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..ताकि ‘भारत रत्न’ की बची रहे गरिमा

देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत-रत्न’ को लेकर बीते दो दिनों में खबरों और चर्चाओं का चक्र तेजी से घूमा है. पहले सूत्रों के हवाले से खबरें आयीं कि केंद्र सरकार ने एक से ज्यादा भारत रत्न मेडल तैयार करने का ऑर्डर दिया है.फिर संभावित नामों पर अटकलों का दौर शुरू हुआ. इनमें अटल बिहारी […]

देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत-रत्न’ को लेकर बीते दो दिनों में खबरों और चर्चाओं का चक्र तेजी से घूमा है. पहले सूत्रों के हवाले से खबरें आयीं कि केंद्र सरकार ने एक से ज्यादा भारत रत्न मेडल तैयार करने का ऑर्डर दिया है.फिर संभावित नामों पर अटकलों का दौर शुरू हुआ. इनमें अटल बिहारी बाजपेयी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अलावा गीता प्रेस, गोरखपुर के हनुमान प्रसाद पोद्दार और चित्रकार राजा रवि वर्मा जैसे नाम गिनाये गये. खबर यह भी आयी कि संघ की इच्छा है कि महामना मदन मोहन मालवीय को भारत-रत्न मिले.

लगे हाथ कांग्रेस की ओर से पार्टी के संस्थापक एओ ह्यूम के अलावा भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, लाला लाजपत राय, एनी बेसेंट और गोपाल कृष्ण गोखले आदि के नाम भी सुझाये गये. दो दिनों तक चली अटकलों और चर्चाओं के बाद सूत्रों के हवाले से ही खबर आयी कि ‘सरकार ने सुभाष चंद्र को भारत रत्न देने पर विचार संबंधी खबरों का खंडन किया है’ और ‘रिजर्व बैंक की टकसाल को कई भारत रत्न मेडल तैयार करने के आर्डर को भी अफवाह बताया है.’

इस खंडन से दो दिनों तक चली गर्मागर्म बहस भले ही कुछ समय के लिए थम जाये, लेकिन यह प्रकरण लोगों के मन में कुछ अनुत्तरित सवाल छोड़ गया है. पहला तो यही कि पंद्रह अगस्त से ऐन पहले एक से ज्यादा भारत-रत्न मेडल तैयार करने संबंधी खबर और उसके साथ नेताजी व अटलजी का नाम जोड़ कर क्या कोई व्यक्ति या संस्था यह टटोलना चाहता था कि इस पर कैसी प्रतिक्रिया होती है? ऐसा अनुमान बेजा नहीं है, क्योंकि जब ये खबरें मीडिया में आयीं, तब कोई आधिकारिक खंडन नहीं आया, नेताजी के परिवार जनों की तरफ से ‘ऐतराज’ जरूर आ गया.

तृणमूल कांग्रेस की तरफ से पहली बार सांसद चुने गये नेताजी के परिवार के विद्वान सदस्य सुगतो बोस, जिन्होंने नेताजी के जीवन पर केंद्रित ‘हिज मैजेस्टी अपोनेंट’ पुस्तक लिखी है, की राय थी कि गांधी और सुभाष जैसे लोगों को तो भारत-रत्न देने या नहीं देने जैसी चर्चाओं से ऊपर रखा जाना चाहिए. यह बिल्कुल सटीक बात थी. महान स्वाधीनता सेनानियों के नाम इस तरह के सम्मान की हदों को लांघ कर किंवदंतियों की दुनिया में जा पहुंचे हैं.

वे अब भारतवासियों के मन के तर्कलोक से ज्यादा उनके भावलोक में प्रतिष्ठित हैं. आज का कोई सम्मान कितना भी बड़ा क्यों न हो, उससे उन्हें नवाजने की कोशिश कुछ वैसा ही प्रयास माना जायेगा, मानो कोई सूरज को दीया दिखा रखा हो. इसलिए संभव है कि सुगतो बोस की ऐतराज भरी प्रतिक्रिया को टटोलने के बाद ही भारत-रत्न संबंधी खबरों का खंडन भी सूत्रों के हवाले से सामने आया हो.

इतना ही नहीं, ‘भारत-रत्न’ से जुड़ा यह पूरा प्रकरण कई कारणों से किसी भी देशभक्त का मन खट्टा करने के लिए काफी है. पहली बात यह कि बीते कुछ सालों से भारत-रत्न का भी राजनीतिकरण हुआ है. इसके लिए किसी व्यक्ति को भारत संबंधी किसी खास विचार का प्रतिनिधि-व्यक्तित्व मान कर पेश किया जाता है और फिर उसे भारत रत्न देने की पैरोकारी में आवाज बुलंद की जाती है.

उस व्यक्ति को भारत-रत्न मिल जाने पर पैरोकार समूह मानता है कि भारतीय राष्ट्र-राज्य के भीतर प्रतीकात्मक रूप से एक खास विचार को स्वीकृति मिल गयी है. बीते साल भारत-रत्न के संदर्भ में सचिन तेंडुलकर बनाम ध्यानचंद विवाद में यह बात साफ तौर पर दिखी. ध्यानचंद को आजादी के तुरंत बाद के दौर के स्वाभिमानी भारत का प्रतीक माना गया, जबकि तेंडुलकर को उदारीकरण के दौर में जगत जीतने को आतुर नयी पीढ़ी की ऊर्जा का प्रतीक.

प्रतीकों की इस लड़ाई में अंतत: संदेश यही गया कि सचिन जीते और ध्यानचंद परास्त हुए. पूरी कवायद सचिन की तुलना में ध्यानचंद का कद छोटा करती जान पड़ी. दूसरी बात, भारत-रत्न जैसे सम्मान को लेकर सरकार की मंशा कुछेक हित-समूहों को संतुष्ट करने सरीखी प्रतीत नहीं होनी चाहिए. इसका एक संभावित निदान यह है कि भारत-रत्न पर निर्णय की पूरी प्रक्रिया को किसी विशेषज्ञता प्राप्त स्वायत्त समूह को सौंपा जाये और इसके लिए नामों का चयन अतीत से ज्यादा वर्तमान भारत के निर्माण में योगदान के आधार पर हो.

यह सर्वोच्च सम्मान राजनीतिज्ञों को न देकर, विज्ञान-तकनीक, अर्थव्यवस्था, समाजसेवा आदि जैसे अलग-अलग क्षेत्रों में राष्ट्र निर्माण में जुटे मनीषियों को दिया जाये. यदि इस तरह के समाधान पर गंभीरता से नहीं सोचा गया, तो भारत-रत्न पर अर्थहीन बहस और ओछी राजनीति चलती रहेगी, जिससे इस सर्वोच्च सम्मान की गरिमा कम होती जायेगी.

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