कितने मददगार होंगे मोदी!
।। संजय कुमार ।।(राजनीतिक विश्लेषक)– अगर राष्ट्रीय नेताओं के लिए क्षेत्रीय नेताओं को उनके गृह राज्य में चुनौती देना मुश्किल है, तो क्या अब तक गुजरात में सीमित रहे नरेंद्र मोदी उन्हें उनके गृह राज्यों में चुनौती दे पायेंगे? – भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर गंठबंधन सरकारों की व्यवस्था के बावजूद भारत की चुनाव […]
।। संजय कुमार ।।
(राजनीतिक विश्लेषक)
– अगर राष्ट्रीय नेताओं के लिए क्षेत्रीय नेताओं को उनके गृह राज्य में चुनौती देना मुश्किल है, तो क्या अब तक गुजरात में सीमित रहे नरेंद्र मोदी उन्हें उनके गृह राज्यों में चुनौती दे पायेंगे? –
भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर गंठबंधन सरकारों की व्यवस्था के बावजूद भारत की चुनाव प्रणाली में राष्ट्रीय दलों की भूमिका अभी कम नहीं हुई है. हालांकि इसके ‘राष्ट्रीय नेताओं’ का कद जरूर छोटा हुआ है, राज्यों में वोट हासिल करने की उनकी क्षमता में काफी कमी आयी है.
हाल के दशकों में राष्ट्रीय दलों में कई ऐसे नेता हुए, जिन्हें पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुख नेता के तौर पर देखा गया, लेकिन पार्टी छोड़ने या इससे निकाले जाने के बाद वे क्षेत्रीय नेता भी नहीं रह पाये. वे जिन राज्यों से आते हैं, वहां भी उनका चुनावी प्रदर्शन बेहद खराब रहा. ऐसे नेताओं की सूची काफी लंबी है.
उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, मध्य प्रदेश में उमा भारती, कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा, गुजरात में केशुभाई पटेल, हरियाणा में कुलदीप बिश्नोई और हिमाचल प्रदेश में महेश्वर सिंह सरीखे कई नाम उदाहरण के रूप में लिये जा सकते हैं. ये नेता अपने-अपने राज्य में कभी अपनी पार्टी के भीतर काफी लोकप्रिय रहे, लेकिन जब पार्टी से अलग होकर चुनाव लड़े और अपनी व्यक्तिगत लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश की, तो चुनावी अखाड़े में असफल साबित हुए.
इन उदाहरणों से जाहिर होता है कि राष्ट्रीय दलों के भीतर किसी नेता के मुकाबले पार्टी अधिक महत्वपूर्ण रही है. राष्ट्रीय पार्टियों के कई प्रमुख नेताओं का अस्तित्व पार्टी के कारण रहा है.
नरेंद्र मोदी को भाजपा की चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाये जाने या फिर भाजपा की ओर 2014 के आम चुनाव के लिए प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिये जाने के बाद भी उनकी क्षमता पर यह सवाल हमेशा बना रहेगा कि क्या वे भाजपा के लिए पार्टी से इतर व्यक्तिगत लोकप्रियता के आधार पर अतिरिक्त वोट हासिल करने में सक्षम होंगे? फिलहाल तो यही लगता है कि अगर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनते हैं, तो भाजपा को पारंपरिक तौर पर मिलनेवाले वोटों के अतिरिक्त शायद ही किसी और का वोट हासिल हो पायेगा. ऐसे में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करने से केवल मोदी और उनके कुछ करीबी सहयोगियों को ही फायदा होगा, जो उम्मीद कर सकते हैं कि अगर भाजपा सत्ता में आयेगी तो उन्हें महत्वपूर्ण पद मिलेंगे.
यह सही है कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने गुजरात में लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीते हैं और वे गुजरात में पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. लेकिन सीएसडीएस द्वारा 2012 के विधानसभा चुनावों के बाद कराये गये सर्वे के नतीजे इस ओर इशारा करते हैं कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के बावजूद मोदी के मुकाबले पार्टी ने नाम पर अधिक वोट पड़े थे.
2012 के विधानसभा चुनावों में जिन मतदाताओं ने भाजपा के पक्ष में वोट डाले थे, उनमें से 55 फीसदी ने माना कि अगर मोदी नेता नहीं भी होते, तब भी वे भाजपा के पक्ष में ही मतदान करते. महज 17 फीसदी लोगों ने माना कि अगर मोदी भाजपा के नेता नहीं होते, तो वे किसी दूसरे दल के पक्ष में मतदान करते. उन्होंने मोदी के नाम पर भाजपा के पक्ष में मतदान किया.
