अखबार में खबर पढ़ी कि ‘योजना व विकास विभाग कैबिनेट से लेगा मंजूरी, पीपीपी मोड के लिए बनेगी समिति’. इस खबर से यह प्रश्न उठता है कि अगर सबकुछ पीपीपी मोड में ही होना है, तो सरकार की क्या आवश्यकता है?
सरकार और उनके अधिकारी अगर इतने अक्षम हैं, तो उन्हें मोटी तनख्वाह और सुविधाएं क्यों दी जाती है? प्रश्न यह भी है कि क्या झारखंड सरकार उन 90 प्रतिशत गरीबों को स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षित आवास, जैसी जीवन की मूलभूत सुविधाएं पीपीपी मोड में उपलब्ध करायेगी? या ये सुविधाएं उन लोगों के लिए होंगी, जिन्हें सरकार या कंपनी से मेडिकल बिल का भुगतान होता है? अगर सरकार की सोच यही है, तो फिर आवाम के लिए इस निजीकरण का कोई मतलब नहीं है. तब फिर इसे निजी हाथों में सौंपने का कोई औचित्य नहीं दिखता.
डॉ वीएन शर्मा, ई-मेल से