संप्रभुता बनाम मानवाधिकार
पुष्पेश पंत अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार pushpeshpant@gmail.com कभी तानाशाही के विरुद्ध बेमिसाल शांतिपूर्ण संघर्ष के लिए विख्यात म्यांमार की नेता आंग सान सूची लगभग एक साल से अपने देश में अल्पसंख्यक रोहिंगियाओं के वंशनाशक प्रताणन तथा उनके मानवाधिकारों के हनन के आरोपों से घिरी रही हैं. कभी उनके समर्थक रहे पश्चिमी यूरोप के देशों की […]
पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
pushpeshpant@gmail.com
कभी तानाशाही के विरुद्ध बेमिसाल शांतिपूर्ण संघर्ष के लिए विख्यात म्यांमार की नेता आंग सान सूची लगभग एक साल से अपने देश में अल्पसंख्यक रोहिंगियाओं के वंशनाशक प्रताणन तथा उनके मानवाधिकारों के हनन के आरोपों से घिरी रही हैं.
कभी उनके समर्थक रहे पश्चिमी यूरोप के देशों की जनतांत्रिक सरकारों ने इन आरोपों को गंभीरता से लिया है और यह मांग की है कि उनकी सरकार पर मानवाधिकारों के हनन के आरोप में अंतरराष्ट्रीय अदालत में मुकदमा चलाया जाये और जब तक हालात में सुधार नहीं होता, तब तक म्यांमार को विश्व समुदाय से बहिष्कृत रखा जाये. कुछ आलोचकों ने तो यह भी सुझाया है कि सू ची से नोबल शांति पुरस्कार वापस ले लिया जाये.
फिलहाल हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय अदालत गाम्बिया की शिकायत पर इस मामले पर विचार कर रहा है कि क्या म्यांमार पर मुकदम चलाया जा सकता है? विवादों से अविचलित सू ची खुद अपनी सरकार का बचाव करने हेग पहुंचीं और उन्होंने जोरदार शब्दों में उन अमीर और ताकतवर देशों पर जवाबी हमला कर यह सवाल उठाया कि कैसे वह खुद को दूसरे किसी संप्रभु देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप का अधिकारी समझ सकते हैं?
संप्रभुता बनाम मानवाधिकारों की यह बहस म्यांमार तक सीमित नहीं. पाकिस्तान, श्रीलंका, भारत सभी जगह यह समस्या एक विकट राजनयिक चुनौती के रूप में प्रकट हो चुकी है. मध्यपूर्व के कई देशों में सत्ता परिवर्तन के नाम पर अमेरिकी हस्तक्षेप को जायज ठहराने की दलीलें भी इसी ‘तर्क’ पर आधारित हैं कि मानवाधिकार सार्वभौमिक और अविभाज्य हैं तथा अपने नागरिकों की रक्षा हर संप्रभु राज्य का प्राथमिक कर्तव्य है.
यदि कोई भी सरकार इस जिम्मेदारी के निर्वाह में असमर्थ हो, तो उसे सामूहिक अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए. समस्या यह है कि सुरक्षा परिषद में वीटो की व्यवस्था के कारण कोई फैसला लेना कठिन (लगभग असंभव) हो चुका है और संयुक्त राष्ट्र के नाम पर कोई भी ताकतवर देश अपने स्वार्थ साधन के लिए निरंकुश कार्रवाई कर सकता है. ईराक, सीरिया, अफगानिस्तान, लीबिया में यही देखने को मिला है.
विडंबना यह है कि अमेरिका और यूरोपीय समुदाय के दोहरे मानदंडों का पर्दाफाश बारंबार होता रहा है. कई वर्ष पहले सिंगापुर के एक राजनयिक ने यह सवाल उठाया था कि एशिया में मानवाधिकारों की वह अवधारणा सर्वसम्मत नहीं, जिसकी दुहाई पश्चिमी देश देते रहते हैं.
चीन तथा इस्लामी देशों का भी यह मानना है कि अंतरराष्ट्रीय विधि तथा मानवाधिकारों की परिभाषा के विकास में उनकी कोई हिस्सेदारी नहीं रही है. औपनिवेशिक शासन काल से ही साम्राज्यवादी ताकतें नस्लवादी रंगभेदी आचरण करने के अतिरिक्त अपने उपनिवेशों के प्राकृतिक संसाधनों का निर्मम दोहन कर स्थानीय जनता/प्रजा के अधिकारों का हनन करती रही हैं.
