अर्थव्यवस्था को बजटीय प्रोत्साहन मिले

अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन ने कहा है कि भारत में वर्तमान आर्थिक मंदी बहुत कुछ वर्ष 1991 की स्थिति के समान है, जो घोर संकट का वक्त था. वे इसे भारत की ‘महान मंदी’ का नाम देते हैं, जब अर्थव्यवस्था ‘आइसीयू’ में प्रवेश की ओर बढ़ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 25, 2019 8:02 AM
अजीत रानाडे
सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org
पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन ने कहा है कि भारत में वर्तमान आर्थिक मंदी बहुत कुछ वर्ष 1991 की स्थिति के समान है, जो घोर संकट का वक्त था. वे इसे भारत की ‘महान मंदी’ का नाम देते हैं, जब अर्थव्यवस्था ‘आइसीयू’ में प्रवेश की ओर बढ़ रही है. आरबीआइ के गवर्नर ने इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर गिर कर पांच प्रतिशत पर आ जाने पर अचरज प्रकट किया था. उसके बाद, अगली ही तिमाही में यह वृद्धि दर और भी कम होकर 4.5 प्रतिशत पर पहुंच गयी.
हालांकि, यह दर भी विकसित देशों की वृद्धि दर से काफी ऊंची है, पर इसे ऊंची बेरोजगारी दर तथा गरीबी और भूख के टिके रहने की स्थितियों के समाधान हेतु पर्याप्त नहीं माना जाता है. यही वजह है कि अगले वर्ष ऊंची वृद्धि दर तक वापस पहुंचने के लिए काफी बड़ा बजटीय प्रोत्साहन जरूरी होगा, जो वृद्धि लानेवाला होते हुए भी अपव्ययी न हो.
मंदी के शिकार बने साल में राजकोषीय घाटे का बढ़ना तथा तेज वृद्धि के वर्ष में उसका घटना सही माना जाता है. यदि हम अभी भी राजकोषीय व्ययों को विस्तार नहीं देंगे, तो इससे मंदी के मुकाबले के लिए एक प्रभावी औजार के रूप में राजकोषीय नीति के प्रयोग का प्रयोजन ही व्यर्थ हो जायेगा.
यह सही है कि राजकोषीय विस्तार वहनीय स्तर तक ही सीमित रहना चाहिए. भारत में अभी जीडीपी के विरुद्ध राष्ट्रीय ऋण का अनुपात 80 प्रतिशत के समीप है. यह 60 प्रतिशत की उस सीमा रेखा से बहुत अधिक है, जिसकी अनुशंसा विशेषज्ञ समिति ने की थी और जो राजकोषीय दायित्व कानून में विहित है. पर वह कानून भी इसकी अनुमति देता है कि किसी ऐसे असाधारण साल में जब आर्थिक वृद्धि दर अपनी क्षमता से तीन प्रतिशत तक नीचे आ जाये, तो ‘राजकोषीय दायित्व’ से विचलन भी स्वीकार्य है.
एक प्रभावी बजटीय प्रोत्साहन की रूपरेखा क्या होगी? कुछ विचारणीय बिंदु इस प्रकार हैं: पहला, इस राजकोषीय घाटे के दो हिस्से होते हैं, जो राजस्व तथा व्यय हैं. राजस्व पक्ष के अंतर्गत स्टॉक बाजार में दीर्घावधि पूंजी लाभ कर जैसे कुछ करों को तो अछूता रखना आवश्यक है. यह तथ्य कि स्टॉक बाजार सार्वकालिक ऊंचाई का स्पर्श कर रहा है, यह बताता है कि पूंजी लाभ कर ने निवेशकों के उत्साह को कम नहीं किया है.
यह एक ऐसा कर है, जिसे वर्ष 1997 में समाप्त कर दिया गया था और उसे दोबारा वापस लाने में बीस वर्ष लगे. इसे हल्का तो रखना चाहिए, पर पूरी तरह समाप्त नहीं किया जाना चाहिए. सच तो यह है कि आवासन, सोना, रियल इस्टेट जैसी सभी परिसंपत्ति श्रेणियों को समान दर पर पूंजी लाभ कराधान एवं बरताव के अंतर्गत लाया जाना चाहिए.
