संसद की सियासी संवेदनशीलता के मायने
।। पुण्य प्रसून वाजपेयी ।। वरिष्ठ पत्रकार कांग्रेस अब लोकसभा में इस मुद्दे पर बहस चाहती है कि मोदी सिर्फ मंदिर-मंदिर दर्शन क्यों कर रहे हैं? मोदी सरकार बनने के बाद देश में सांप्रदायिक झड़पों में क्यों तेजी आ रही है? बीजेपी को भी इससे कोई गिला-शिकवा नहीं है कि संसद में सांप्रदायिकता पर बहस […]
।। पुण्य प्रसून वाजपेयी ।।
वरिष्ठ पत्रकार
कांग्रेस अब लोकसभा में इस मुद्दे पर बहस चाहती है कि मोदी सिर्फ मंदिर-मंदिर दर्शन क्यों कर रहे हैं? मोदी सरकार बनने के बाद देश में सांप्रदायिक झड़पों में क्यों तेजी आ रही है? बीजेपी को भी इससे कोई गिला-शिकवा नहीं है कि संसद में सांप्रदायिकता पर बहस हो.
लोकसभा चुनाव से पहले और बाद के हालात बताते हैं कि सांप्रदायिक हिंसा अब चुनावी राजनीति के लिए बेहतरीन हथियार है. सिर्फ मई-जून, 2014 में ही पूरे देश में 113 जगहों पर सांप्रदायिक झड़पें हुईं, जिसमें 15 लोग मारे गये और 318 लोग घायल हुए. महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में करीब ढाई महीने बाद चुनाव होने है, जहां सांप्रदायिक हिंसा के कुल 33 मामले दर्ज किये गये, जबकि इसके सामानांतर उत्तर प्रदेश को सांप्रदायिकता की नयी राजनीतिक प्रयोगशाला बनायी जा रही है, क्योंकि यूपी के जरिये समूचे देश में राजनीतिक संकेत देकर चुनावों पर असर डाला जा सकता है.
मई, 2012 से मार्च, 2014 के बीच जहां यूपी में सवा सौ सांप्रदायिक दंगे हुए, वहीं बीते मई से जुलाई माह के बीच चार सौ के करीब सांप्रदायिक हिंसा यूपी के 18 जिलों में हुई.
सवाल है कि क्या लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ही नहीं, मुलायम से लेकर लालू या किसी भी क्षत्रप का मिथ दंगों के दौरान मुसलिमों में ही अपनी सुरक्षा को लेकर टूट गया है? इसी दौर में जातियों में बंटे बहुसंख्यक तबके को यह एहसास हुआ कि अल्पसंख्यक राजनीति को साधनेवालों को भेदा जा सकता है. यदि ऐसा हो रहा है, तो क्या सत्ता पाने के लिए कानून-व्यवस्था को राजनीतिक तौर पर संभालना मुश्किल है या सांप्रदायिकता को साधना आसान है?
सांप्रदायिकता को लेकर संसद के भीतर-बाहर के राजनीतिक बयान या कहें प्रधानमंत्री मोदी को लेकर संसद के भीतर-बाहर के बयान भी चुनावी राजनीति को ध्यान में रख कर ही दिये जा रहे हैं. और सांप्रदायिकता को कटघरे में खड़ा करने की जगह सियासत भी दो धुरी पर चल पड़ी है. कांग्रेस का मानना है कि मुद्दा देश में बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा का है, जिस पर मोदी सरकार बोलने नहीं देती.
लेकिन बीजेपी का मानना है कि मुद्दा राहुल गांधी के नेतृत्व की खत्म होती साख का है, तो खुद को सक्रिय दिखाने-बताने के लिए राहुल गांधी सांप्रदायिकता के सवाल को सनसनीखेज बना कर उठाना चाहते हैं. दोनों राजनीतिक परिभाषा है. लेकिन इन दोनों परिभाषा के साये में देश का सच है क्या?
लोकसभा चुनाव परिणाम से ऐन पहले और चुनाव परिणाम आने के 40 दिन बाद तक के हालात बताते हैं कि यूपी, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, बिहार, झारखंड और हरियाणा में सांप्रदायिक हिंसा के कुल सौ मामले दर्ज किये गये. इसमें झारखंड और हरियाणा में तो सिर्फ दो-दो मामले ही सांप्रदायिक हिंसा के दर्ज हुए, लेकिन बाकी राज्यों में 10 से 30 तक मामले दर्ज हुए.
यानी बीजेपी ने जिस तरह लोकसभा में बहुमत पाकर यह संदेश दिया कि मुसलिम वोट बैंक उनकी जीत को प्रभावित नहीं कर सकता, यह कांग्रेस के लिए संकट का सबब बन गया. सांप्रदायिकता के आईने में हर राजनीतिक समीकरण अगर बीजेपी को लाभ पहुंचा रहा है, तो फिर कांग्रेस क्या करे? यदि यह हालत देश भर में बने, तो फिर कांग्रेस की सियासत पर खतरा मंडराने लगेगा.
