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किसान खुश नहीं है बजट से

योगेंद्र यादव अध्यक्ष, स्वराज इंडिया yyopinion@gmail.com आपने सोलह आने सच के बारे में सुना होगा, लेकिन अगर सोलह आने झूठ का नमूना देखना है, तो इस साल बजट में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा खेती और किसान के बारे में की गयी सोलह घोषणाओं को देख सकते हैं. बजट भाषण के शुरू में ही एक-दो नहीं, […]

योगेंद्र यादव
अध्यक्ष, स्वराज इंडिया
yyopinion@gmail.com
आपने सोलह आने सच के बारे में सुना होगा, लेकिन अगर सोलह आने झूठ का नमूना देखना है, तो इस साल बजट में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा खेती और किसान के बारे में की गयी सोलह घोषणाओं को देख सकते हैं.
बजट भाषण के शुरू में ही एक-दो नहीं, 16 घोषणाएं सुनकर सबको लगा कि हो न हो वित्तमंत्री ने अपना खजाना खेती और किसान के लिए खोल दिया है. लेकिन, सच यह है कि यह बजट गांव, खेती और किसान के लिए पिछले कुछ सालों में सबसे बड़ा धक्का साबित हुआ है.
बजट भाषण में एक-दो आना झूठ मिला देने की परंपरा पुरानी है. जब प्रणव मुखर्जी और पी चिदंबरम वित्तमंत्री हुआ करते थे, तब उन्होंने भी बजट के घाटे को छुपाने का काम किया था.
अरुण जेटली के जमाने में बजट में किसानों को ब्याज में छूट की मद एक खाते से दूसरे खाते में डालकर कृषि का बजट बढ़ाने का झूठा वादा हुआ था. लेकिन, इस बार तो वित्तमंत्री ने जो किया, वह बेमिसाल था. भाषण में बात की खेती और किसानी को बढ़ावा देने की, लेकिन वास्तव में किसान को मिलनेवाले पैसे में कटौती कर दी. किसान के कान में सुंदर डायलॉग दिये, लेकिन उसकी जेब से पैसा निकाल लिया.
वित्तमंत्री की 16 घोषणाओं पर एक नजर डालने पर ही स्पष्ट हो जाता है कि इनमें से कुछ घोषणाओं का केंद्र सरकार के बजट से कोई लेना देना नहीं है. मसलन, राज्यों में कृषि और भूमि संबंधी कानूनों में सुधार की घोषणा दरअसल राज्य सरकारों को सुझाव मात्र है. इसी तरह किसानों को दिये जानेवाले ऋण के लक्ष्य में बढ़ोतरी दरअसल बैंकों का काम है. इसका श्रेय सरकार को नहीं मिल सकता.
गांव में कृषि उत्पाद के संरक्षण का काम स्वयं सहायता समूह को दिया गया है. कुछ घोषणाएं तो कर दी गयीं, लेकिन वित्तमंत्री उनके लिए बजट में एक पैसा भेज देना भूल गयीं. बड़े गाजे-बाजे के साथ घोषित हुई किसान उड़ान योजना और कृषि उत्पाद के वेयरहाउस को सहयोग देने की योजना के लिए बजट में कोई मद नहीं रखी गयी है.
बागवानी और मत्स्य उत्पादन की चर्चा ऐसे हुई, मानो सरकार इस दिशा में कोई अभूतपूर्व कदम उठा रही है. लेकिन सच यह है कि बागवानी में बजट को 2225 करोड़ रुपये से बढ़ाकर केवल 2300 करोड़ रुपये किया गया और मत्स्य उत्पादन की नीली क्रांति में बजट पिछले साल के 560 करोड़ रुपये से मामूली बढ़ोतरी कर इस बार 570 करोड़ रुपये किया गया. जाहिर है, अपने बजट भाषण में हर घोषणा के पीछे कितनी राशि आवंटित की गयी, इसके बारे में चुप्पी रखने के पीछे एक गहरा राज था.
बात यहां तक रहती, तो गनीमत थी, लेकिन हकीकत इससे भी ज्यादा कड़वी है. सच यह है कि सरकार ने किसान को कुछ देने की बजाय उससे कुछ छीन लिया है. यह बजट गांव, खेती और किसान पर तीन तरफा हमला है.
