माननीयों का मान

संतोष उत्सुक व्यंग्यकार santoshutsuk@gmail.com किसी जमाने में माननीय होना सम्मान की बात होती थी. माननीय होते होते उम्र निकल जाती थी. अच्छी बात यह होती थी कि खुद कोई अपने आप को माननीय घोषित नहीं करता था. कोई करता भी था, तो उसे विलेन ही समझा जाता था. समय कई तरह की करवटें ले चुका […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 6, 2020 8:00 AM
संतोष उत्सुक
व्यंग्यकार
santoshutsuk@gmail.com
किसी जमाने में माननीय होना सम्मान की बात होती थी. माननीय होते होते उम्र निकल जाती थी. अच्छी बात यह होती थी कि खुद कोई अपने आप को माननीय घोषित नहीं करता था. कोई करता भी था, तो उसे विलेन ही समझा जाता था.
समय कई तरह की करवटें ले चुका है, अब अगर कोई पूछे कि माननीय कौन होता है, तो स्पष्ट जवाब है, माननीय वही होता है, जो खुद को जब चाहे माननीय मान ले. जितनी जल्दी हो, दूसरे भी मान लें तो बेहतर, न मानें, तो अविलंब मनवा दें. हमारी प्राचीन महान संस्कृति में तो पत्थर, लकड़ी और धातु के ही भगवान बनाये जाते थे. विकसित वर्तमान संस्कृति में प्रदूषण-बढ़ाऊ प्लास्टिक की मूर्तियां भी बनायी जाती हैं, तो जीवित माननीय व्यक्तियों का मान-सम्मान होना लाजिमी है.
प्रशंसनीय बात यह है कि ऐसा आज भी माना जा रहा है. पिछ्ले दिनों यही मानते हुए एक उच्च महामाननीय ने सरकारी हुक्म जारी किया कि राजनीति के शक्तिशाली माननीय प्रशासनिक मुख्य से ऊपर हैं. यह सही बात तो कई दशकों से आम लोग बड़े अदब से मानते हैं. राजा राजा होता है, वजीर वजीर होता है. हर समझदार व्यक्ति मानता है कि शासक पार्टी और सरकारी प्रशासन के सभी लोग माननीय हैं तथा मूर्ख जनता द्वारा चुन कर भेजे जानेवाले माननीय न केवल प्रशासनिक माननीयों से ऊपर हैं, भगवान की तरह हैं. माननीय ज्यादा होने के कारण माननीय बनाम माननीय होने लगा है.
रक्षक तो भक्षक होते रहे हैं. लेकिन राजनीति ही रक्षक के भक्षक हो जाने की शिकायत करने लगे, तो लगता है माननीयों का आत्मसम्मान जाग उठा है. शासकीय कुर्सी जी ने सख्ती से कहा कि राजनीतिक माननीयों की बात भी सुनी जाये, उन्हें मान-सम्मान दिया जाये. बात तो सही है, जो हम सब के माई-बाप हैं, साम, दाम, दंड, भेद के निर्धारक हैं, हमारे समाज, धर्म, अर्थ के भाग्य-विधाता हैं, उन माननीयों की भी सुनवाई होनी चाहिए. इस हुक्मनामे से लगता है कि समाज के सरकारी रक्षक आम आदमी की सेवा में ज्यादा व्यस्त रहने लगे हैं.
साफ लगता है, वे अपने असली आकाओं की इज्जत करना, उनकी इच्छापूर्ति करना, उनकी सलाह मानकर अमल करना भूल चुके हैं. कहीं उन्हें नौकरी शुरू करते समय ली गयी कर्तव्यनिष्ठा की शपथ तो परेशान नहीं करने लगी! कहीं उन्होंने पिछले राष्ट्रीय दिवस पर देशभक्ति की कई संजीदा फिल्में एक साथ तो नहीं देख लीं!सच्चे देशप्रेम की कहानियां तो नहीं पढ़ लीं! जरूर उनके कानों को राष्ट्रप्रेम के गीत अच्छे लगने शुरू हो गये होंगे.
व्यवहारिकता तो यही सुझाती है कि प्रशासन को शासकों से नियमित मिलते रहना चाहिए. प्रशासनिक तंत्र को यह समझ होनी चाहिए कि कई किस्म की मेहनत से एक माननीय का निर्माण हो पाता है. माननीय हो जाने के बाद अभिमान जैसी जरूरी इच्छा का धारण करना स्वाभाविक है. अभिमान अधिमान लेकर ही मानता है. एक दूसरे की पूरक वस्तुएं साथ रहनी चाहिए.

Next Article

Exit mobile version