काम की राजनीति सफल हुई
मनीषा प्रियम राजनीतिक विश्लेषक delhi@prabhatkhabar.in दिल्ली विधानसभा का आकार छोटा है और यह दिल्ली शहरी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती है. यह भारत का एक नायाब राज्य भी है, क्योंकि दिल्ली सरकार के पास कानून-व्यवस्था या पुलिस जैसी शक्तियां नहीं हैं. ऐसे में इसे एक कमजोर राज्य माना जा सकता है. इस चुनाव में जीतकर 2012 […]
मनीषा प्रियम
राजनीतिक विश्लेषक
delhi@prabhatkhabar.in
दिल्ली विधानसभा का आकार छोटा है और यह दिल्ली शहरी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती है. यह भारत का एक नायाब राज्य भी है, क्योंकि दिल्ली सरकार के पास कानून-व्यवस्था या पुलिस जैसी शक्तियां नहीं हैं.
ऐसे में इसे एक कमजोर राज्य माना जा सकता है. इस चुनाव में जीतकर 2012 में स्थापित एक छोटी पार्टी- आम आदमी पार्टी (आप)- लगातार तीसरी बार सरकार बनाने जा रही है. वर्ष 2015 की तरह इस दफे भी उसे भारी बहुमत मिला है. आप ने कहा था कि उसने जो काम किया है, उसके आधार पर जनता उसे वोट दे. वह बिजली, पानी, स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़े अपने कामों को गिनाती थी. वहीं केंद्र सरकार का नेतृत्व कर रही भाजपा, जिसे 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में जोरदार कामयाबी हासिल हुई थी, ने दिल्ली विधानसभा के चुनाव को एक बड़ा चुनाव बना दिया.
उसने अनुच्छेद 370 हटाने और नागरिकता संशोशन कानून को अपने प्रचार अभियान का आधार बनाया. उसे लगता था कि आम आदमी पार्टी नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हो रहे आंदोलनों का समर्थन करती है, जिससे उसे फायदा मिल सकता है. भाजपा ने इसे एक हाइ-वोल्टेज चुनाव अभियान बना दिया. हालांकि, 2017 के नगर निगम तथा 2019 के आम चुनाव में उसे बड़ी सफलता मिली थी. ऐसे में लगता था कि भाजपा इस चुनाव में भी कड़ी टक्कर दे पायेगी.
चुनाव प्रचार के दौरान 28 जनवरी से भाजपा ने अभियान को बहुत आक्रामक बना दिया. गृहमंत्री की एक रैली की तैयारी के दौरान एक मंत्री अनुराग ठाकुर ने जनसभा को संबोधित करते हुए यह संकेत दिया कि देश के गद्दारों के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए. हालांकि, उनके नारे के दूसरे हिस्से को उस सभा में मौजूद लोगों ने पूरा किया था, परंतु उक्त मंत्री उस नारे के पहले हिस्से को कई बार उद्बोधित करते रहे. दिल्ली से पार्टी के एक सांसद ने भी कुछ विवादित और अभद्र बयान दिया. अरविंद केजरीवाल को आतंकवादी तक कह दिया गया.
शाहीन बाग के बारे में लगातार बातें की गयीं और कहा गया कि इवीएम में ऐसे वोट दिया जाना चाहिए कि उसका करेंट शाहीन बाग में जाकर लगे. शाहीन बाग के आंदोलन को देश का विरोधी बताया गया. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विरोधियों पर निशाना साधते हुए बिरयानी का बार-बार उल्लेख किया. ऐसे प्रचार का मंसूबा एक ही था और वह था धार्मिक आधार पर लांछन लगाना. दूसरी ओर केजरीवाल और उनकी पार्टी का रवैया ऐसी भाषा के प्रयोग का नहीं रहा. उनका जोर पूरी तरह से काम की राजनीति पर ही बना रहा.
जब दिल्ली सरकार के स्कूलों का मखौल उड़ाया गया, तब केजरीवाल खेमे ने इसका जवाब दिया और कहा कि अगर भाजपा ऐसे आरोप लगा रही है, तो यह बच्चों और आम जनता को अपमानित करना है. यह एक तथ्य है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों से 400 बच्चे संयुक्त इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में सफल हुए हैं. यह हम सभी को पता है कि यह परीक्षा बहुत कठिन होती है. तो, नकारात्मक अभियान से केजरीवाल के काम से ध्यान नहीं बंटने दिया.
