कृष्ण प्रताप सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
kp_faizabad@yahoo.com
देश के दसवें प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर उनकी स्मृतियां ताजा की जायें, तो पहली बात यही याद आती है कि नेता के तौर पर उन्हें अपनी पार्टी से बाहर जो स्वीकार्यता हासिल थी, वह आज के समय में दुर्लभ हो चली है. अपने संसदीय कुशलता और कविताओं के लिए तो खैर वह प्रधानमंत्री बनने से बहुत पहले से जाने जाते थे.
पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा अटल के प्रधानमंत्री बनने की बहुप्रचारित भविष्यवाणी को छोड़ भी दें, तो उनकी पार्टी के कट्टर आलोचक वामपंथी दल तक उन्हें ‘राइटमैन इन रांग पार्टी’ कहते थे. अटल खुद भी इस स्वीकृति का महत्व समझते थे. इसीलिए 16 मई, 1996 को वे पहली बार केंद्र में अल्पमत सरकार के प्रधानमंत्री बने, तो उसके विश्वास प्रस्ताव पर चर्चा में कहा था, ‘किसी ने कहा कि मैं आदमी तो अच्छा हूं, पर गलत पार्टी में हूं. वे बतायें कि ऐसे अच्छे आदमी का वे क्या करने का इरादा रखते हैं?’
इससे पहले प्रख्यात लेखक खुशवंत सिंह ने भी उन्हें ‘राइटमैन इन रांग पार्टी’ बताया, तो उनका जवाब था- ‘फल अच्छा है तो पेड़ खराब नहीं हो सकता. अगर मैं अच्छा आदमी हूं, तो गलत पार्टी में कैसे हो सकता हूं? और अगर गलत पार्टी में हूं, तो अच्छा आदमी कैसे हो सकता हूं?’
छह दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद ‘राजनीतिक अछूत’-सी हो चली उनकी पार्टी इस निजी स्वीकार्यता के ही बूते राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाकर केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने और उसे पांच साल चलाने का सपना साकार कर पायी थी.
आगे चलकर अपनी तीन पारियों में वे जितने वर्षों तक प्रधानमंत्री रहे, विपक्ष ने उनकी रीति-नीति की भरपूर नीतिगत आलोचनाएं कीं, तो यह उसका अधिकार भी था और कर्तव्य भी. लेकिन विपक्ष ने कभी उन पर व्यक्तिगत हमले नहीं किये. ज्यादा से ज्यादा यह कहा कि उनकी उदार छवि का लाभ भी उनकी पार्टी के अनुदारवादी ही उठाते हैं.
विडंबना यह कि उन दिनों अटल पर जितने भी निजी हमले हुए, वे भाजपा या संघ परिवार के आनुषंगिक संगठनों ने ही किये. भारतीय मजदूर संघ के दत्तोपंत ठेंगड़ी ने तो उन्हें भारत के इतिहास का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री कहने से भी परहेज नहीं किया. तब भी विपक्ष की ओर से यही कहा गया कि यह भाजपा की चाल है, जिसके तहत वह सत्ता और विपक्ष दोनों की भूमिका हथिया लेना चाहती है.
थोड़ा पीछे जाकर देखें, तो छह अप्रैल, 1980 को भाजपा की स्थापना के वक्त मुस्लिमों के लिए उसकी सदस्यता के दरवाजे अटल के ही प्रयासों ने खोले थे, जो उसके पूर्वावतार जनसंघ में से बंद थे.
अपने प्रधानमंत्रित्व के दौर में अटल नवाबों की नगरी लखनऊ के सांसद हुआ करते थे और रोजा-अफ्तारों व ईद-मिलन समारोहों में आपादमस्तक उसकी गंगा-जमुनी तहजीब में रंगे नजर आते थे. उनके निकट ईद और होली दोनों गले मिलने के त्यौहार थे.
मार्च, 2017 में प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ उनकी इस गंगा जमुनी परंपरा को आगे बढ़ाने में ‘परेशानी’ महसूस करने लगे, तो लखनऊ के लोगों को ‘अपने अटल जी’ की बहुत याद आयी थी. तब भी, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के तौर पर रोजा-आफ्तार कराने की परंपरा तोड़ डाली.
उनकी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देनेवाले संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करके उसका राज्य का दर्जा समाप्त कर दिया, तो भी उसकी आलोचनाओं व प्रशंसाओं के बीच बार-बार याद किया गया कि प्रधानमंत्री रहते अटल ने वहां के निवासियों को जम्हूरियत, कश्मीरियत व इंसानियत का पैगाम दिया था. उनकी दृढ़ मान्यता थी, ‘सत्ता का खेल चलता रहेगा, सरकारें आयेंगी, जायेंगी, पार्टियां बनेंगी-बिगड़ेंगी, मगर यह देश रहना चाहिए, इस देश का लोकतंत्र रहना चाहिए.’
फरवरी, 1991 में जयपुर में भाजपा की राष्ट्रीय परिषद होनेवाली थी. उस वक्त चर्चा जोरों पर थी कि अटल मार्जिनलाइज कर दिये गये हैं. इस बाबत उनसे पूछा गया, तो वे अपने परिचित अंदाज में बोले, ‘कभी-कभी करेक्शन करने के लिए मार्जिन का इस्तेमाल करना पड़ता है.’ मतलब साफ है कि जब भी भाजपा सही राह से भटक जाती थी, वे हाशिये में रहकर भी उसकी गलतियां सुधारतेे रहते थे. सवाल यह है कि अब जब वे नहीं हैं और कई बार भाजपा उनकी दिखायी राह से दूर जाती हुई दिखती है, वह उसे कभी इस अपने इस नायक को उसका ‘ड्यू’ देना गवारा होगा या नहीं?
उन्हें ‘भारतरत्न’ से विभूषित करा देना, कुछ योजनाओं से उनका नाम जोड़वा देना और कहीं उनकी मूर्ति लगवा देना इस ‘ड्यू’ का विकल्प नहीं हो सकता. खासकर जब यह धारणा गहराती जा रही है कि नरेंद्र मोदी की भाजपा अब अटल और आडवाणी की भाजपा नहीं रह गयी है. इस नयी भाजपा की चाल, चेहरा और चरित्र सब बदल गये हैं.
क्या पता आज अगर अटल हमारे बीच होते, तो भाजपा नेताओं को विरोधियों से दुश्मनों जैसा सलूक करते देखकर क्या महसूस करते. वैसा ही कुछ, जिसके चलते एक बार उन्हें कहना पड़ा था, ‘कभी-कभी मैं समझ नहीं पाता कि क्या बोलूं और किसके सामने बोलूं? जिन्हें सुनाना चाहता हूं वे सुनते नहीं, जो सुनते हैं, वे समझ नहीं पाते और जो समझ पाते हैं, वे जवाब ही नहीं देते.’