राजस्व का अन्य स्रोत प्रौद्योगिकीय कंपनियों पर डिजिटल कर है. भारत में फेसबुक, गूगल, अमेजॉन, ऐपल एवं माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों का विशाल उपयोगकर्ता आधार मौजूद है. इनमें से प्रत्येक का मूल्य एक लाख करोड़ डॉलर के करीब है. पर इस मूल्य का लेशमात्र भी भारतीय निवेशकों की समृद्धि में तब्दील नहीं होता, क्योंकि वे यहां के स्टॉक एक्सचेंजों में सूचीबद्ध नहीं हैं. फ्रांस एवं अन्य यूरोपीय देशों का अनुकरण करते हुए हम उन पर लेनदेन आधारित तीन प्रतिशत का एक हल्का डिजिटल कर लगाने पर विचार कर सकते हैं.
दूसरा, एक ऐसे प्रोत्साहन की जरूरत है, जो खर्च किये गये पैसे पर पर्याप्त और तेज लाभ देते हुए ग्रामीण व्ययन (स्पेंडिंग) को प्रोत्साहित कर सके. चूंकि ग्रामीण भारत का एक बड़ा हिस्सा आयकर से मुक्त है, इसलिए आयकर की दरें कम किये जाने का कोई अर्थ नहीं है.
भारत में जीडीपी के मुकाबले प्रत्यक्ष कर दरों का अनुपात विश्व की न्यूनतम दरों में एक है और व्यक्तिगत आयकर दरों को कम करना इस स्थिति को बदतर ही करेगा. अभी भारतीय आयकर भारत की औसत प्रतिव्यक्ति आय के लगभग 400 प्रतिशत रकम को प्रत्येक करदाता के लिए कर से मुक्त कर देता है. इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि हमारी जनसंख्या का वस्तुतः केवल तीन से चार प्रतिशत हिस्सा ही आयकर देता है.
उपभोग व्ययन बढ़ाने का सबसे बेहतर राजकोषीय प्रोत्साहन अप्रत्यक्ष करों, यानी जीएसटी में एक तेज कमी लाना है. यदि जीएसटी की मानक दर को केलकर कमिटी की मूल अनुशंसाओं के मुताबिक घटा कर 12 प्रतिशत पर ला दिया जाये, तो इससे एक बड़ा प्रोत्साहन मिलेगा.
मगर इसके लिए जीएसटी परिषद में आम सहमति की आवश्यकता होगी. इसके अतिरिक्त, वित्त मंत्री को इस पर भी विचार करना चाहिए कि किस तरह प्रत्यक्ष लाभ अंतरण द्वारा निम्न आय वर्ग परिवारों की जेब में पैसे दिये जा सकते हैं. पिछले वर्ष से प्रारंभ किये गये पीएम किसान सम्मान निधि या सार्वजनीन बुनियादी आय की भावना भी यही है. यदि नकदी नहीं, तो सार्वजनिक अथवा निजी वस्तुओं के रूप में सामग्रियों का अंतरण भी किया जा सकता है. यह कहा जाता है कि किसी गरीब व्यक्ति तक पहुंचा प्रत्येक रुपया व्यय हो जाता है, जबकि किसी धनी व्यक्ति को अंतरित किये गये एक रुपये की उसकी बचत में शामिल हो जाने की संभावना अधिक होती है. इसलिए, उपभोग प्रोत्साहन को निम्नतर आय वर्ग पर केंद्रित होने की जरूरत होती है.
प्रोत्साहन का तीसरा अहम स्रोत लघु एवं मध्यम उद्यमों पर ब्याज तथा पूंजी लागत भार में कमी लाना है. चूंकि उनके राजस्व की वृद्धि दर एवं ब्याज दर का अंतर इतना अधिक होता है कि ब्याज पर दो या तीन प्रतिशत की आर्थिक सहायता भी उन्हें बहुत लाभ पहुंचा सकती है. यदि उनका ऋण एनपीए में तब्दील नहीं हुआ है, तो उन्हें दो वर्षों के लिए पांच करोड़ तक के अधिकतम ऋण रकम पर ब्याज दर में राहत दी जा सकती है.
चौथा, मवेशियों से आय का दो-तिहाई हिस्सा डेयरी से संबद्ध होता है. यदि सरकार ‘हर सुबह हर बच्चे को एक गिलास दूध’ की योजना लागू कर दे, तो इससे पोषण के अलावा डेयरी किसानों को भी लाभ पहुंच सकता है. दूध एक रोजाना का उत्पाद है, जो तरलता प्रदान करता है, कार्यशील पूंजी को अवरुद्ध नहीं करता.
इसके अलावा, डीमैट सॉवरेन स्वर्ण बांड के आक्रामक विक्रय, विभिन्न अधिभारों तथा उपकरों में कमी तथा निजीकरण से प्राप्त रकमों के बैंकों में अधिक पूंजी विनियोग में इस्तेमाल से भी फायदे मिल सकते हैं.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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