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संवैधानिकता का जश्न मनाया जाए

प्रो फैजान मुस्तफा वाइस चांसलर, नलसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद delhi@prabhatkhabar.in छब्बीस जनवरी, 1950 को संविधान लागू होने के वर्षों बाद पहली बार भारत के लोग संविधान से खुद की पहचान स्थापित करते हुए उसकी प्रस्तावना पढ़ रहे हैं. यह लोगों की परिपक्वता का एक लक्षण है. यह तय है कि संविधान सर्वोपरि कानून है […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 28, 2020 5:28 AM
प्रो फैजान मुस्तफा
वाइस चांसलर, नलसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद
delhi@prabhatkhabar.in
छब्बीस जनवरी, 1950 को संविधान लागू होने के वर्षों बाद पहली बार भारत के लोग संविधान से खुद की पहचान स्थापित करते हुए उसकी प्रस्तावना पढ़ रहे हैं. यह लोगों की परिपक्वता का एक लक्षण है. यह तय है कि संविधान सर्वोपरि कानून है और सभी कानून संविधान के अनुरूप ही होने चाहिए. पर संवैधानिकता के बगैर संविधान स्वयं ही अहम नहीं रह जाता. हमें न सिर्फ संवैधानिकता का जश्न मनाना चाहिए, बल्कि इसकी मौन मौत पर चिंतित भी होना चाहिए.
हिटलर कालीन जर्मनी की ही तरह कई मुस्लिम और समाजवादी देशों के संविधानों में भी संवैधानिकता के विचार का हनन किया गया है. संवैधानिकता ज्यादा अहम क्यों है? भारत में संवैधानिकता की स्थिति क्या है? क्या हमारा संविधान भी केवल प्रकट रूप से अधिकारों तथा सीमाओं से मगर वास्तव में सिर्फ शक्ति और नियंत्रण से ही संबद्ध है?
समाज में व्यवस्था और अधिकारों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की इच्छा से समन्वय की जरूरत पर इंसान बहुत पुराने वक्त से ही सोचता आया है. सरकार का ढांचा तय करने के दौरान सबसे बड़ी मुश्किल यह पेश आती है कि पहले तो शासित पर नियंत्रण के लिए शासक को सामर्थ्य देना पड़ता है और तब उसे खुद को ही नियंत्रित करने का जिम्मा देना होता है.
इंसानियत की हमेशा से यह इच्छा रही है कि वह अच्छी तरह शासित होने के साथ ही स्वतंत्र भी हो. इसलिए ऐसी राजनीतिक प्रणाली के सृजन की दिशा में बहुत अधिक विचार किया गया है, जो सरकारों और उसके अंगों को समाज के सामूहिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु जरूरी शक्तियों का इस्तेमाल करने की इजाजत तो दे, पर इसके साथ ही वह व्यक्तियों की स्वतंत्रताओं से भी समझौता न करे. संवैधानिकता इसी कोशिश का नाम है.
संवैधानिकता को जिस बुनियादी मूल्य की रक्षा करनी चाहिए, वह मानवीय गरिमा है. लोकतंत्र अपने आप में एक लक्ष्य नहीं है. व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सरकारी शक्ति पर सीमाएं कहीं अधिक अहम हैं.
राष्ट्रगान के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘हमारी परंपराएं हमें सहनशीलता सिखाती हैं. हम इसे कमतर न करें.’ तो क्या हम निरंकुशतावाद की ओर झुक रहे हैं? कुछ विद्वानों का यह मत है कि सभी समाज स्वभाव से ही निरंकुशतावादी होते हैं और सरकारें तो ज्यादा वैसी ही होती हैं. इंदिरा गांधी के शासनकाल में हम निरंकुशतावाद का दौर झेल चुके हैं. लोकतंत्र से बदतरीन अधिनायक भी निकला करते हैं.
संवैधानिकता बुनियादी तौर पर निरंकुशतावाद के विपरीत है. एक संविधान बनाने का मुख्य मकसद सरकार तथा उसके तीन अंगों की शक्तियां सीमित करना है.
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार राज्य की उन शक्तियों को सीमित करने का पवित्र दायित्व निभाते हैं, जिनसे इन अधिकारों पर सबसे बड़े खतरों का जन्म होता है. इन शक्तियों को सीमित करने का अन्य संस्थागत तरीका शक्तियों के वितरण, उनके अलगाव और न्यायिक समीक्षा के सिद्धांतों में मिला करता है. हमारे संविधान के निर्माताओं ने संविधान में राष्ट्र के आदर्शों और संस्थाओं के साथ ही उन्हें हासिल करने की प्रक्रिया भी स्थापित की. ये आदर्श राष्ट्रीय एकता तथा अखंडता और एक लोकतांत्रिक एवं समतामूलक समाज हैं, जहां संवैधानिकता एक सर्वोच्च मूल्य है.
