन महीने तक अमेरिका ने कोई प्रयास नहीं किया. इस बीच रूस ने वार्ता की भूमिका को आगे बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी. इस बीच आईएस सरगना की हत्या की पुष्टि की गयी. ट्रंप को फिर से हारी हुई बाजी को जीतने की लालसा पैदा हो गयी.
साल 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप ने अफगानिस्तान समस्या का हल खोजने और अमेरिकी सेना की वापसी की बात कही थी. लेकिन चार साल बीतने के बाद भी स्थिति बदलती हुई नहीं दिखी. ट्रंप की विदेश नीति ढाक के तीन पात की तरह बिखरी हुई दिख रही है. उत्तर कोरिया के आण्विक हथियारों को समेटने और शांति को बहाल करने में अमेरिका फेल हो रहा है. ईरान के संदर्भ में भी अमेरिकी नीति विवाद के केंद्र में है. इस बात को समझने में किसी को कोई गुरेज नहीं है कि ट्रंप की औचक और संदेहास्पद अफगानिस्तान यात्रा अफगानिस्तान समस्या के हल के लिए नहीं, बल्कि अपनी चुनावी रणनीति को मजबूत करने के लिए थी.
साल 2001 से लेकर अभी तक अफगानिस्तान में हजारों जानें जा चुकी हैं. करीब 24 हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिक मारे जा चुके हैं, 32 हजार के करीब अफगानी सैनिक हताहत हुए हैं. आम जनता हर दिन हमलों का शिकार बनती है.
साल 2001 के बाद तालिबान आज बहुत मजबूत स्थिति में है. आधे से अधिक हिस्सा उसके कब्जे में है. वार्ता में अफगानिस्तान की सरकार शामिल नहीं है. तालिबान की रणनीति पाकिस्तान के इशारे पर बनती है. पाकिस्तान चीन के निर्देशन में काम करता है. चीन की सोच अफगानिस्तान में अमेरिका से अलग है. पाकिस्तान और चीन दोनों पूरी तरह से अमेरिकी सेना की वापसी की बात करते हैं. अमेरिकी रक्षा विशेषज्ञ इस बात की दलील देते हैं कि अगर अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से हट गयी, तो अल-कायदा और आईएस एक हो जायेंगे. इसका नुकसान पूरी दुनिया को होगा, लेकिन इसका सबसे बड़ा भुक्तभोगी भारत होगा.
भारतीय विदेश नीति के प्रवक्ता ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि भारत इस वार्ता को हर नजरिये से देख रहा है. भारत चाहता है कि अफगानिस्तान का सुनयोजित विकास हो. लेकिन अमेरिकी नीति रोलर कॉस्टर की तरह घूम रही है. जब रूस ने अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुलाया था, तब पाकिस्तान की जमीन पर आतंकियों का प्रसार शुरू हुआ था, जिसका खामियाजा भारत को भी झेलना पड़ा था.
अगर अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना वापस जाती है, और ब्यूह रचना की जिम्मेदारी पाकिस्तान के हाथों में होगी. इससे फिर वहां 1989 जैसे हालात हो जायेंगे. हमारे समीकरण कमजोर होंगे. इसका असर कश्मीर की वादियों तक होगा. मध्य-पूर्व के देशों में भारत की पहुंच और ढीली पड़ जायेगी. अब तो आईएस के आतंकी भी अफगानिस्तान में जगह बना चुके हैं, तालिबान से उनका घनिष्ठ रिश्ता है. इसलिए कमान पाकिस्तान को सौंपा जाना भारत और दक्षिण एशिया के लिए बेहद खतरनाक होगा. अमेरिका को इस बात की चिंता होनी चाहिए.
अमेरिका ने तो भारत को आशा भी दिखायी थी कि वह अफगानिस्तान में ऐसा कुछ भी नहीं होने देगा, जिससे भारत को कष्ट हो. रूस द्वारा तो यह आश्वासन भी नहीं दिया गया है. राष्ट्रपति अशरफ गनी के बिना अफगानिस्तान की राजनीतिक व्यवस्था को बनाना भारत के लिए हर तरीके से चिंता का विषय बना हुआ है. चिंता यह भी है कि मध्य एशिया के पांच देशों में से तीन देशों कि सीमाएं अफगानिस्तान से मिलती हैं, इन तीन देशों में आतंकी उफान अफगानी सीमाओं से निकलता है, जिसका उद्गम पाकिस्तान है. इसलिए समस्या गंभीर है.
चीन और पाकिस्तान की सोच भारत के सामरिक समीकरण को कमजोर करने की है. प्रधानमंत्री मोदी को इस चुनौती के लिए तैयार रहना होगा, हिंद महासागर में चीन ने अपनी गति बढ़ा दी है. यह सब एक सुनियोजित नीति के तहत चीन और पाकिस्तान की तरफ से हो रहा है, क्योंकि कश्मीर में परिवर्तन के बाद भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि बहुत मजबूत हो चुकी है. चीन को यह चुभ रहा है. अमेरिका अगर भारत के हितों का ध्यान नहीं रखता, तो इसका असर उनके रिश्ते पर पड़ेगा.
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