शीत युद्ध के दौर में वियतनाम में जिस अमानवीय क्रूरता का प्रदर्शन अमेरिका ने किया, उसके लिए उस पर युद्ध अपराधों का मुकदमा चलाने की मांग बर्ट्रैंड रसेल जैसे शांति प्रेमियों ने की थी. आयरलैंड में ब्रिटेन, अल्जीरिया में फ्रांस, कौंगो में बेल्जियम का आचरण भुलाया जा चुका है, पर तिब्बत में चीन और इस्राइल-फिलिस्तीन के उदाहरण ताजा हैं.
इस सब का यह अर्थ नहीं कि सू ची बेदाग हैं या उनके देश कि सरकार को इस मामले में निर्दोष समझा जा सकता है. लगभग दस हजार रोहिंगिया पिछले एक साल में मारे गये हैं, हजारों महिलाएं सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई हैं, लगभग सात लाख बेघर हुए हैं और दस लाख से अधिक बांग्लादेश में शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं.
वहां से भारत पहुंचनेवाले शरणार्थियों की समस्या ने ही नागरिकता कानून में संशोधन के सवाल को विस्फोटक बनाया है. पर इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि अराकान के दुर्गम जंगली राखीन प्रदेश में कई पीढ़ियों से नागरिकता के अधिकार से वंचित, उत्पीड़ित रोहिंगिया अल्पसंख्यकों के अचानक उग्र हमलावार तेवरों ने इस समस्या को धारदार बनाया है.
एक बार फिर जोर देकर यह बात साफ करने की जरूरत है कि हमारा मकसद सूची के बचाव पक्ष के वकील की भूमिका निभाने का कतई नहीं. परंतु यदि यह मुद्दा इस वक्त लाइलाज नासूर दिख रहा है, तो इसका सबसे बड़ा कारण हमलावर वहाबी कट्टरपंथी का निर्यात है. बांग्लादेश से लेकर फिलिपींस तक, दक्षिणी थाईलैंड से लेकर मलेशिया-इंडोनेशिया तक यह सांप्रदायिक जहर फैल चुका है. इस सवाल से मुंह चुराया नहीं जा सकता कि किसने रोहिंगियाओं को हथियार बंद किया.
रोहिंगियाओं की समस्या बुनियादी अधिकारों से वंचित रखे जाने तक सीमित नहीं. सरदर्द बन रहे किसी अल्पसंख्यक समुदाय के कांटे को जड़ से निकालने के लिए वंशनाशक अभियान की रणनीति के बारे में सोचने को विवश करती है.
क्या चीन दशकों से तिब्बत में यही नहीं करता आ रहा है? क्या अमेरिका हिस्पानी मूल के शरणार्थियों और अपने अश्वेत नागरिकों के नस्लवादी उत्पीड़न में भागीदार नहीं रहा है? ब्रिटेन जब श्रीलंका में तमिलों के मानवाधिकारों का रक्षक बनने की चेष्टा करता है, तो वह कैसे भूल जाता है कि उत्तरी आयरलैंड में उसका आचरण कितना बर्बर और रक्तरंजित रहा है?
जब से भारत ने जम्मू-कश्मीर का प्रशासनिक पुनर्गठन किया है, उस पर भी यह लांछन लगाया जाने लगा है कि कश्मीर घाटी में अलगाववादी आतंकवाद इसी कारण पैदा हुआ और पनपा है कि भारत ने कश्मीरियों को उनके आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित रखा है और बरसों से उनके मानवाधिकरों का हनन करता रहा है.
कश्मीर में यह साजिश शीतयुद्ध के युग से ही अमेरिका द्वारा रची जाती रही है. अपने संधि मित्र पाकिस्तान के तुष्टीकरण के लिए उसके नाजायज कब्जे वाले ‘आजाद’ कश्मीर का दुरुपयोग सरहद पार से घुसपैठिए हमलावरों के जरिये किया जाता रहा है. अफगानिस्तान में तालिबानों की फसल उगा पाकिस्तान को पंगु असफल राज्य बनाने का एक मकसद भारत की घेराबंदी भी रहा है.
इस सब के मद्देनजर हेग में सू ची तथा म्यांमार को कटघरे में खड़ा किया जाना हमारे लिए पड़ोस में सुलगते ज्वालामुखी से सतर्क रहने की चेतावनी है. रोहिंगिया हों या श्रीलंकाई मूल के तमिल शरणार्थी, इनका लावा हमारी संघीय प्रणाली, चुनावी जनतंत्र और समावेशी संस्कार के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन सकता है.