सबसे पहला हमला किसान की फसल की खरीद पर है. भारतीय खाद्य निगम को फसल की खरीद के लिए जो फंड दिये जाते हैं, वह राशि पिछले साल 1.51 लाख करोड़ रुपये थी. इस बजट में उस मद में 76 हजार करोड़ की भारी कटौती हुई है. पूरे बजट की इस सबसे बड़ी कटौती पर वित्तमंत्री ने अपने भाषण में एक शब्द भी नहीं बोला. जाहिर है, अचानक ऐसी कटौती से सरकारी खरीद पर असर पड़ेगा. किसानों को आढ़ती की दया पर छोड़ दिया जायेगा. किसान की फसल की खरीद में मदद करनेवाली बाकी दोनों योजनाओं में भी कटौती की गयी है.
प्रधानमंत्री आशा योजना फसल की सरकारी खरीद को मजबूत करने के लिए बनी थी, उसमें पिछले साल के 1500 करोड़ रुपये की घटाकर 500 करोड़ किया गया है. किसी फसल का दाम गिरने पर बाजार में दखल देकर किसान की मदद करनेवाली योजना और मूल्य समर्थन योजना का बजट भी तीन हजार करोड़ से घटाकर दो हजार करोड़ कर दिया गया है. जाहिर है, इसकी मार किसानों को ही पड़ेगी. किसानों पर जो दूसरा हमला है, वह उर्वरक (फर्टिलाइजर) सब्सिडी में कटौती के माध्यम से हुआ है.
अपने भाषण में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने रासायनिक खाद में असंतुलन को समाप्त करने और उसकी जगह जैविक खाद को प्रोत्साहित करने की बात कही. लेकिन, व्यवहार में इसका अर्थ यह निकाला कि यूरिया की सब्सिडी में नौ हजार करोड़ रुपये से अधिक काट दिया गया. पहले इसके लिए सरकार खाद पर 79,996 करोड़ रुपये का अनुदान देती थी, लेकिन इस बार यह घटाकर 70,139 करोड़ तक कर दिया गया. यह भी ऐसे समय मे आया है, जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में उर्वरक का दाम बढ़ चुका है. किसान के लिए कंगाली में आटा गीला वाली स्थिति हो जायेगी.
तीसरा हमला कृषि श्रमिक के लिए जीविका के प्राथमिक स्रोत मनरेगा के लिए आवंटित धन में कटौती है. इस वित्तीय वर्ष में सरकार ने मनरेगा के लिए अनुमानित खर्च 71,000 करोड़ रुपये बताया है. विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह राशि 75 से 80 हजार करोड़ तक जायेगी.
इस साल और ज्यादा धन की जरूरत थी.
लेकिन वित्तमंत्री ने मनरेगा के लिए केवल 61,500 करोड़ रूपये आवंटित किया है. इससे काम की मांग दबायी जायेगी और ग्रामीण लोगों, खासतौर पर खेतिहर मजदूर, का एक महत्वपूर्ण आजीविका स्रोत प्रभावित होगा. मजबूरी में किसान को दूध की बिक्री का सहारा है. इसमें भी वित्त मंत्री ने दावे तो बहुत बड़े किये, लेकिन वास्तव में श्वेत क्रांति का बजट 2240 करोड़ रुपये से घटाकर 1863 करोड़ रुपये कर दिया.
यह सब उस वर्ष में हुआ है, जब सभी अर्थशास्त्री इस बात से सहमत थे कि सरकार के लिए सबसे समझदारी का काम ग्रामीण लोगों के हाथों में पैसा देना होगा, क्योंकि अर्थव्यवस्था पर इसका तीन गुना प्रभाव पड़ता है, फिर भी सरकार द्वारा ग्रामीण भारत से ही पैसा लेने के लिए चुना गया. सरकार का यह रवैया ग्रामीण भारत में आय और रोजगार की समस्या को और बढ़ायेगा. इसलिए किसानों के संगठन अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने 13 फरवरी को इस बजट के राष्ट्रव्यापी विरोध का आह्वान किया है.
(यह लेखक का निजी विचार है)

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