जलवायु परिवर्तन पर फिर निराशा
हिमांशु ठक्कर पर्यावरणविद् ht.sandrp@gmail.com स्पेन की राजधानी मैड्रिड में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (सीओपी25) बीते रविवार 15 दिसंबर को संपन्न हो गया. सीओपी का पहला सम्मेलन जर्मनी में मार्च 1995 में हुआ था. इस सम्मेलन की अध्यक्षता पांच प्रमुख क्षेत्र बारी-बारी से करते हैं. ये क्षेत्र हैं- एशियाई क्षेत्र, मध्य, पूर्वी व पश्चिमी […]
हिमांशु ठक्कर
पर्यावरणविद्
ht.sandrp@gmail.com
स्पेन की राजधानी मैड्रिड में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (सीओपी25) बीते रविवार 15 दिसंबर को संपन्न हो गया. सीओपी का पहला सम्मेलन जर्मनी में मार्च 1995 में हुआ था. इस सम्मेलन की अध्यक्षता पांच प्रमुख क्षेत्र बारी-बारी से करते हैं. ये क्षेत्र हैं- एशियाई क्षेत्र, मध्य, पूर्वी व पश्चिमी यूरोप क्षेत्र, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका क्षेत्र और कैरेबियाई क्षेत्र.
इस सम्मेलन में जिन प्रमुख मुद्दों के समाधान का लक्ष्य था, उनमें कार्बन बाजार का विनियमन प्रमुख था, लेकिन इसे लेकर कोई नया समझौता नहीं हुआ. यह कहा जा सकता है कि अब तक जितने भी सम्मेलन हुए हैं, उनमें सबसे ज्यादा निराशाजनक यह सम्मेलन रहा. निश्चित रूप से जलवायु परिवर्तन के लिए यह चिंता का विषय है. ज्यादा चिंता का विषय इसलिए भी, क्योंकि मौजूदा दौर जलवायु परिवर्तन की तमाम कड़वी सच्चाइयों का गवाह है.
आज इसके भयानक खतरे हमारे सामने आ रहे हैं, लेकिन फिर भी कार्बन उत्सर्जन कम करने को लेकर इस सम्मेलन में कोई लक्ष्य नहीं रखा गया. साल 2015 में हुए पेरिस समझौते में तय हुए अनुच्छेद-6 के कार्यान्वयन पर एक समझौता होना था, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. और अब इस समस्या को अगले शिखर सम्मेलन के लिए छोड़ दिया गया है. अगला सम्मेलन 2020 के नवंबर में ग्लासगो में आयोजित होगा.
जलवायु परिवर्तन का संकट जितना स्पष्ट आज है, उतना कभी नहीं रहा. इतनी स्पष्टता होने के बावजूद इतना निराशाजनक परिणाम इस सम्मेलन का रहना निश्चित रूप से हमें सोचने पर मजबूर करता है कि वैज्ञानिकों की चेतावनी को इस तरह अनदेखी करना क्या घातक नहीं है?
पेरिस समझौते में यह तय हुआ था कि दुनिया के देश मिल कर यह कोशिश करेंगे कि ग्लोबल वार्मिंग के मद्देनजर डेढ़-दो डिग्री से ज्यादा तापमान न बढ़ने पाये. हालांकि, तब इसके लिए दुनियाभर के देशों में कोई ठोस योजना बनती नहीं दिखी, और इसलिए आज पेरिस समझौता खतरे में है. जलवायु परिवर्तन के खतरनाक प्रभावों- मसलन अत्यधिक वर्षा, समुद्र जल स्तर में वृद्धि और उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के प्रति कई देशों में संवेदनशीलता की कमी है. जब तक संकट को लेकर बड़े और जिम्मेदार देशों में संवेदनशीलता नहीं आयेगी, तब तक जलवायु परिवर्तन के प्रभावाें को थामने के सारे प्रयास विफल ही होंगे, जैसा कि इस सम्मेलन की असफलता ने यह साबित किया है.
इस सम्मेलन से मुख्य बात सामने आयी है कि कार्बन ट्रेडिंग को फिर से शुरू करने की कोशिश हो रही है. अर्थात कार्बन ट्रेडिंग का सीधा अर्थ है कार्बन डाइऑक्साइड का व्यापार.
क्योटो संधि में कार्बन डाइआॅक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए जो उपाय सुझाया गया है, उसे कार्बन ट्रेडिंग कहते हैं. लेकिन, हमें यह समझना चाहिए कि कार्बन ट्रेडिंग एक छलावा मात्र है और इससे उत्सर्जन में कोई कमी नहीं आती है. हां, एक भ्रम जरूर पैदा होता है कि हम कुछ कर रहे हैं.
