बिहार में नया राजनीतिक गंठबंधन
।। पवन के वर्मा ।। सांसद एवं पूर्व प्रशासक विशेष राज्य के दर्जे की बात तो छोड़ दें, देश के इस सबसे गरीब राज्य के लिए किसी भी तरह का कोई सकारात्मक प्रावधान नहीं किया गया है. औद्योगिक गलियारों और स्मार्ट शहरों की योजना में बिहार कहीं नहीं है. बिहार के युवाओं के रोजगार के […]
।। पवन के वर्मा ।।
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
विशेष राज्य के दर्जे की बात तो छोड़ दें, देश के इस सबसे गरीब राज्य के लिए किसी भी तरह का कोई सकारात्मक प्रावधान नहीं किया गया है. औद्योगिक गलियारों और स्मार्ट शहरों की योजना में बिहार कहीं नहीं है. बिहार के युवाओं के रोजगार के लिए कोई योजना केंद्र की ओर से प्रस्तावित नहीं है.
और कीमतें, नरेंद्र मोदी के जादुई छड़ी दिखाने के बावजूद, बढ़ती ही जा रही हैं और उसी हिसाब से औसत बिहारी पर बोझ भी बढ़ रहा है.बिहार में 21 अगस्त को दस विधानसभा सीटों पर होनेवाले उपचुनाव के लिए नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले जनता दल (यूनाइटेड), लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के बीच गंठबंधन की घोषणा जोरदार बहस का विषय बन गयी है.
कभी साथ और कभी एक-दूसरे के विरोध में रहे इन तीन दलों के गठबंधन को बिहार और राष्ट्र की राजनीति के परिप्रेक्ष्य में इसके संदर्भ, उद्देश्य और परिणामों के विश्लेषण की जरूरत है. हाल के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने बिहार में भारी जीत हासिल की है. उसे अकेले 22 फीसदी मत मिले हैं.
रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी को मिलाकर यह लगभग 36 फीसदी तक पहुंच जाता है, जिसके कारण भाजपा गठबंधन को 40 में से 31 सीटों पर अप्रत्याशित जीत मिली.
भाजपा के सफल प्रदर्शन के स्पष्ट कारण हैं. पहला, जिसको श्रेय देना चाहिए, नरेंद्र मोदी ने यूपीए-2 के विरुद्ध असंतोष को संगठित प्रतिभा के साथ भुनाया. लोग बढ़ती कीमतों और सुस्त सरकार से बहुत क्षुब्ध थे. उन्हें बदलाव की चाह थी और नरेंद्र मोदी ने खुद को देश की हर समस्या के समाधान के रूप में पेश कर बेहतर शासन का वादा किया. दूसरा, उनके प्रचार के लिए भाजपा के पास अकूत संसाधन थे, जो, रिपोटरें के अनुसार, कांग्रेस से भी कहीं ज्यादा थे.
तीसरा, यह लोकसभा का चुनाव था और यह दिल्ली में सरकार गठन के लिए था. बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खुद को प्रधानमंत्री पद की दौड़ से अलग कर लिया था.
बहुत लोगों का कहना था कि बिहार के बदलाव के नेतृत्व के लिए उन्होंने नीतीश कुमार का समर्थन किया था, पर यह चुनाव दिल्ली की सत्ता के लिए है, इसलिए वे नरेंद्र मोदी को वोट देंगे. चौथा, गैर-भाजपा दलों ने कई गलतियां कीं. पासवान भाजपा के विरोध में हो सकते थे, पर कांग्रेस ने इस संभावना पर समय से ध्यान नहीं दिया. पांचवां, भाजपा का विरोधी खेमा बुरी तरह से विभाजित था.
जद (यू) अकेले मैदान में था. राजद का अकेला सहयोगी कांग्रेस हतोत्साहित थी. भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी इस विभाजन के कारण बाजी मार ले गये. और छठा, बिहार के इतिहास में इससे पहले धार्मिक आधार पर लामबंदी की कभी कोशिश नहीं की गयी थी, भले ही ऊपरी तौर पर नारा शासन का था.
बहरहाल, यह शिक्षाप्रद तथ्य है कि इन सारी बातों के बावजूद भाजपा विरोधी दलों का मत-प्रतिशत भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों से कहीं अधिक रहा है. कांग्रेस, जद (यू) और राजद का संयुक्त मत 45 फीसदी के आसपास है. इसके बावजूद वे अलग-अलग लड़ने के कारण हार गये.
