देश में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं पर जारी गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2013 में ऐसी 823 घटनाएं हुईं, जिनमें 133 लोग मारे गये और 2,269 घायल हुए. अकेले उत्तर प्रदेश में 247 घटनाएं दर्ज हुईं, जिनमें 77 जानें गयीं.इसके बाद महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और गुजरात का स्थान है. इस वर्ष अप्रैल से जून के बीच 149 सांप्रदायिक घटनाओं की सूचना है. इसमें भी उत्तर प्रदेश सबसे आगे है. 2012 में भी उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक 118 घटनाएं हुई थीं, जिनमें 39 मौतें हुई थीं और 500 से अधिक लोग घायल हुए थे. पिछले वर्ष अगस्त-सितंबर में राज्य के मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों में 60 से अधिक लोग मारे गये थे और 50,000 से अधिक लोग विस्थापित हो गये थे.
राज्य से आ रही लगातार सांप्रदायिक तनाव की खबरें इस बात का साफ संकेत हैं कि देश का सबसे बड़ा राज्य सांप्रदायिक ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा हुआ है. चिंता की बात है कि केंद्र व राज्य सरकार तथा बड़े राजनीतिक दल परोक्ष-प्रत्यक्ष रूप से इस त्रसदी में हिस्सेदार हैं. तकरीबन 20 करोड़ आबादी वाले उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा के विस्फोट के परिणाम समूचे देश के लिए विनाशकारी हो सकते हैं.
केंद्र में काबिज भाजपा और राज्य में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी सांप्रदायिक विभाजन का राजनीतिक लाभ उठाने की जुगत में हैं, तो लोकसभा चुनाव की भारी हार के बाद बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस को कोई दिलचस्पी ही नहीं है. सांप्रदायिक राजनीतिक के अलावा प्रशासनिक स्थितियां भी शंका व अविश्वास के माहौल को गहरा करती हैं. पिछले वर्ष पुलिस महानिदेशकों के सम्मेलन में पेश एक रपट में कहा गया था कि पुलिस बल में अल्पसंख्यकों के बहुत थोड़े प्रतिनिधित्व के कारण सांप्रदायिक तनाव व हिंसा की स्थिति में अल्पसंख्यक सुरक्षा बलों पर भरोसा नहीं कर पाते और पुलिस का भी सांप्रदायिककरण तेज होता है. दंगों के दोषियों को दंडित करने में हमारी न्याय-व्यवस्था का रिकॉर्ड बहुत निराशाजनक रहा है.
कई राजनीतिक दलों ने सांप्रदायिक हिंसा पर संसद में बहस की मांग की है, जिसे सरकार नहीं मान रही है. उम्मीद है कि मोदी सरकार मसले की गंभीरता को समझे गी और सांप्रदायिकता के विरुद्ध कोई ठोस पहल करेगी.