पेरिस समझौते के बाद कहां तो कार्बन उत्सर्जन कम करने की जरूरत थी, लेकिन वह आज चार प्रतिशत और बढ़ गया है. वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर ग्लोबल वार्मिंग को कम करना है, तो आज से और अभी से विश्वभर में सात प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य को हासिल करना होगा.
गौरतलब है कि जब पिछले साल के सम्मेलन में सऊदी अरब, कुवैत, अमेरिका और रूस जैसे देशों ने आइपीसीसी 1.5सी रिपोर्ट को मानने से इनकार कर दिया था और उज्सर्जन में कमी करने के लिए भी तैयार नहीं हैं. ऐसे में, यह कैसे संभव है कि ऐसे सम्मेलनों से वैश्विक तापमान में कमी लाने की किसी पहल को बल मिलेगा, जबकि हर साल सात प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन कम होना ही चाहिए, अगर दुनिया को उबलने से बचाना है तो.
इस साल हुए सम्मेलन में इस बात की अनदेखी हुई और इसलिए इससे भविष्य के लिए कोई आशा भी नहीं दिखती है. अब जब अगले साल ग्लासगो में अगला सम्मेलन होगा, तब तक क्या परिस्थिति होगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है.
हालांकि, इस सम्मेलन का सबसे उजला पक्ष यही रहा कि यूरोपीय यूनियन ने एक अच्छी योजना बनायी है, जिसमें यूरोपीय देशों ने माना है कि साल 2050 तक वे कार्बन उत्सर्जन जीरो कर देंगे. यह एक बड़ा संकल्प है और ऐसा संकल्प हर देश को लेना चाहिए. ऐसे में, सवाल यह है कि यूरोपीय देश तो कुछ पहल कर भी रहे हैं, फिर बाकी दुनिया कोई ऐसी पहल क्यों नहीं कर रही है?
प्रति व्यक्ति के हिसाब से देखें या फिर ऐतिहासिक दृष्टि से देखें, जिन देशों ने कार्बन उत्सर्जन में ज्यादा भागीदारी की है, उनमें अमेरिका और यूरोप शीर्ष पर हैं. ये दोनों ही जलवायु परिवर्तन के लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं. लेकिन, ये दोनों अपनी जिम्मेदारी मान नहीं रहे हैं और उल्टे चीन और भारत को जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार मान रहे हैं.
हालांकि, अमेरिका के कुछ राज्य ऐसे हैं, जो कार्बन उत्सर्जन के खिलाफ काम कर रहे हैं और अमेरिकी नागरिक भी अपनी सरकार पर दबाव बना रहे हैं कि सरकार उत्सर्जन को कम करने की योजना बनाये.
लेकिन, मसला यह है कि जब ट्रंप खुद ही इस बात को बेकार मानते हैं, तो फिर अमेरिकी सरकार से क्या ही उम्मीद की जा सकती है. अमेरिकी नागरिकों की तरह ही, दुनिया के सभी देशों के नागरिक भी अगर अपनी सरकार पर दबाव बनाएं, तो मुमकिन है कि ये सरकारें कोई सार्थक पहल करें. आज नहीं तो कल यह करना ही होगा, क्योंकि नागरिकों के पास और कोई उपाय नहीं है.
जलवायु परिवर्तन के खतरनाक प्रभावों की जद में सबसे ज्यादा गरीब आते हैं. चाहे वे गरीब लोग हों, या फिर गरीब देश. करीब पूरा अफ्रीका इसकी मार को झेल रहा है और आगे उसे और भी बड़े संकटों का सामना करना होगा.
भारत के 80 प्रतिशत लोगों पर भी जलवायु परिवर्तन का असर तय है. विडंबना यह है कि इन लोगों की आवाज सुनी ही नहीं जा रही है, क्योंकि हमारी सरकारों की नजर में पर्यावरण, पानी और जलवायु परिवर्तन कोई मुद्दा ही नहीं है. यह दुनिया को नष्ट करनेवाली सोच है.
भारत इस संकट से लड़ने में सक्षम नहीं है, क्योंकि इसके पास संसाधन सीमित हैं. जिन देशों के पास संसाधनों की अधिकता है, वे इस संकट से लड़ने में सक्षम तो हैं, लेकिन यही विडंबना है कि संसाधनों से संपन्न ये देश ही कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)