बेहतर हो ट्रैफिक
देश का शायद ही कोई ऐसा शहर है, जिसकी सड़कों पर अक्सर यातायात रेंगता हुआ न दिखता हो. इस समस्या की गंभीरता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दुनिया के सबसे खराब ट्रैफिक वाले दस शहरों में चार भारत में हैं. टॉमटॉम ट्रैफिक इंडेक्स 2019 के मुताबिक, बंगलुरु पहले पायदान पर […]
देश का शायद ही कोई ऐसा शहर है, जिसकी सड़कों पर अक्सर यातायात रेंगता हुआ न दिखता हो. इस समस्या की गंभीरता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दुनिया के सबसे खराब ट्रैफिक वाले दस शहरों में चार भारत में हैं. टॉमटॉम ट्रैफिक इंडेक्स 2019 के मुताबिक, बंगलुरु पहले पायदान पर है, जबकि मुंबई चौथे, पुणे पांचवें और राजधानी दिल्ली आठवें स्थान पर है. यह रिपोर्ट 57 देशों के 416 शहरों के अध्ययन पर आधारित है. एक वाहन चालक बंगलुरु में औसतन सालाना अतिरिक्त 10 दिन से अधिक समय व्यस्त ट्रैफिक में बिताता है.
मुंबई और पुणे में यह आंकड़ा आठ दिन से अधिक है, तो दिल्ली में आठ दिन से दो घंटे कम है. यातायात जाम रहने या धीरे चलने की वजह से लोगों का बहुत समय सड़क पर बरबाद तो होता ही है, साथ ही ईंधन की खपत भी अधिक होती है और प्रदूषण भी बढ़ता है. शहरों में मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी इस समस्या का नकारात्मक असर पड़ता है. कामकाजी घंटे बेकार होने और खर्च बढ़ने से अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होती है. सड़क पर दुर्घटना, मार-पीट, झगड़े और अभद्रता का एक बड़ा कारण ट्रैफिक जाम भी है. दो साल पहले बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की रिपोर्ट में बताया गया था कि दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु और कोलकाता में ट्रैफिक जाम के कारण सालाना 22 अरब डॉलर का नुकसान होता है. इसमें अगर देशभर के शहरों के बोझ को जोड़ लें, तो यह बहुत बड़ी रकम बन जाती है.
जिस प्रकार से प्रदूषण से होनेवाले रोगों और कामकाज के घाटे से कम धन खर्च कर स्वच्छ वायु व जल की व्यवस्था की जा सकती है, उसी तरह से यातायात में समुचित निवेश कर नुकसान को भी रोका जा सकता है. आर्थिक विकास और निजी वाहनों की संख्या में बढ़त के साथ अस्सी के दशक से यातायात साधनों की मांग करीब आठ गुना बढ़ी है. शहरों में आबादी और उसका घनत्व भी लगातार बढ़ा है.
इस हिसाब से पटरी-आधारित साधन के साथ अन्य सार्वजनिक साधनों का विकास नहीं हो सका है. एक अध्ययन के अनुसार, भारत के बड़े शहरों में सार्वजनिक यातायात की हिस्सेदारी 25 से 35 फीसदी है, जबकि नब्बे के दशक के मध्य में यह आंकड़ा 60 से 80 फीसदी था. देश में करीब 19 लाख बसें हैं, पर सरकारी आकलन के हिसाब से आम यात्रियों के लिए कम-से-कम 30 लाख बसें चाहिए.
दो वर्ष पहले केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने बताया था कि चीन में हर एक हजार लोगों पर छह बसें हैं, जबकि भारत में हर दस हजार लोगों पर केवल चार बसें हैं. उन्होंने यह भी कहा था कि लगभग 90 फीसदी भारतीयों के पास निजी वाहन नहीं है. ऐसे में अगर साधनों की संख्या बढ़ाने और सड़कों की गुणवत्ता पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया, तो स्थिति लगातार बिगड़ेगी. ट्रैफिक को सुचारु बनाने के मौजूदा उपायों की समीक्षा कर दूरदर्शिता के साथ पहलकदमी की दरकार है.