चुनाव परिणाम का संदेश बड़ा है
नीरजा चौधरी राजनीतिक विश्लेषक delhi@prabhatkhabar.in झारखंड में अब झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के नेतृत्व में सरकार बनने का रास्ता साफ हो गया है. इस चुनाव परिणाम का संदेश बड़ा है और इसका असर भी दूरगामी है. इस परिणाम ने यह साफ कर दिया है कि लोग अब आर्थिक बदहाली से परेशान हैं. न सिर्फ झारखंड […]
नीरजा चौधरी
राजनीतिक विश्लेषक
delhi@prabhatkhabar.in
झारखंड में अब झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के नेतृत्व में सरकार बनने का रास्ता साफ हो गया है. इस चुनाव परिणाम का संदेश बड़ा है और इसका असर भी दूरगामी है.
इस परिणाम ने यह साफ कर दिया है कि लोग अब आर्थिक बदहाली से परेशान हैं. न सिर्फ झारखंड के लोग, बल्कि देशभर में यह स्थिति है. ग्रामीण इलाकों में नून-रोटी का सवाल हमेशा से एक बड़ा सवाल रहा है, जो चुनाव के समय दिखता है. और झारखंड में तो जल-जंगल-जमीन का मसला हमेशा चुनावी मुद्दा रहा है. यही वजह है कि आदिवासी क्षेत्रों का जबर्दस्त रुझान जेएमम की तरफ रहा और उसकी सीटें बढ़ती चली गयीं.
भाजपा को इस साल लोकसभा चुनाव में 303 सीटें मिली थीं. फिर भी वह राज्यों में जनाधार खो रही है, तो निश्चित रूप से राज्य के चुनावों में भाजपा अपने राष्ट्रीय फलक से बाहर नहीं आ पा रही है. राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में सरकार गंवाने का अर्थ है कि भाजपा अपनी स्थानीय पहुंच को भुना नहीं पा रही है. झारखंड परिणाम के मद्देनजर, जेएमम हो या कांग्रेस, दोनों का जनाधार कितना बढ़ा है, यह महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह समझना जरूरी है कि इन्होंने भाजपा के जनाधार को कितना कमजोर किया है?
महाराष्ट्र में शिवसेना को 124 सीटें देकर भाजपा वहां चुनाव लड़ी, लेकिन बाद में उसने शिवसेना की बात नहीं मानी. भाजपा का वहां स्ट्राइक रेट 70 प्रतिशत था, ऐसे में अगर भाजपा अपने दम पर महाराष्ट्र में चुनाव लड़ती, तो आज वहां उसकी सरकार होती थी. भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आज यही बात सोच रहा है.
झारखंड में भी भाजपा ने इसी रणनीति को अपनाया और बिना क्षेत्रीय जनाधार को समझे अकेले मैदान में उतरी. उसे यह भी यकीन था कि झारखंड में उसकी सरकार है, तो वह जीत ही जायेगी. भाजपा भूल गयी कि विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीयता को साधे बिना बड़ी जीत हासिल करना संभव नहीं होता.
चुनाव परिणाम के विश्लेषण में सिर्फ सीटों के गणितीय समीकरण पर बात करना ही काफी नहीं है, रासायनिक समीकरण पर भी बात करना जरूरी है. क्षेत्रीय और जमीनी स्तर पर जब रासायनिक समीकरण अच्छा होगा, तभी सीटों का गणितीय समीकरण अच्छा बनता है.
कहने का अर्थ यह है कि प्रधानमंत्री मोदी की वहां हुईं रैलियाें में स्थानीय मुद्दों पर कम बात हुई और सारी बातें कश्मीर से 370 हटाने, राममंदिर बनाने और तीन तलाक आदि पर हुईं. कोई भी आसानी से समझ सकता है कि झारखंड में ऐसे मुद्दों की जरूरत क्या है, जब देशभर में रोजगार कम हो रहे हैं, नौकरियां जा रही हैं और वहां आदिवासियों में उनके जल-जंगल-जमीन छीने जाने का डर बढ़ा है. जाहिर है, आदिवासी तो उसी को सरकार में देखना चाहेंगे, जो उनके हक की बात करेगा.
एक जमाने में इंदिरा गांधी के समय में दक्षिण भारत के राज्यों से कांग्रेस जब हारने लगी, तब कांग्रेस समझ गयी कि क्षेत्रीय पार्टी के साथ पावर शेयर किये बिना वहां अपनी पकड़ मजबूत करना मुश्किल है.