सवाल पूछे जा रहे हैं और वे आधारहीन नहीं हैं कि एक-दूसरे के जबरदस्त विरोधी जद (यू) और राजद अब एक साथ कैसे आ सकते हैं? जाहिर तौर पर भारतीय जनता पार्टी ने इस गठबंधन में शामिल दलों के ऊपर राजनीतिक अवसरवाद का अरोप लगाया है. लेकिन, रामविलास पासवान के साथ गठबंधन करनेवाली भाजपा के पास यह आरोप लगाने का कोई अधिकार नहीं है. 2002 में गोधरा दंगों के कारण पासवान ने एनडीए गठबंधन और वाजपेयी सरकार से इस्तीफा दे दिया था. उसके बाद से वे लगातार भाजपा के तल्ख विरोधी रहे थे. उन्होंने यहां तक कह दिया था कि भाजपा ‘भारत जलाओ पार्टी’ है. इसके बावजूद पासवान और मोदी सुविधा से साथ हो गये.
फिर भी, यह पूछना बिल्कुल ठीक है कि जद (यू), राजद और कांग्रेस का यह नया भाजपा विरोधी गठबंधन क्या मतलब रखता है. मेरी समझ से, वैचारिक स्तर पर इसके तीन मायने हैं. पहला यह है कि यह गठबंधन समेकित विकास की अवधारणा पर आधारित है और यह चाहता है कि प्रगति का फायदा सबसे गरीब तक पहुंचे. दूसरा, यह गठबंधन सामाजिक और धार्मिक सद्भाव के पक्ष में है, जिसके बिना भारत जैसे देश में कोई शासन संभव नहीं है और कोई भी नागरिक सुरक्षित नहीं हो सकता है. और तीसरा आधार है अच्छा शासन.
पहले दो बिंदुओं पर लालू यादव और नीतीश कुमार में कोई मतभेद नहीं है. दोनों समाजवादी जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की उपज हैं, और अलग होने से पहले वंचितों के सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण के लिए साथ मिलकर काम करते थे.
सुशासन के सवाल पर नीतीश कुमार संभवत: देश के सबसे अच्छे आदर्श हैं. सत्ता में रहते हुए उन्होंने बिहार का कल्पनातीत कायाकल्प किया है. पिछले पांच वर्षों से बिहार विकास दरों में देश में सबसे आगे है.
उन्होंने कानून-व्यवस्था को बहाल किया और आम नागरिक को सुरक्षा प्रदान किया. और, जैसा कि योजना आयोग ने रेखांकित किया है, उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में गरीबी रेखा के नीचे रहनेवाले सबसे अधिक लोगों को उबारा. संक्षेप में कहें, तो ये वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने अकेले दम पर बिहार को उसका गौरव वापस दिलाया.
लेकिन, इस नये गठबंधन द्वारा भाजपा के विरोध का एक और महत्वपूर्ण कारण है. बिहार के लोगों ने भाजपा गठबंधन को 31 सीटें दीं. लेकिन, सत्ता में आने के बाद भाजपा ने बिहार के लोगों को क्या दिया है? इसका जवाब है- कुछ भी नहीं. बिहार और अन्य अति पिछड़े राज्य सत्ताधारी दल की सोच में मौजूद नहीं हैं, जैसा कि बजट से साफ झलकता है.
विशेष राज्य के दर्जे की बात तो छोड़ दें, देश के इस सबसे गरीब राज्य के लिए किसी भी तरह का कोई सकारात्मक प्रावधान नहीं किया गया है. औद्योगिक गलियारों और स्मार्ट शहरों की योजना में बिहार कहीं नहीं है. बिहार के युवाओं के रोजगार के लिए कोई योजना केंद्र की ओर से प्रस्तावित नहीं है.
और जरूरी चीजों की कीमतें, नरेंद्र मोदी के जादुई छड़ी दिखाने के बावजूद, बढ़ती ही जा रही हैं और उसी हिसाब से औसत बिहारी पर बोझ भी बढ़ रहा है. कुल मिलाकर, यह रवैया बिहार के लोगों के भरोसे के साथ किया गया बहुत बढ़ा धोखा है.
चाणक्य ने कहा था कि गतिशील होने के कारण राजनीति को नयी चुनौतियों के साथ समायोजित होना चाहिए. बिहार का यह राजनीतिक प्रयोग, जो अभी विकसित हो रहा है, अगर सफल हुआ तो एक बार फिर बिहारियों को एक राजनीतिक आवाज देगा और उतने ही महत्वपूर्ण रूप में पूरे भारत को यह संदेश देगा कि लोकतांत्रिक स्वरूप के भीतर भाजपा की विशेषता बन चुके बेअसर और दंभी विजयघोष को चुनौती देने की संभावनाएं मौजूद हैं.