लेकिन जनता के लिए यह अपने आप में मुद्दा है कि क्या राजनीतिक लाभ-हानि के दायरे में ही अब सांप्रदायिक हिंसा या सांप्रदायिक सौहार्द मायने रखता है? मनमोहन सरकार के दौर में बीजेपी कांग्रेस पर मुसलिम तुष्टीकरण का आरोप लगाती रही. अब मोदी सरकार के दौर में सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देने का आरोप बीजेपी पर कांग्रेस लगा रही है.
बीजेपी की मानें तो कांग्रेस के राजनीतिक संकट के मद्देनजर राहुल गांधी सांप्रदायिकता के मुद्दे को हवा देते हुए खुद के नेतृत्व की साख बनाने में लगे हैं. और कांग्रेस संसद के भीतर-बाहर प्रधानमंत्री मोदी की इफ्तार पार्टी और ईद मिलन से दूर रहने से लेकर मंदिर-मंदिर घूमने को ही सांप्रदायिकता को बढ़ानेवाले हालात के कटघरे में खड़ा कर रही है.
बीते बीस बरस का सच यही है कि यूपी में सत्ता कभी भी किसी की रही हो, लेकिन उसमें मुसलिम वोटर सबसे अहम रहे हैं. मुलायम के लिए मुसलिम-यादव (एमवाइ) समीकरण और मायावती के लिए दलित-मुसलिम (डीएम) समीकरण ने कांग्रेस-बीजेपी दोनों को राजनीतिक तौर पर हाशिये पर धकेल दिया. लेकिन लोकसभा चुनाव में जिस तरह बीजेपी को बड़ी जीत मिली, उसने पहली बार यूपी के मुसलिमों के सामने भी यह सवाल खड़ा कर दिया कि कभी यादव तो कभी दलित वोट के साथ खड़े होकर मुसलिम हमेशा सत्ता की मलाई नहीं खा सकता.
अब सवाल है कि क्या विधानसभा चुनाव में भी कुछ ऐसा हो सकता है? ध्यान दें तो उत्तर प्रदेश की कुल 403 सीटों में से सिर्फ 54 सीट ऐसी है, जहां मुसलिम वोटर जिसे चाहे उसे जीत दिला सकते हैं. 125 सीट ऐसी है, जहां मुसलिम वोट बैंक किसी भी 10 फीसदी वाले वोट बैंक से साथ जुड़ जायें, तो उसकी जीत पक्की है. यानी बीते 20 बरस से मुलायम या मायावती के पास ही सत्ता इसीलिए रही, क्योंकि मुसलिम वोट बैंक ने यूपी की सत्ता कांग्रेस को देनी नहीं चाही और बीजेपी की राजनीति जातीय राजनीति में अपनी सोशल इंजीनियरिंग से सेंध लगाने में कभी सफल हो नहीं पायी.
अब जिस तरह यूपी में सांप्रदायिक झड़पों में तेजी आयी है, उसने 12 सीटों पर होनेवाले उपचुनाव से आगे देश भर में यूपी के जरिये राजनीतिक संकेत देने शुरू कर दिये हैं कि अब न तो मंडल से निकली जातीय राजनीति मायने रखेगी ना ही सोशल इंजीनियरिंग. इस सियासी मोड़ पर अगर गले में रुद्राक्ष की माला और भगवा वस्त्र में लिपटे नेपाल की सड़क पर नरेंद्र मोदी नजर आये, तो कांग्रेस के मुसलिम तुष्टिकरण की राजनीति को यह उकसायेगा.
पहली बार देश की सियासत कैसे सांप्रदायिक हो चली है और शांति कायम करने का पूरा नजरिया ही कैसे चुनावी जनादेश को सांप्रदायिकता के कटघरे में खड़ा कर राजनीतिक लाभ-हानि देख रहा है, यह संसद में राजनीतिक दलों की सियासी मशक्कत से समझा जा सकता है. कांग्रेस अब लोकसभा में इस मुद्दे पर बहस चाहती है कि मोदी सिर्फ मंदिर-मंदिर दर्शन क्यों कर रहे हैं? मोदी सरकार बनने के बाद देश में सांप्रदायिक झड़पों में क्यों तेजी आ रही है?
बीजेपी को भी इससे कोई गिला-शिकवा नहीं है कि संसद में सांप्रदायिकता पर बहस हो. क्योंकि संघ के सामाजिक शुद्धीकरण का एक रास्ता हिंदू-मुसलिम सियासत पर सीधे संवाद से भी पूरा होता है. इसके दायरे में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट या फिर दलित-आदिवासियों से लेकर ग्रामीण भारत का न्यूनतम को लेकर संघर्ष का मुद्दा भी बेमानी हो जायेगा व खनिज संसाधनों की लूट के जरिये विकास की कॉरपोरेट नीति भी छुप जायेगी और देश को यही लगेगा कि देश की नुमाइंदगी करनेवाली संसद वाकई देश को लेकर सबसे ज्यादा संवेदनशील है.