जहां तक काम की बात है, तो सबसे उल्लेखनीय बिजली के बिल का मामला है. इससे केवल गरीब घरों को फायदा नहीं मिला है, बल्कि कम मांग के मौसम में अधिक आमदनी के परिवारों की भी बचत हुई है. कई संभ्रांत इलाकों में जहां बिजली की बचत की गयी है, वहां जीरो बिल आये हैं.
बिजली दरों से जनता के बड़े हिस्से को कमोबेश फायदा हुआ है, गरीबों को तो पूरी तरह से रियायत मिली है. शिक्षा के क्षेत्र में यह भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि केजरीवाल सरकार ने 200 शिक्षकों को प्रशिक्षण के लिए देश के बाहर भेजा. इसका मतलब यह कि सिर्फ यही कोशिश नहीं हुई कि स्कूलों को ठीक किया जाये, बल्कि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई अच्छी हो, इसके लिए भी पहलकदमी की गयी.
प्रयोगशालाओं, पुस्तकालय, खेल-कूद, भवन, कंप्यूटर, यूनिफॉर्म आदि- हर पहलू पर समुचित ध्यान दिया गया है. इन प्रयासों का सबसे अच्छा परिणाम यह रहा है कि स्कूलों का माहौल बहुत रोचक बन गया है. इससे गरीब तबके के बच्चों को सम्मान के साथ अच्छी शिक्षा पाने का अवसर पैदा हुआ है तथा उनके साथ व्यवहार भी सम्माननीय हो रहा है. सरकार की कोशिशों का ही नतीजा है कि उत्तीर्ण होनेवालों छात्रों का आंकड़ा नब्बे फीसदी के आसपास पहुंच गया है, जो बहुत बड़ी उपलब्धि है.
ऐसे में दिल्ली के गरीबों को कहीं-न-कहीं भरोसा हो गया है कि ये सभी काम हमारे लिए किये जा रहे हैं और इनमें कहीं भी कोई राजनीतिक लोभ नहीं है या भ्रष्टाचार करने या पैसा बनाने की कोई नीयत नहीं है.
जनता का यह विश्वास जो इधर-उधर की बयानबाजियां हुईं, उनके असर से उठा नहीं और केवल बंटवारे की राजनीति, आप किस धर्म के हैं, किस जाति के हैं- ऐसी बातों में जनता पड़ी नहीं. इससे यह भी इंगित होता है कि मतदाता अपने वोट का इस्तेमाल अपनी सोच और अपने विवेक के हिसाब से करता है. वह मतदाता गरीब भले ही हो, लेकिन राजनीतिक चयन की प्रक्रिया में उसकी बुद्धि प्रखर रूप से संचालित होती है तथा वह उसके अनुरूप निर्णय लेने में सक्षम होता है.
इस चुनाव में जैसी उम्मीद जतायी जा रही थी, कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है. इन परिणामों में एक तरह से दिल्ली की राजनीति में उसके अस्तित्व का अंत देखा जा रहा है. लगातार दो विधानसभाओं में उसके सीटों की संख्या शून्य है और मतों में हिस्सेदारी भी बहुत ही कम हो गयी है.
न तो यह पार्टी अच्छी तैयारी के साथ चुनावी लड़ाई में उतर सकी और न ही उसके उम्मीदवार बहुत अच्छे रहे. उसने नीतिगत स्तर पर कोई ऐसी पहल भी नहीं की या दिल्ली के लिए ऐसा कार्यक्रम भी नहीं दिया, जिसकी सराहना की जा सके या जो चुनाव अभियान के विमर्श को प्रभावित कर सके.
अब यह समझ लेना चाहिए कि दिल्ली की राजनीति से कांग्रेस का सफाया ही हो गया है. इससे उबरने की दूर-दूर तक अभी कोई आशा नहीं की जा सकती है, हालांकि आस-पड़ोस के अनेक राज्यों में उनका वर्चस्व है और आगे भी बना रह सकता है. यह देखना दिलचस्प होगा कि इस चुनाव का आगामी विधानसभा चुनावों और राष्ट्रीय राजनीति पर क्या असर पड़ता है. इस बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी.
(यह लेखिका के निजी विचार हैं.)