छात्र आत्महत्या की बढ़ती घटनाएं
आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने हाल में देश में आत्महत्या के जो आंकड़े जारी किये हैं, वे चिंताजनक हैं. किसी भी समाज और देश के लिए यह बेहद चिंताजनक स्थिति है. कोई शख्स आत्महत्या को आखिरी विकल्प क्यों मान रहा है? नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट […]
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने हाल में देश में आत्महत्या के जो आंकड़े जारी किये हैं, वे चिंताजनक हैं. किसी भी समाज और देश के लिए यह बेहद चिंताजनक स्थिति है. कोई शख्स आत्महत्या को आखिरी विकल्प क्यों मान रहा है? नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक देश में आत्महत्या के मामलों में 3.6 फीसदी की बढोत्तरी हुई है और औसतन देश में हर दो घंटे में तीन लोग जान दे रहे हैं. रिपोर्ट के अनुसार 2018 में कुल 1, 34, 516 लोगों ने खुदकुशी की, जो 2017 के 1, 29, 887 आत्महत्या के मामलों के मुकाबले 3.6 फीसदी अधिक है.
आत्महत्या के सबसे अधिक मामले महाराष्ट्र 17, 972 में दर्ज किये गये. दूसरे स्थान पर तमिलनाडु 13, 896 है और तीसरे पर पश्चिम बंगाल 13, 255 है. इसके बाद मध्य प्रदेश 11, 775 और कर्नाटक 11, 561 की बारी आती है. इन पांच राज्यों में ही लगभग 51 फीसदी आत्महत्या के मामले दर्ज किये गये. राजधानी दिल्ली में 2, 526 खुदकुशी के मामले दर्ज किये गये. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो गृह मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली संस्था है और यह संस्था देश भर में अपराध से जुड़े आंकड़े एकत्र कर उन्हें जारी करती है.
लेकिन सबसे चिंताजनक बात यह है कि देश में छात्रों की आत्महत्या की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2018 के आंकड़ों से स्टूडेंट्स की आत्महत्या को लेकर बेहद चिंताजनत तथ्य सामने आये हैं. 2018 में लगभग 10,159 छात्रों ने आत्महत्या की है.
इनमें से एक चौथाई ने इम्तिहान में फेल होने के डर से आत्महत्या की. इसके अलावा प्रेम में नाकामी, उच्च-शिक्षा के मामले में आर्थिक समस्या, अच्छा प्लेसमेंट न मिलना और बेरोजगारी भी छात्रों की आत्महत्या की प्रमुख वजह के रूप में सामने आयी है. आंकड़ों के मुताबिक एक दशक में लगभग 82 हजार छात्रों ने आत्महत्या जैसा अतिरेक कदम उठाया है. महाराष्ट्र में 1448 छात्रों के आत्महत्या के सबसे अधिक मामले सामने आये हैं.
इसके बाद तमिलनाडु 953, मध्य प्रदेश 862, कर्नाटक 755 और पश्चिम बंगाल 609 से छात्र आत्महत्या के मामले सामने आये हैं. छात्रों की आत्महत्या के 45 फीसदी मामले इन्हीं पांच राज्यों से हैं. जब भी देश में बोर्ड के नतीजे आते हैं और कई बच्चों के आत्महत्या करने की दुखद खबरें सामने आती हैं. ये खबरें साल-दर-साल आ रही हैं. इस समस्या का कोई हल निकलता हुआ नजर नहीं आ रहा है. दरअसल, मौजूदा दौर की गलाकाट प्रतिस्पर्धा और माता-पिता की असीमित अपेक्षाओं के कारण बच्चों को जीवन में भारी मानसिक दबाव का सामना करना पड़ रहा है.
बेटियां तो और भावुक होती हैं. दूसरी ओर माता-पिता के साथ संवादहीनता बढ़ रही है. ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां बच्चे परिवार, स्कूल और कोचिंग में तारतम्य स्थापित नहीं कर पाते हैं और तनाव का शिकार हो जाते हैं. हमारी व्यवस्था ने उनके जीवन में अब सिर्फ पढ़ाई को ही रख छोड़ा है. रही-सही कसर मोबाइल ने पूरी कर दी है. दूसरी ओर माता-पिता के पास वक्त नहीं है, उनकी अपनी समस्याएं हैं. नौकरी और कारोबार की व्यस्तताएं हैं, उसका तनाव है. जहां मां नौकरीपेशा है, वहां संवादहीनता की स्थिति और गंभीर है. एक और वजह है. भारत में परंपरागत संयुक्त परिवार का तानाबाना टूटता जा रहा है.
