आंदोलनों की जद में दुनिया
पुष्पेश पंत अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार pushpeshpant@gmail.com इस साल जापान, कोरिया और चीन सभी जगह शांति और सुव्यवस्था की आशा निर्मूल साबित हुई. सबसे अधिक संकटग्रस्त चीनी गणराज्य का स्वायत्त समझा जानेवाला हांगकांग रहा है. आठ-दस माह से वहां अपने जनतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे आंदोलनकारी सड़कों पर उपद्रवी कार्यवाही से पीकिंग के लिए […]
पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
pushpeshpant@gmail.com
इस साल जापान, कोरिया और चीन सभी जगह शांति और सुव्यवस्था की आशा निर्मूल साबित हुई. सबसे अधिक संकटग्रस्त चीनी गणराज्य का स्वायत्त समझा जानेवाला हांगकांग रहा है. आठ-दस माह से वहां अपने जनतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे आंदोलनकारी सड़कों पर उपद्रवी कार्यवाही से पीकिंग के लिए सरदर्द बने हुए हैं. निर्मम बल प्रयोग के बावजूद और जरूरत पड़ने पर सेना को तैनात किये जाने की धमकी के बावजूद हालात पर काबू नहीं पाया जा सका है.
अरबों रुपये का नुकसान अर्थव्यवस्था को हो चुका है और चीन की अंतरराष्ट्रीय छवि बुरी तरह कलंकित हुई है. एक राज्य दो व्यवस्था वाली प्रणाली की पोल खुल चुकी है और अमेरिका के साथ वाणिज्य युद्ध में फंसा चीन आर्थिक मंदी की चपेट से निश्चय ही कमजोर हुआ है. जापान पर सामरिक दबाव बढ़ाने के लिए उत्तरी कोरिया के मोहरे का इस्तेमाल भी नाकाम साबित हुआ.
सिंकियांग प्रांत के उग्युर मुसलमानों का असंतोष-आक्रोश भी बीच-बीच में विस्फोटक रूप धारण करता रहा है. इस सबसे यह नतीजा निकालने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए कि चीन कमजोर हो रहा है. शी जिनपिंग की नेतृत्व शैली प्रतिपक्षियों के साथ समझौते करनेवाली नहीं!
पश्चिम में यूरोप से लेकर अमेरिकी गोलार्ध तक असहमति और असंतोष को मुखर करनेवाले आंदोलनों में अप्रत्याशित उफान आ रहा है. फ्रांस में ‘नौजवान’ राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रां के साथ मतदाता का मोहभंग होते देर नहीं लगी.
नारंगी वेस्टकोट पहने प्रदर्शनकारी भीड़ ने पुलिस के साथ हिंसक मुठभेड़ों से परहेज नहीं किया. यह ‘अराजक’ तत्व शक्तिशाली श्रमिक संगठनों का प्रतिनिधित्व करते हैं और इनकी नाक में नकेल कसना किसी भी सरकार के लिए सहज नहीं. ब्रिटेन में ब्रेक्जिट को लेकर देश दोफाड़ है. इस मुद्दे ने फिलहाल भले ही राष्ट्रव्यापी हड़ताल का रूप न लिया हो, उत्तरी आयरलैंड और स्कॉटलैंड में अलगाववादी भावावेश को भड़काया है. असंतुष्ट और आशंकित तबकों के तेवर कभी भी उग्र और आक्रामक हो सकते हैं.
रूस में पुतिन की ‘तानाशाही’ का प्रतिरोध करनेवाले दुस्साहसिकों की संख्या में वृद्धि जारी है. उनके दमन में कोई कमी नहीं, परंतु पुतिन की नीतियों से असहमत रूसियों ने उनकी पार्टी के विपक्ष में मतदान से यह प्रमाणित कर दिया है कि उग्र राष्ट्रवाद का भावावेश यथेष्ठ नहीं. तुर्की में एर्डोगान का आक्रामक राष्ट्रवाद भी उनकी सरकार के खिलाफ आंदोलनों को खारिज करने में नाकामयाब रहा है. इस्राइल में नेतन्याहू भी स्पष्ट बहुमत पाने में असमर्थ रहे. उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के अलावा फिलिस्तीनी-अरबों के मानवाधिकारों के हनन के आरोप नजरंदाज नहीं किये जा सकते.
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की मुद्रा पहले दिन से ही ‘आ बैल मुझे मार’ वाली रही है. अश्वेतों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं को अनायास नाराज करने में वह सिद्ध हस्त हैं.
