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सामाजिक -आर्थिक असुरक्षा

डॉ अनुज लुगुन/सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गयाanujlugun@cub.ac.in बिहार में नगर निगम के सफाईकर्मियों की हड़ताल दस दिन बाद खत्म हुई. लंबे समय तक चली उनकी हड़ताल से गली, मुहल्लों, चौक-चौराहों, सड़कों पर कचरे का अंबार फैल गया था. सरकार और सफाईकर्मियों के बीच बातचीत का सिलसिला लंबा चला. सफाईकर्मी अपनी सेवा की नियमितता […]

डॉ अनुज लुगुन/
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in

बिहार में नगर निगम के सफाईकर्मियों की हड़ताल दस दिन बाद खत्म हुई. लंबे समय तक चली उनकी हड़ताल से गली, मुहल्लों, चौक-चौराहों, सड़कों पर कचरे का अंबार फैल गया था. सरकार और सफाईकर्मियों के बीच बातचीत का सिलसिला लंबा चला. सफाईकर्मी अपनी सेवा की नियमितता को लेकर आश्वस्त होना चाहते थे. इन सफाईकर्मियों के हड़ताल का आक्रामक रूप तब सामने आया था, जब उन्होंने नगर विकास मंत्री के आवास के सामने और नगर आयुक्त के चैंबर के सामने मरे हुए जानवरों को फेंक दिया था.
यदि हम पिछले छह महीने के समय के पन्नों को पलट कर देखें, तो पायेंगे कि हमारा पूरा देश हड़ताल और प्रदर्शनों से खाली नहीं है. पिछले साल अक्टूबर में तेलंगाना राज्य सड़क परिवहन निगम के करीब पचास हजार कर्मी अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गये थे. हाल ही में देशभर के बैंककर्मियों ने भी दो दिन की हड़ताल की थी.
ट्रेड यूनियनों ने श्रम कानूनों में बदलावों के खिलाफ भारत बंद का आयोजन किया था. दिल्ली विश्वविद्यालय में अस्थायी शिक्षकों की सेवा अचानक खत्म किये जाने को लेकर वहां बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों ने लगातार कई दिनों तक शुल्क वृद्धि और शिक्षा को महंगी किये जाने के खिलाफ आंदोलन किया.
इसके कुछ समय पहले ही सासाराम में रेलवे के निजीकरण के विरोध में अचानक बिना किसी बैनर और राजनीतिक नेतृत्व के हजारों की संख्या में लोग पटरियों पर उतर आये थे. नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक पंजी के अलावा ऐसे धरना प्रदर्शनों की लंबी शृंखला है, जिनकी तरफ गंभीरता से ध्यान नहीं गया है.
धरना-प्रदर्शनों और हड़तालों की यह शृंखला अचानक नहीं बनी है और न ही इनके स्वभाव अलग हैं. अलग-अलग क्षेत्रों और भूगोल से उठ रहे इन प्रदर्शनों की पृष्ठभूमि एक ही है. रेखांकित की जाने वाली सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन प्रदर्शनों से सीधे-सीधे आम जन-समाज जुड़ा हुआ है.
वह अपनी मेहनत की सही कीमत और अपनी सामाजिक सुरक्षा की मांग कर रहा है. ये सभी आवाजें सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्रों से उठ रही हैं. सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों को बेचने और उनके निजीकरण के खिलाफ उठ रही हैं. असंतोष के इस फैलते दायरे को सही तरह से समझा जाना चाहिए.
यह पिछले ढाई दशकों में उदारीकरण के बाद धीरे-धीरे आकार लेता हुआ असंतोष है. नब्बे के दशक के उदारीकरण ने देश को संविधान के लोककल्याणकारी राज्य के विचार से अलगाना शुरू किया. विश्व अर्थव्यवस्था की होड़ में शामिल होने के लिए वैश्वीकरण की प्रक्रियाओं को स्वीकार कर लेने के बाद देश में विनिवेशीकरण को बढ़ावा दिया गया. बड़ी संख्या में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुले निवेश की छूट दी गयी.
