।।चंदन श्रीवास्तव।।
अगर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की एक महत्वपूर्ण कड़ी शिक्षक है, तो अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देने के इस युग में सरकार की तरफ से हरचंद ऐसी कोशिश हुई है कि शिक्षक, पढ़ानेवाला कम और न्यूनतम मजदूरी को तरसता मजदूर ज्यादा नजर आये. वह कहीं ‘शिक्षा-मित्र’ (बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश) कहलाता है, तो कहीं ‘पारा शिक्षक’ (झारखंड), तो कहीं ‘विद्या-वालंटियर’ (आंध्रप्रदेश). अगर उसे कुछ नहीं कहा जाता तो शिक्षक.
ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं, जब किसी ने सत्ता के शीर्ष पद पर पहुंचने के बावजूद अपनी स्वाभाविक साधुता बरकरार रखी हो. गरीबी में पले, सरकारी स्कूलों में पढ़े, बच्चों के बीच बेहद लोकिप्रय और उनके भीतर भविष्य का भारत देखनेवाले पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम ऐसे ही शख्सीयतों में शुमार किये जाते हैं. कलाम साहब पद पर रहते हुए सत्ता के गलियारे में इस या उस पार्टी के हित में चाल चलने के लिए नहीं, बल्कि भारत की हित-चिंता करनेवाले व्यक्ति के रूप में जाने गये और रिटायरमेंट के बाद वे एक बार फिर से ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ की उसी शैली में दिन बिता रहे हैं, जिसकी उम्मीद आजादी के बाद के दिनों में इस देश के शीर्षस्थ नेताओं ने देश के नागरिकों से की थी.
साधुता हानि-लाभ की चिंता किये बगैर आदमी से सच बुलवा लेती है, बेलाग-लपेट वाला सच. बीते मार्च महीने में कलाम साहब के साथ ऐसा ही वाक्या हुआ. मार्च महीने के दूसरे पखवाड़े की शुरु आत में वे कोलकाता में थे. यहां नेशनल हाइस्कूल की शतवार्षिकी पर आयोजित समारोह में उन्होंने वह बात कही, जो शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने के बाद देश का मानव संसाधन विकास मंत्रलय शायद ही कभी कहे या माने. कलाम साहब ने कहा कि शिक्षा कारोबार की वस्तु नहीं है. शिक्षा छात्र, अभिभावक, शिक्षक को एकतार में जोड़नेवाली होनी चाहिए और इसके लिए स्कूल का सिलेबस का अच्छा होना तो जरूरी है ही, उससे भी जरूरी है सिलेबस पढ़ानेवाले का चरित्र से महान होना.
उनके शब्द थे- ‘‘बड़ी इमारत, भरपूर सुविधाओं और बड़े विज्ञापनों से पढ़ाई में गुणवत्ता नहीं आती, पढ़ाई में गुणवत्ता आती है शिक्षक के महान होने से, शिक्षा के भीतर छात्रों के प्रति प्यार के होने से. ’’कलाम साहब कोई नयी बात नहीं कह रहे थे, वह तो सदियों से चली आ रही एक जरूरी मान्यता को फिर से रेखांकित कर रहे थे. एक ऐसी मान्यता जिसे आधिकारिक तौर पर बड़ी तेजी से भुलाया जा रहा है. शिक्षा के मामले में क्या हम बीतते दिनों के साथ यह नहीं मानने लगे हैं कि दुकान ऊंची होगी, तो पकवान भी मीठे होंगे? क्या इसी मान्यता के तहत ऐसे निजी स्कूलों की तादाद नहीं बढ़ी, जो अपने विज्ञापनों में पंचसितारा सुविधाएं देने का वादा करते हैं और निम्न-मध्यम वर्ग का अभिभावक सोचता है कि महंगी फीस चुकाने की बाध्यता के कारण चाहे पेट काटना पड़े, लेकिन बच्चे को ऊंची इमारतों और भरपूर सुविधाओंवाले निजी स्कूल में पढ़ाना जरूरी है?
इसी हफ्ते की खबर है कि सरकार देश में नयी शिक्षा नीति लाना चाहती है और मानव संसाधन विकास मंत्री एमएम पल्लम राजू इस दिशा में पूर्व मंत्री कपिल सिब्बल के नक्शे-कदम पर चलते हुए एक नया शिक्षा आयोग बनाना चाहते हैं. आयोग की रूपरेखा तय करने के लिए बैठकें हो रही हैं, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि उसका गठन भी होगा, सिफारिशें आयेंगी और शायद देश में एक और नयी शिक्षा नीति लागू हो जाये. शिक्षा आयोग इस देश में पहले भी बने हैं, उनकी सिफारिशों पर देश के लिए शिक्षा नीतियां पहले भी बनायी गयी हैं, आजादी से पहले और उसके बाद भी. आजादी से पहले इस दिशा में जो प्रयास हुए, उनमें एक प्रयास आजादी के संघर्ष के भरपूर सालों में हुआ था.