आज यही बात भाजपा को समझनी होगी, बाकी के राज्यों में अगर अच्छा प्रदर्शन करना है तो. जाहिर है, अगर क्षेत्रीय पार्टी किसी राज्य में मजबूत है, तो उसको राष्ट्रीय पार्टी भी अंगूठा नहीं दिखा सकती. ऐसा करेगी, तो परिणाम महाराष्ट्र जैसा भी हो सकता है और अभी-अभी झारखंड जैसा भी. क्षेत्रीय पार्टी के अपने अस्तित्व का भी सवाल सामने आता है.
कांग्रेस भी पहले के वर्षों में क्षेत्रीय पार्टियों को अंगूठा दिखाती रही है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि वह राज्यों से बेदखल होती चली गयी है. झारखंड के चुनाव के समय आज देश में मुख्य मुद्दा राज्यों का चुनाव नहीं है, बल्कि आर्थिक व्यवस्था के डगमगाने का है, रोजगार का है, महंगाई का है, शिक्षा का है, स्वास्थ्य का है. इन मुद्दों पर अगर राष्ट्रीय पार्टी बात नहीं करेगी, तो उसे हार का सामना करना पड़ेगा.
नरेंद्र मोदी की जो लोकप्रियता साल 2019 के लोकसभा चुनाव तक थी, उसमें बहुत कमी आयी है. एक समय के बाद मोदी जैसे नेता भी राज्य-स्तर के नेतृत्व की भरपाई नहीं कर सकते और न ही वह राज्य की सरकारों की खामियों की भरपाई कर सकते हैं. यही वजह है कि झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास के खिलाफ लोगों में जो गुस्सा था, उसकी भरपाई मोदी नहीं कर पाये.
एक और महत्वपूर्ण बात इस चुनाव परिणाम से देखी और समझी जा सकती है. जिस तरह से हरियाणा में जाट समुदाय की बहुलता है, लेकिन वहां भाजपा ने एक पंजाबी मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया.
हालांकि, बीते चुनाव में वह दोबारा सरकार बनाने में कामयाब रही, लेकिन चुनाव के दौरान खट्टर की हालत भी ठीक नहीं थी और मोदी के नाम पर उनको जीत मिल गयी. वहीं महाराष्ट्र में भाजपा ने मराठा समुदाय के प्रतिनिधि को दरकिनार कर ब्राह्मण समुदाय से आनेवाले देवेंद्र फड़णवीस को मुख्यमंत्री बनाया, जिसका संदेश भी गलत गया. यही वजह है कि इस बार के चुनाव में वहां एनसीपी ने अच्छा प्रदर्शन किया, क्योंकि शरद पवार मराठा मानुष की राजनीति को अच्छी तरह समझते हैं.
इन दोनों राज्यों में पांच साल सरकारें तो चल गयीं, क्योंकि एक उफान था मोदी मैजिक का. जाहिर है, हर मैजिक को एक दिन कमजोर होना ही होता है, क्योंकि जनता तब तक अपने लिए फायदे-नुकसान को सोचने लगती है. इसलिए भाजपा का यह प्रयोग फेल हो गया. झारखंड में भी भाजपा ने किसी आदिवासी प्रतिनिधि के हाथ में राज्य की कमान देने के बजाय ओबीसी समुदाय के रघुवर दास को मुख्यमंत्री बना दिया. आदिवासियों को लगने लगा था कि उनका प्रतिनिधित्व नहीं हो रहा है. और आज इसी का परिणाम भाजपा के खिलाफ आया है.
इस वक्त हर राज्य में भाजपा के खिलाफ जमीनी स्तर पर विपक्ष मजबूती से बढ़ रहा है, लेकिन उतना नहीं बढ़ रहा है कि भाजपा वहां से पूरी तरह साफ हो जाये. राज्य स्तर पर कांग्रेस और भाजपा के मुकाबले क्षेत्रीय पार्टियों का स्ट्राइक रेट भी बढ़ा है. महाराष्ट्र चुनाव में एनसीपी का स्ट्राइक रेट बहुत अच्छा था.
इसी तरह झारखंड में भी जेएमम का प्रदर्शन बहुत अच्छा है. यानी राज्य के स्तर पर राजनीतिक विकल्प के रूप में राष्ट्रीय पार्टियों के मुकाबले क्षेत्रीय पार्टियों की ओर देख रहे हैं. झारखंड चुनाव परिणाम का संदेश यही है कि अब आगे राज्यों- बंगाल, दिल्ली, बिहार में होनेवाले चुनावों में भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ेंगी.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)