आज यदि हमारा संवैधानिक लोकतंत्र हमारी आकांक्षाओं को पूरा करने में विफल रहा है और आज इसे गंभीर बीमारियों से ग्रस्त पाया जा रहा है, तो इसमें संविधान का कम और इसे संचालित करनेवाले लोगों का दोष ज्यादा है. तथ्य यह है कि संविधान ‘काम’ नहीं किया करते, वे तो निष्क्रिय होते हैं. अपनी कार्यशीलता के लिए वे नागरिकों और सियासी रहनुमाओं पर निर्भर होते हैं. इसलिए, संविधान हमारी आशाओं पर नहीं, बल्कि हम संविधान की आशाओं पर खरे नहीं उतर सके हैं.
सच तो यह है कि हमारे पास विश्व से सबसे अच्छे संविधानों में एक है. पिछले चार दशकों के दौरान निर्मित एशिया और अफ्रीका के ज्यादातर संविधानों ने हमारे मॉडल का काफी कुछ अनुकरण किया है.
हमारा संविधान मूलतः शक्ति को परिभाषित (प्रस्तावना) करता है, (केंद्र तथा राज्यों और तीनों अंगों के बीच) शक्तियों का वितरण करता है, शक्ति का निषेध (मौलिक अधिकार) करता है और शक्तियां निर्देशित (निर्देशक सिद्धांत) करता है. इन चारों का मकसद और कुछ नहीं, बल्कि संवैधानिकता के प्रिय लक्ष्य की प्राप्ति है. किसी अंग अथवा निकाय के पास असीमित शक्तियां नहीं होनी चाहिए. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट को भी अपने नाम की वजह से अपनी सीमाएं नहीं लांघनी चाहिए. वह भी सर्वोच्च नहीं है. अधिकारों के इस्तेमाल के लिए सबको उत्तरदायी होना ही चाहिए और अपनी लक्ष्मण रेखाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहिए.
आज यह देखना सचमुच स्तब्धकारी है कि हम किस तरह शासित हो रहे हैं. अभूतपूर्व असहनशीलता, अति केंद्रीकरण, भ्रष्टाचार, अविवेकी अपराधीकरण तथा स्वतंत्रता आंदोलन के सभी मूल्यों का पूरी तरह क्षरण वर्तमान में हमारी राजनीति की पहचान बने हुए हैं. भारतीय राजनीतिक स्वामी सचमुच ही इस देश के तथाकथित ‘संप्रभु स्वामियों’ के विरुद्ध एकजुट हो उठे हैं. सरकार या सत्तारूढ़ दल की आलोचना या बढ़ती असहनशीलता पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति को राजद्रोह समझा जा रहा है. वर्ष 1860 के राजद्रोह कानून को नागरिकों की वाणी एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अनुरूप ढालने की कोई कोशिश नहीं की गयी है.
अध्यादेश जारी करने की शक्तियों का नियमित प्रयोग किया जाता है. व्यक्तियों को बचाने या सरकार की शक्तियां बढ़ाने के लिए संविधान संशोधन पारित कर दिया जाता है. न्यायिक सक्रियता अब एक परिपाटी बन चुकी है और लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी राज्य सरकारों को अनुच्छेद 356 के अंतर्गत बर्खास्त किया जाता है. वैसे कानून लगातार लागू हैं, जिनके अंदर लोगों को गिरफ्तार कर उन्हें जमानत या सामान्य कानूनों के संरक्षण से वंचित रखा जा सकता है.
यदि हम किसी न्यायिक फैसले की आलोचना करते हैं, तो हमें उतने ही घृणास्पद ‘अवमानना’ कानून के अंतर्गत सजा दी जा सकती है. संविधान की कार्यप्रणाली को उसके शब्दों से नहीं, बल्कि उन शब्दों के इस्तेमाल से परखा जाता है. डॉ आंबेडकर ने कहा था कि अंततः यह संविधान के संचालकों के चरित्र, निष्ठा तथा बुद्धिमानी पर निर्भर है कि संविधान का अंजाम क्या होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
(अनुवाद: विजय नंदन)

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