सन् 1934 में संयुक्त प्रांत की सरकार ने सप्रू समिति का गठन किया था. चूंकि इस समिति का गठन संयुक्त प्रांत में बढ़ती बेरोजगारी के कारणों का पता लगाने के लिए किया गया था, इसलिए उसकी सिफारिशों के केंद्र में बेरोजगारी का समाधान ही था. उसने सुझाया कि शिक्षा की चालू व्यवस्था तो छात्रों को सिर्फ परीक्षा पास करने और डिग्री हासिल करने के लिए तैयार करती है. समिति का समाधान था कि लोगों को रोजगारपरक शिक्षा दी जानी चाहिए. याद रहे कि भारतीय स्वाधीनता का जो संग्राम उन दिनों सांस्कृतिक मोरचे पर लड़ा जा रहा था, उसका विचार इसके उलट था. ‘शिक्षे! तेरा नाश हो जो नौकरी के हित ही बनी’- तब सांस्कृतिक मोरचे से यह आवाज उठ रही थी.
भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इस विचार को व्यावहारिक रूप देने का काम किया जाकिर हुसैन समिति की रिपोर्ट ने. साल 1937 में जब सात बड़े राज्यों में कांग्रेस का मंत्रिमंडल बना, उसका ध्यान शिक्षा सुधार पर भी गया. इस साल अक्तूबर के महीने में वर्धा (महाराष्ट्र, गांधीजी का आश्रम) में एक राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन हुआ. सहमति इस बात पर बनी कि बच्चों को शुरु आती सात साल की शिक्षा अनिवार्य और मुफ्त दी जाये, यह शिक्षा उनकी मातृभाषा में हो. वर्धा के इस सम्मेलन का जोर चूंकि स्वावलंबन और स्वराज पर था, इसलिए यह भी कहा गया कि इस शिक्षा में हस्तकर्म पर जोर होगा, ताकि हरेक व्यक्ति बाद के जीवन में ‘अपनी जीविका खुद अर्जित करे, मशीनों पर निर्भर ना रहे, जो लोगों से जीविका छीनती हैं..’’ इसके बहुत बाद में, जब साल 1964 में डीएस कोठारी की अध्यक्षता में आजादी के बाद देश का पहला शिक्षा आयोग बना, तो माना गया कि शिक्षा के सहारे राष्ट्रीय लक्ष्य पूरा करने के लिए सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक मोरचे पर जो परिवर्तन जरूरी हैं, उन्हीं के अनुकूल शिक्षा दी जानी चाहिए. साथ ही यह शिक्षा लोगों के भीतर लोकतांत्रिक मान-मूल्यों को जगानेवाली होनी चाहिए.
शिक्षा का अधिकार लागू होने के बाद आप चाहें तो कह सकते हैं, सरकार ने शुरुआती शिक्षा के अनिवार्य और मुफ्त दिये जाने की जाकिर हुसैन समिति की बात को तो अमली जामा पहना दिया है, लेकिन कुछ इस तरह कि सांप भी मर जाये और लाठी भी ना टूटे. यानी कानून लागू हो जाये, लेकिन अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा के केंद्र (सरकारी स्कूल) लगातार हिकारत से देखे जायें. स्वावलंबन और स्वराज के विचार और संकल्प की धज्जियां देश के प्रभु-वर्ग ने इस तरह उड़ायी हैं कि मातृभाषा में शिक्षा की बात बहुत पीछे चली गयी है. आज आम सहमति इस बात पर बन चली है कि शिक्षा तभी गुणवत्तापूर्ण होती है, जब वह अंगरेजी और निजी स्कूलों में दी जाये और लोकतांत्रिक मान-मूल्यों के प्रति निष्ठा जगानेवाली बात को पीछे धकेल कर सबको समझा दिया गया है कि शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य हर हाल में एक अदद नौकरी पाना होता है. नयी आर्थिक नीतियों के इस दौर में बेरोजगारी की बात कोई नहीं करता, लेकिन रोजगारपरक शिक्षा के पैरोकार आपको अपने घर से लेकर नुक्कड़ की पान दुकान तक मिल जायेंगे. ऐसा लगता है, रोजगारपरक शिक्षा की जो वकालत बरसों पहले सप्रू समिति ने की थी, उसे साकार करने का सही वक्त मानो अब आया हो.
