राजनीतिक विमर्श की भाषा सुधरे
अपर्णाटिप्पणीकारaparnasingh2508@gmail.com पिछले एक-डेढ़ दशक से राजनीतिक विमर्श की भाषा में जो बदलाव आया है, वह एक चिंतनीय प्रश्न है. चाहे वह राजनीतिक प्रवक्ताओं का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बहस हो या चुनावी सभाओं में नेताओं का भाषण, उसमें बहस की संस्कृति में आया बदलाव स्पष्ट दिखता है.भाषा की संस्कृति में जुमलेबाजी ने अपना स्थान बना लिया […]
अपर्णा
टिप्पणीकार
aparnasingh2508@gmail.com
पिछले एक-डेढ़ दशक से राजनीतिक विमर्श की भाषा में जो बदलाव आया है, वह एक चिंतनीय प्रश्न है. चाहे वह राजनीतिक प्रवक्ताओं का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बहस हो या चुनावी सभाओं में नेताओं का भाषण, उसमें बहस की संस्कृति में आया बदलाव स्पष्ट दिखता है.भाषा की संस्कृति में जुमलेबाजी ने अपना स्थान बना लिया है, जो अराजकता, बर्बर और असभ्य अभिव्यक्ति के रूप में दिखायी पड़ता है. भाषा की संस्कृति में गिरावट अचानक नहीं हुई है. यह दो बातों पर निर्भर करती है. एक, देश की राजनीतिक संस्कृति, जिसका तात्पर्य है राजनीति में कैसे और किस प्रकार के लोगों का वर्चस्व है. सत्तर के दशक तक की राजनीति पर स्वतंत्रता आंदोलन की छाया थी.
उस आंदोलन के लोगों से प्रभावित अगली पीढ़ी ने राजनीतिक विमर्श को दायरे से बाहर नहीं जाने दिया. दूसरा आयाम राजनीति के इतर की बौद्धिक गतिविधियां हैं. इसमें साहित्य, कला, अकादमिक गतिविधियां इत्यादि शामिल हैं. राजनीति के बगल में होते हुए भी ये राजनीति की गोद में नहीं बैठते हैं.
स्वतंत्रता के पूर्वार्ध काल में साहित्यकारों, रंगकर्मियों और समाजशास्त्रियों पर वामदलों की छाप तो थी, पर उन्होंने अपनी स्वतंत्रता बचाये रखी. स्वतंत्र भारत के उत्तरार्ध में स्थिति बदल गयी और ये साहित्यकार, पत्रकार, रंगकर्मी खांचों में इस प्रकार बंट गये कि राजनीति को नियंत्रण करने की जगह वे स्वयं राजनीति से नियंत्रित होने लगे.
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, हरिवंश राय बच्चन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामधारी सिंह दिनकर, सुमित्रानंदन पंत, सुब्रमण्यम भारती, रामनाथ गोयनका, श्यामलाल जैसे साहित्यकार और पत्रकार सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में सोचते थे, न कि सत्ता का उतार-चढ़ाव उनकी चिंता का विषय था. ऐसे लोगों ने ही राजनीति को परिष्कृत करने और उस पर लगाम लगाने का काम किया. उत्तरार्ध काल में इसका अभाव है. यह गिरावट एकांगी नहीं साझा है.
आज विमर्श के गिरने का कारण राजनीति में कई तरह की अनियमितता है. आजादी के बाद कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ और कम्युनिस्ट यह चार धाराएं थीं. चारों की एक अघोषित आम सहमति थी- क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता को परास्त करना. लेकिन कालांतर में नयी पीढ़ियों का सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से कमजोर लगाव के कारण वे इन आदर्शों को कुचलते गये. इस काल में एक और दुर्घटना हुई. राजनीति का वृहत्तर रूप चुनावी राजनीति से भिन्न होता है.
वह इस तरह की गिरावट पर पूर्वार्ध में अंकुश लगाने का काम करता था. जेपी, विनोबा सरीखे व्यक्तित्व और उनके द्वारा संचालित सीमित स्तर पर चलाये जानेवाले सामाजिक आंदोलन इसके अनुपम उदाहरण हैं. उत्तरार्ध काल में इसकी भी अनुपस्थिति ने नेताओं को स्वच्छंद बना दिया है.
यही कारण है कि आज टीवी डिबेट पर राष्ट्रीय-क्षेत्रीय दलों के प्रवक्ताओं द्वारा न सिर्फ असभ्य भाषा का प्रयोग होता है, बल्कि बहस भी अमर्यादित होती है. ये वही लोग हैं, जिन्हें दलों के आलाकमान चयन करते हैं. जाहिर है कि वे उनके इस बर्ताव को उचित और मनोनुकूल मानते हैं. भाषाई गिरावट को देखने और समझने का यह सबसे सहज स्वरूप है.
जब राजनीतिक संस्कृति या वातावरण में गिरावट आती है, तो वह देश की व्यवस्था को प्रभावित करने लगती है. तब बुद्धिजीवियों की निश्चित रूप से राजनीतिक भूमिका होती है. यह भूमिका निभाते समय साहित्यकार और कलाकार राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं बनते हैं. इसका एक बड़ा उदाहरण 70 के दशक का है.
जब जेपी आंदोलन शुरू हुआ, तो उसके केंद्र में राजनीतिक पार्टियां आ गयीं. उसके समर्थन में धर्मवीर भारती ने धर्मयुग में जो कविता लिखी थी, जिसमें एक लाठी लेकर लड़खड़ाते आदमी से कांपती सत्ता के भय को दर्शाया था.
वह एक साहित्यकार का राजनीति में बेहतरीन हस्तक्षेप था. मर्यादित संकेतों द्वारा लोकतांत्रिक ताकतों के मनोबल को, आत्मविश्वास और उसकी शक्ति को एक साहित्यकार ऐसे ही बढ़ाता है. लेकिन बुद्धिजीवियों ने राजनीतिक कार्यकर्ता की भूमिका में जनादेश के पक्ष-विपक्ष में काम करना शुरू किया, तो उनकी भी भाषा बिगड़ गयी.
सवाल है कि इस समस्या का क्या समाधान है? जिन लोगों ने अपनी स्वायत्तता बचाये रखी है, उनकी भूमिका विमर्श और राजनीति की संस्कृति को बदलने में कार्य कर सकती है. ऐसा करने में ऐसे लोगों को सब तरफ से अलग-थलग पड़ने का जोखिम होता है.
भारत में राजनीति न्यूनतम स्तर पर चली जाये और विमर्श की भाषा जितनी भी निम्न हो जाये, सामान्य लोग उससे अप्रभावित रहते हैं, क्योंकि राजनीति पूर्ण संख्यात्मक हो गयी है. वह सामान्य लोगों की परवाह नहीं करती है. सामान्य लोगों के बीच में रहनेवाले विचारकों, चिंतक, कवि, लेखक, रंगकर्मी हैं, जिनका जगना ही भारत की राजनीति और विमर्श की संस्कृति के लिए पुनर्जागरण का प्रारंभ होगा.
चुनावी सभाओं से लेकर स्टूडियो तक जुबानी विमर्श में आयी गिरावट और कटुता में वृद्धि सामान्य लोगों को सोचने के लिए बाध्य करती है. इस देश में विमर्श की एक संस्कृति का लंबा इतिहास रहा है. नयी और पुरानी पीढ़ी के बीच का अंतर तभी भर पायेगा, जब इतिहास से सीख लेकर अहम पहलें होंगी, जो सामाजिक सत्ता को मजबूत करने का काम करेंगी.