मेक्सिको से आनेवाले शरणार्थियों को वह असामाजिक घुसपैठिया घोषित कर चुके हैं. इनकी बाढ़ को रोकने के लिए द्वार बनाने का तुगलकी फरमान भी वह जारी कर चुके हैं. अमेरिका की आर्थिक मंदी के लिए वह चीन, भारत आदि की खुदगर्ज नीतियों को जिम्मेदार ठहराते हैं. इस सबके खिलाफ छोटे-मोटे प्रदर्शन होते रहे हैं. पर जब से ‘हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स’ में उनके खिलाफ महाभियोग लगाया जा चुका है, उनके आलोचकों में नया जोश भर गया है. ट्रंप पर लगे गंभीर अभियोग में अपने चुनाव में विदेशी ताकतों की मदद लेना और कानूनी व्यवस्था को बाधित करना शामिल हैं.
साल 2020 में अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव हैं, अतः यह स्वाभाविक है कि ट्रंप के विरोधी जुझारू बन सकते हैं. दक्षिण अमेरिका में अर्जेंटीना, वेनेजुएला और इक्वाडोर में निर्वाचित सरकारों की अस्थिरता के लिए अमेरिका की नीतियां ही जिम्मेदार रही हैं. राष्ट्रपति चाहे कोई भी हो, बड़ी कंपनियों के स्वार्थों और इन राष्ट्रों के हितों का टकराव निरंतर जारी रहेगा इसमें शक की गुंजाइश नहीं है.
आंदोलनों की विश्व परिक्रमा से भारत को किसी भी प्रकार का संतोष नहीं हो सकता. स्वयं हम पिछले सप्ताह से ऐसे आंदोलनों से त्रस्त रहे हैं.
शुरुआत जम्मू-कश्मीर राज्य के प्रशासनिक पुनर्गठन के विरोध से हुई, पर शीघ्र ही नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण के सन्निपात ने देशव्यापी आंदोलनों को खौला दिया. दुर्भाग्यवश केंद्र सरकार ने जिस जल्दबाजी में अपने प्रचंड बहुमत के बल प्रयोग से एक दिन में ही इसे पारित कराने का हठ ठाना, उससे यही संदेश गया कि असहमति का कोई भी स्वर सुनने को वह तैयार नहीं.
यदि यह बात मान भी लें कि विपक्षियों ने जनता को गुमराह करने के लिए झूट का सहारा लिया और असामाजिक तत्वों ने इसका लाभ उठाया, तब भी इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि उत्तर प्रदेश सरकार ने आंदोलन के दमन के लिए जो आदेश दिये, वह किसी भी जनतंत्र में स्वीकार नहीं किया जा सकता.
मुख्यमंत्री ने अपने भाषणों में ‘बदला लेने’ का संकल्प लिया और उच्च न्यायपालिका ने सरकारी दावों पर तत्काल विश्वास भी कर लिया कि आपातकाल जैसी स्थिति में पुलिस का पहला कर्तव्य किसी भी तरह हालात पर काबू पाना है. उससे जनसाधारण के मन में यही भावना घर कर गयी कि उसके बुनियादी अधिकारों का संरक्षक कोई नहीं है.
सर्वोच्च न्यायालय की यह हिदायत आते भी अनावश्यक देर लगी कि पूरे सूबे में धारा 144 को अनिश्चितकाल तक लागू करने का आदेश तर्कसंगत नहीं. औपनिवेशिक युग के कानूनों का दुरुपयोग प्रतिपक्ष को चुप कराने के लिए किया जाना लपटों में घी डालने जैसा है. अनेक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के छात्र और प्राध्यापक सड़कों पर उतरने को मजबूर हुए हैं. इन सभी को मतिमंद, देशद्रोही समझना नादानी ही कहा जा सकता है. सोशिल मीडिया की हर खबर को अफवाह या विदेशी षड्यंत्र करार देने की चेष्टा सरकार की विश्वसनीयता को ही नष्ट कर सकती है.
बहरहाल चीन, अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, तुर्की, इस्राइल की तरह भारत भी यह दावा कर सकता है कि जब देश की संप्रभुता संकटग्रस्त, हो तब असहमति प्रकट करना देशद्रोह है, परंतु हम यह नहीं भूल सकते कि जनतंत्र में नागरिक को और विपक्ष को सवाल उठाने से रोका नहीं जा सकता, न ही असहमत लोगों का दमन असंवैधानिक तरीके से किया जा सकता है. हमारी प्राथमिक चिंता अपने देश को लेकर होनी चाहिए. आप इसे भूमंडलीय महामारी बिल्कुल न समझें.