बीते दो दशकों में कुछ तो हुआ है इस देश की मानिसक बुनावट के साथ कि एक तरफ अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा की बात लंबे संघर्ष के बाद मान ली गयी, तो दूसरी तरफ महंगे निजी स्कूलों की बाढ़ और उनके प्रति ललक भी बेतहाशा बढ़ी है. यह हुआ है इस भावना के बलवती होने से कि सरकारी स्कूल-कॉलेजों में दी जानेवाली शिक्षा लोगों की आज की जरूरत और आकांक्षा से मेल नहीं खाती, वह ना तो गुणवत्तापूर्ण है, ना ही रोजगारपरक. जिस एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) की धमक योजना आयोग तक में सुनी जाती है, वह यही बात साबित करती है कि लोगों का रुझान अब सरकार की तरफ से दी जानेवाली मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की तरफ नहीं रह गया है. इस साल जनवरी महीने में आयी ‘असर’ रिपोर्ट के तथ्य आंख खोलनेवाले हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, राष्ट्रीय स्तर पर 6-14 आयु-वर्ग के बच्चों का नामांकन प्रतिशत निजी स्कूलों में साल-दर-साल बढ़ा है. साल 2006 में सौ में अगर 18.7 बच्चे निजी स्कूलों में जा रहे थे, तो साल 2012 में 28.3 फीसदी बच्चे निजी स्कूलों में जाने लगे. निजी स्कूलों में नामांकन में बढ़ोतरी करीब-करीब सभी राज्यों में देखने को मिल रही है. 2012 में जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गोवा और मेघालय में 6-14 आयुवर्ग के 40 फीसदी से अधिक बच्चे निजी स्कूलों में नामांकित थे. केरल और मणिपुर के लिए यह प्रतिशत 60 से ज्यादा था. और रिपोर्ट में नोट किया गया है कि ‘‘देश के ग्रामीण हिस्से में, प्रारंभिक स्तर पर, यानी कक्षा 1-8 के करीब एक चौथाई बच्चे चाहे वे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हों या सरकारी स्कूलों में, पैसे देकर निजी ट्यूशन के लिए जाते हैं. सामान्यतया जो बच्चे ट्यूशन हासिल करते हैं, उनका शिक्षण-स्तर उन बच्चों से बेहतर था जो ट्यूशन हासिल नहीं कर रहे थे.’’
सरकारी शिक्षा के प्रति हिकारत का यह भाव कैसे पैदा हुआ. पीछे लौट कर एक बार फिर से याद कीजिए कलाम साहब की बातों को. अगर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की एक महत्वपूर्ण कड़ी शिक्षक है, तो अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देने के इस युग में सरकार की तरफ से हरचंद ऐसी कोशिश हुई है कि शिक्षक, पढ़ानेवाला कम और न्यूनतम मजदूरी को तरसता मजदूर ज्यादा नजर आये. वह कहीं ‘शिक्षा-मित्र’(बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश) कहलाता है, तो कहीं ‘पारा शिक्षक’ (झारखंड), तो कहीं ‘विद्या-वालंटियर’ (आंध्रप्रदेश). अगर उसे कुछ नहीं कहा जाता तो शिक्षक. और इस नामकरण के हिसाब से ही आधे-अधूरे वेतन और खानापूर्ति भर के लिए हासिल प्रशिक्षण के बीच जो सामाजिक प्रतिष्ठा शिक्षक को परंपरागत तौर पर हासिल थी, उससे वंचित कर दिया गया है. व्यवस्था के सताये हुए इस व्यक्ति से आप कैसे उम्मीद लगायेंगे कि वह स्कूल को देश-निर्माण के पवित्र कार्य में खड़ा किया गया मंदिर माने और पढ़ने के लिए आनेवाले बाल-गोपाल को भावी भारत का रचयिता भगवान मान कर उनकी सेवा में अपनी जिंदगी के साल होम करे ?
शिक्षा आयोग बने, उसका स्वागत है, लेकिन क्या नयी शिक्षा नीति बनाने की उसकी सिफारिशें उस भावना की वापसी कर पायेंगी जिससे कभी कोठारी आयोग और उससे पहले जाकिर हुसैन समिति ने प्रेरणा हासिल की थी? कहते हैं, पुराने दिन नहीं लौटते. बेशक वे नहीं लौटते, लेकिन नया करने की कोशिशों के बीच आप उनसे कुछ सीख सकते हैं, बशर्ते आप सीखना चाहें.