बेमतलब है नटवर सिंह की किताब

।। आकार पटेल ।। वरिष्ठ पत्रकार सोनिया को नटवर सिंह की किताब पर टिप्पणी नहीं देनी चाहिए थी. इस किताब में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिस पर उन्हें प्रतिक्रिया देने की जरूरत है. किताब के अंशों से यही आभास मिलता है कि यह पूरी तरह से बेस्वाद लेखन है. भरतपुर राजपरिवार, जिससे पूर्व विदेश […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 7, 2014 5:10 AM

।। आकार पटेल ।।

वरिष्ठ पत्रकार

सोनिया को नटवर सिंह की किताब पर टिप्पणी नहीं देनी चाहिए थी. इस किताब में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिस पर उन्हें प्रतिक्रिया देने की जरूरत है. किताब के अंशों से यही आभास मिलता है कि यह पूरी तरह से बेस्वाद लेखन है.

भरतपुर राजपरिवार, जिससे पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह जुड़े हुए हैं, में सिर्फ एक ही राजा हुए थे- सूरजमल जाट. औरंगजेब की मृत्यु के बाद उत्तरोत्तर कमजोर होते जा रहे मुगलों के दौर में दिल्ली के दक्षिण में कुछ जमीन जीता था. विख्यात/कुख्यात सैयद बंधुओं में से एक सैयद हसन अली खान ने इस परिवार को राजा बनाने का वादा किया था. यह इस सैयद के अधिकार-क्षेत्र से बाहर की बात थी और इससे पहले कि वे कोशिश कर पाते, उनकी हत्या हो गयी.

सूरजमल के पिता बदन सिंह ने पराजित और दिवालिया, लेकिन अभी भी गर्वित गुजरात के पूर्व गवर्नर सरबुलंद खान को पांच हजार रुपये इस निवेदन के साथ भेजे कि वे बदन सिंह को अपने पत्रों में राजा लिखें. खान ने उनको सिर्फ ‘ठाकुर’ का संबोधन करते हुए इस पैसे को वापस कर दिया.

यह 1730 के दशक की बात है. सूरजमल ने डकैती के जरिये ही अपना अधिकांश धन जमा किया था. वे अपनी मृत्यु के समय बहुत धनी थे और वे अपने पीछे भरा हुआ खजाना और किसान जाटों की एक सेना छोड़ कर गये, जिसकी 18 महीने की तनख्वाह बकाया थी.

इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि ऐसे इतिहास का ‘वारिस’ भी वैसा ही रंगीन होगा. कांग्रेस पार्टी के सबसे अधिक पढ़े-लिखे नेताओं में से एक (जो कि इन दिनों बहुत कुछ नहीं कह पा रहे हैं) नटवर सिंह 83 वर्ष की उम्र में बागी हो गये हैं. नेहरू-गांधी परिवार की कई दशकों तक सेवा करने के बावजूद एक तेल घोटाले में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के बाद कुछ वर्ष पहले उनका मंत्रलय छीन लिया गया था.

बाद में उनके बेटे ने भाजपा का दामन थाम लिया था. अब नटवर सिंह ने एक किताब लिखी है, जिसमें उन्होंने यह भड़काऊ आरोप लगाया है कि 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की हार के बाद सोनिया गांधी खुद प्रधानमंत्री बनने को लेकर ऊपरी तौर पर बहुत अधिक भयभीत थीं.

मैं ऊपरी तौर पर इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि इसमें हंगामा क्या है. नटवर सिंह का खास दावा यह है: ‘राहुल अपनी मां के प्रधानमंत्री बनने के पुरजोर विरोधी थे, उन्हें यह डर था कि उनकी दादी और पिता की तरह उनकी मां भी अपनी जान गंवा सकती हैं. यह मामला अपने चरम पर तब पहुंचा, जब राहुल ने कह दिया कि वे अपनी मां को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए कोई भी कदम उठाने के लिए तैयार हैं.

राहुल एक दृढ़ इच्छाशक्ति रखनेवाले व्यक्ति हैं; यह कोई साधारण धमकी नहीं थी. उन्होंने सोनिया को निर्णय लेने के लिए 24 घंटे का समय दिया. उस समय मनमोहन सिंह, सुमन दुबे, प्रियंका और मैं वहां मौजूद थे. सोनिया परेशान दिख रही थीं. उनकी आंखों में आसूं थे. मां होने के नाते उनके लिए राहुल की अनदेखी कर पाना संभव नहीं था. उनकी बात मान ली गयी.उनके प्रधानमंत्री न बनने का यही कारण था.’