परिवार एकाकी हो गये हैं और नयी व्यवस्था में बच्चों को बाबा-दादी, नाना-नानी का सहारा नहीं मिल पाता है, जबकि कठिन वक्त में उन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है. यही वजह है कि अनेक बच्चे आत्महत्या जैसे अतिरेक कदम उठा लेते हैं. परीक्षा परिणामों के बाद हर साल अखबार मुहिम चलाते हैं. बोर्ड और सामाजिक संगठन हेल्प लाइन चलाते हैं, लेकिन छात्र- छात्राओं की आत्महत्या के मामले रुक नहीं रहे हैं. जाहिर है कि ये प्रयास नाकाफी हैं.
बच्चे संघर्ष करने के बजाय हार मान कर आत्महत्या का सहज रास्ता चुन ले रहे हैं. माता-पिता और शिक्षकों की यह जिम्मेदारी है कि वे लगातार बच्चों को यह समझाएं कि परीक्षा परिणाम ही सब कुछ नहीं है. ऐसे सैकड़ों उदाहरण है कि इम्तिहान में बेहतर न करने वाले लोगों ने जीवन में सफलता के मुकाम हासिल किये हैं.
यह बेहद चिंताजनक स्थिति है कि कोई बच्चा आत्महत्या को आखिरी विकल्प क्यों मान रहा है.एक और गंभीर तथ्य सामने आया कि बेरोजगारी से आत्महत्या करने वालों की संख्या बढ़ रही है. नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 2018 में किसानों से ज्यादा बेरोजगारों ने आत्महत्या की. 2018 में 12,936 लोगों ने बेरोजगारी के कारण आत्महत्या की. इसी अवधि में 10,349 किसानों ने आत्महत्या की. केरल में 1585, तमिलनाडु में 1579, महाराष्ट्र में 1260, कर्नाटक में 1094 और उत्तर प्रदेश में 902 लोगों ने बेरोजगारी की कारण आत्महत्या की.
दूसरी ओर देश में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला जारी है. खेती-किसानी का संकट व्यापक है और इसकी चपेट में अनेक राज्यों के किसान आ गये हैं. यही वजह है कि आर्थिक कारणों से अब तक सैकड़ों किसान आत्महत्या कर चुके हैं. यह सिलसिला अब थोड़ा थमा है. 2018 में 10,349 किसानों ने आत्महत्या की है.
दरअसल, अवसाद और आत्महत्याएं नये दौर की महामारी के रूप में उभर कर सामने आ रहा है. अवसाद ग्रसित कई लोग आत्महत्या जैसा रास्ता चुन लेते हैं. ऐसा नहीं है कि केवल निराशा और अवसाद से पीड़ित भारत में ही हों.
सबसे विकसित देश अमेरिका में सबसे अधिक लोग अवसाद से पीड़ित हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 7.5 फीसद लोग किसी-न-किसी तरह के मानसिक अवसाद से पीड़ित हैं, लेकिन भारत में अवसाद को कोई बीमारी नहीं माना जाता और इसके इलाज पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है. इलाज तो दूर पीड़ित व्यक्ति की मदद करने के बजाय लोग उसका उपहास उड़ाते हैं.
कई बार तो तो मानसिक रूप से असंतुलित महिला को डायन बता कर मार दिया जाता है. झारखंड में अक्सर ऐसे मामले सामने आते हैं. बीमारी का इलाज कराने के बजाय पढ़े-लिखे लोग भी झाड़ फूंक के चक्कर में फंस जाते हैं. हमारे पूर्वजों ने वर्षों के अध्ययन और मनन के बाद एक बात कही थी- जितनी चादर है उतने ही पैर फैलाएं, लेकिन हम इस जीवन दर्शन को भूल गये और अब हम उधार लेकर घी पीने के विदेशी चिंतन के मायाजाल में फंस गये हैं.
यह सही है कि बाजार की भोगवादी आर्थिक प्रवृत्तियों का संबंध कहीं-न-कहीं हमारी आर्थिक नीतियों से है और उनकी शक्ति इतनी ज्यादा है जिसके कारण हमारा जीवन दर्शन बदल गया है. हमारी लालसा बेलगाम हो गयी है. यही वजह है कि अनेक लोग अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं और आत्महत्या जैसे अतिरेक कदम उठा लेते हैं.