इन प्रकियाओं का शुरूआती परिणाम सकारात्मक रहा और देश की अर्थव्यवस्था में उछाल देखने को मिला. मध्यवर्ग का विस्तार हुआ. इसके साथ ही न केवल बाजार बढ़ा, बल्कि राज्य के समानांतर बाजार ताकतवर हुआ. बाजार की बढ़ती ताकत ने राज्य के क्षेत्रों में दखल देना शुरू किया और देखते ही देखते भारत के नये व्यवसायी दुनिया की बड़ी पूंजीपतियों की सूची में शामिल होने लगे.
यह सुखद लगनेवाली बात नहीं थी क्योंकि बाजार की पूंजी ने राज्य को जनता के प्रति उसकी जिम्मेदारियों से अलग कर दिया. राज्य ने अपनी सरकारों के माध्यम से जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को बाजार के हाथों सौंप दिया. यह सौ फीसदी विदेशी निवेश और विनिवेश की प्रक्रियाओं के द्वारा सामने आया.
परिणामस्वरूप देश के सार्वजनिक उपक्रमों एवं सरकारी संपत्तियों को निजी हाथों में सरकारों के द्वारा ही बेचा जाने लगा. एयर इंडिया, भारत पेट्रोलियम, भारतीय रेल, जीवन बीमा निगम आदि समेत सार्वजनिक क्षेत्र की विभिन्न कंपनियों को बेचने या उन्हें विनिवेशित करने का निर्णय इन्हीं प्रक्रियाओं का परिणाम है. देश के एक बड़े केंद्रीय मंत्री का यह कहना कि ‘सरकार का तेल के बिजनेस में रहने का कोई बिजनेस नहीं है’, राज्य का अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होने का सबसे दुखद उदाहरण है.
जहां ठहरी हुई अर्थव्यवस्था को लुढ़कने से बचाने की कोशिश हो रही है, वहीं उसको बचाने के सरकार के तरीकों को देखकर जनता के मन में डर पैदा हो गया है. यह सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा का डर है. एक तरफ जिस तरह से आउट-सोर्सिंग कंपनियों को धड़ल्ले से सरकारी उपक्रमों में घुसाया जा रहा है, उससे कर्मचारियों के मन में डर बैठना स्वाभाविक है.
उन्हें ऐसा लगता है और अकारण नहीं लगता है कि आज या कल उनकी नौकरी संकट में पड़ सकती है. जिन कंपनियों में पहले से ऐसा होता रहा है, या जिन्हें बेचा गया या जिनमें विनिवेश किया गया, उनके उदाहरण सबके सामने है. उन उपक्रमों में छंटनी की प्रक्रियाएं हो चुकी हैं. आज सरकारी उपक्रमों और दफ्तरों में काम करनेवाले श्रमिकों में बहुत ज्यादा अंतर है.
एक ही दफ्तर या उपक्रम में सरकारी, अर्द्ध सरकारी, अस्थायी, ठेके पर काम करनेवाले, न जाने कितने ही तरह के श्रमिकों की श्रेणियां बन गयी हैं. काम की प्रवृत्ति एक जैसी है, पर उनके वेतन में भारी अंतर है. दूसरी तरफ संचार क्षेत्र में सक्रिय कंपनी मानी जानेवाली बीएसएनएल जैसी कंपनी का उदाहरण है, जिसके कर्मचारियों को अपने काम के वेतन के लिए त्रासद तरीके से इंतजार करना पड़ा. आज कई ऐसे उपक्रम हैं, जहां समय से वेतन का न मिलना, काम से बाहर कर देना, उपक्रम के निजी हाथों में चले जाना आदि का डर एक साथ बैठा हुआ है.
पिछले दशकों में रोजगार का प्रतिशत जितनी तेजी से नीचे गिरा है, उससे विद्यार्थियों और युवाओं में असुरक्षा का भाव बढ़ा है. इन सभी प्रदर्शनों से देश की बहुत बड़ी तादाद में मेहनतकश जनता जुड़ी हुई है. इस तरह हम देखें, तो समाज में अंदर ही अंदर असंतोष की बड़ी लहर बेचैन हो रही है.
(यह लेखक का निजी विचार है.)

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