इन पैरों में व्यक्त भाषा मेरे लिए सबसे अधिक चौंकानेवाली है. सेंट स्टीफेंस और कैंब्रिज में पढ़े होने के कारण नटवर प्रचलित मुहावरों पर बहुत निर्भर हैं. ‘वेहेमेंटली अपोज्ड’, ‘मैटर्स रीच्ड ए क्लाइमेक्स’, ‘प्रिपेयर्ड टु टेक एनी पॉसिबल स्टेप’ आदि जैसे मुहावरे बेचारे पत्रकारों के लिए छोड़ देना चाहिए, जिन्हें रोज शब्दों की फेरी लगानी होती है और लाचारी में सतही समझदारी पर निर्भर रहना पड़ता है.

जहां तक कही गयी बात का सवाल है, तो बेटे द्वारा अपनी मां को सुरक्षित रखने की चाह में क्या गलत है? और राहुल ने सोनिया को किस बात की धमकी दी (क्या उन्होंने खाना खाने से मना कर दिया)? और नटवर सिंह के पास इस बात का क्या सबूत है कि यह विशेष धमकी थी (और सोनिया की आत्मचेतना नहीं), जिसके कारण उन्होंने अंतत: प्रधानमंत्री पद ठुकरा दिया? यह सब हमें पता नहीं.

लेकिन इस आरोप ने संत सोनिया के सिर की आभा को हटा दिया है, कम-से-कम उनके मन से. वे इतनी व्यथित हो गयीं कि यह बयान दे दिया: ‘मैं खुद अपनी किताब लिखूंगी और तब सबको सच्चाई का पता चल जायेगा. इसे लेकर मैं बहुत गंभीर हूं.’ यह अच्छी बात है, लेकिन जैसा कि ‘द गुड, द बैड एंड द अग्ली’ में एली वालाश ने लिखा है: अगर आपको गोली चलानी है, तो गोली चलाइए, बतियाइए मत.

क्या नटवर यह सोचते हैं कि प्रधानमंत्री पद को ठुकराने से सोनिया सुरक्षित हैं? या इससे वे उनको धमकानेवालों के लिए कम शक्तिशाली या कम आकर्षक निशाना बन जाती हैं? वे कांग्रेस में सबसे शक्तिशाली व्यक्ति हैं.

जब मनमोहन सिंह दस वर्षो तक प्रधानमंत्री थे, तब भी वे देश की सबसे शक्तिशाली व्यक्ति थीं. हर किसी को पता है कि किसी पद को नहीं लेना इस मामले में कोई मतलब नहीं रखता है.

सोनिया को इस किताब पर टिप्पणी नहीं देनी चाहिए थी. इस किताब में कुछ और भी ऐसा नहीं है, जिस पर उन्हें प्रतिक्रिया देने की जरूरत है. किताब के अंशों से यही आभास मिलता है कि यह पूरी तरह से बेस्वाद लेखन है. किताब का एक पैरा इस प्रकार है: ‘सोनिया और मेरे बीच होनेवाली राजनीतिक चर्चाएं विशेष, गंभीर और विषय-केंद्रित होती थीं. पर हमारी अनौपचारिक बातचीत खुशनुमा होती थीं.

एक बार विदेश यात्र से आने के बाद मुलाकात में उन्होंने शुरू में ही कहा कि वे उनकी कमी महसूस कर रही थीं. सोनिया सार्वजनिक जीवन में कम संकोची हो रही थीं, पर उन्हें अभी बहुत बदलना था. एक पुरुष-प्रभुत्व समाज में वे कभी निश्चिंत नहीं हो सकती थीं. कांग्रेस कार्यसमिति की बैठकों में वे तनी हुई रहती थीं और बहुत कम बोलती थीं.’ अब इससे क्या नया पता चलता है? कुछ भी नहीं.

नटवर लिखते हैं: ‘2000 और 2003 के बीच सोनिया अमेरिका यात्र में उपराष्ट्रपति डिक चेनी और विदेशमंत्री कोंडोलीजा राइस जैसे गणमान्य लोगों से मिलीं. वे ऑक्सफोर्ड व हांगकांग भी गयीं. इन यात्रओं में मैं उनके साथ था. विदेश में वह अलग ही थीं- निश्चिंत, प्रसन्न, कम रौबदार, दूसरों का ख्याल रखनेवाली.’ बतौर लेखक ये बातें मुझे सिर्फ जगह भरनेवाली लगती हैं, क्योंकि इनमें कोई ठोस बात नहीं है.

इस किताब पर सोनिया का चुप रह जाना ही बेहतर था. अगर कांग्रेस सत्ता में होती, तो शायद वे ऐसा करतीं भी. राजीव की मृत्यु के बाद उनकी लंबी चुप्पी और राजनीति से दूरी ने उन्हें सत्ता की चाह नहीं रखनेवाले व्यक्ति की विश्वसनीय छवि दी है.

अभी उनके उद्देश्यों के हमेशा अच्छे होने की बात साबित करने की उनकी कोशिश से उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ है. और कुंवर नटवर सिंह, जिनका प्रकाशक रूपा है (जो चेतन भगत की किताबें भी छापता है), ने एक घटना का चालाकी से इस्तेमाल कर लिया है. उनके पूर्वजों को उन पर बहुत गर्व होगा.

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