28 फीसदी मतदाता ऐसे थे, जिन्होंने इस मामले में अपनी कोई स्पष्ट राय जाहिर नहीं की. सव्रे के इन नतीजों से स्पष्ट है कि अगर गुजरात में ही पार्टी के लिए अतिरिक्त वोट हासिल करने की नरेंद्र मोदी की क्षमता सीमित है, तो दूसरे राज्यों में पार्टी के लिए अतिरिक्त वोट हासिल करने की उनकी क्षमता और भी सीमित होगी.
कुछ दशक पहले के मुकाबले भारतीय राजनीति में काफी बदलाव आया है. अब हमारे पास शायद ही ऐसा कोई राष्ट्रीय नेता है, जिसका व्यापक जनाधार हो और जवाहर लाल नेहरू तथा इंदिरा गांधी की तरह विभिन्न राज्यों में अतिरिक्त वोट हासिल करने की क्षमता रखता हो. हालिया समय में राष्ट्रीय दलों के अधिकतर लोकप्रिय नेता राष्ट्रीय तौर पर अपने पक्ष में वैसा जनसमर्थन हासिल करने में नाकाम रहे हैं, जैसा उन्होंने सोचा या दावा किया. यहां तक कि अपनी लोकप्रियता के चरम पर अटल बिहारी बाजपेयी जैसे नेता की भी राष्ट्रीय स्तर पर मतदाताओं को प्रभावित करने की क्षमता सीमित थी.
सीएसडीएस द्वारा चुनाव बाद कराये गये सर्वे में 2004 के आम चुनाव में भाजपा के पक्ष में मतदान करनेवाले करीब 58 फीसदी मतदाताओं का कहना था कि अगर अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के नेता नहीं भी होते, तब भी वे भाजपा के पक्ष में वोट डालते, जबकि 30 फीसदी मतदाताओं का कहना था कि ऐसा नहीं होने पर वे अपना मत दूसरे दल के लिए करते. शेष मतदाताओं ने इस बारे में कोई स्पष्ट राय जाहिर नहीं की.
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की राष्ट्रीय स्तर पर मतदाताओं को प्रभावित करने की क्षमता और भी सीमित है. 2004 के आम चुनाव के समय कांग्रेस के पक्ष में मतदान करनेवाले 67 फीसदी लोगों ने माना कि अगर सोनिया गांधी नेता नहीं भी होतीं तो वे कांग्रेस के पक्ष में मतदान करते, जबकि केवल 20 फीसदी ने कहा कि ऐसा नहीं होने पर उनका रुझान बदल सकता था. कांग्रेस के पक्ष में मतदान करनेवाले 13 फीसदी मतदाताओं ने इस बारे में कोई साफ राय व्यक्त नहीं की.
हालांकि देशभर में मतदाताओं को प्रभावित करने की क्षमता के मामले में सोनिया गांधी से वाजपेयी आगे रहे, पर मतदाताओं को प्रभावित करने की उनकी क्षमता भी उस स्तर तक नहीं रही, जितना कि अनुमान लगाया गया था. राष्ट्रीय दलों के तथाकथित राष्ट्रीय नेताओं के राष्ट्रीय प्रभुत्व में कमी की मुख्य वजह भारतीय राजनीति का क्षेत्रीयकरण होना है.
आज ऐसे नेता नहीं के बराबर हैं जिनका राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव हो, लेकिन क्षेत्रीय दलों में कई ऐसे नेता हैं, जो न केवल अपने राज्य में काफी लोकप्रिय हैं, बल्कि कई क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व भी इन नेताओं पर ही निर्भर है. यह सूची काफी लंबी है. बिहार में नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और रामविलास पासवान, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, ओडिशा में नवीन पटनायक, उत्तर प्रदेश में मायावती और मुलायम सिंह यादव, तमिलनाडु में जयललिता और ममता बनर्जी ऐसे ही नेता हैं. ये नेता अपने-अपने राज्यों में इतने लोकप्रिय हैं कि राष्ट्रीय दलों के नेताओं के लिए इन्हें चुनौती देना काफी मुश्किल है. क्या सोनिया गांधी, राहुल गांधी या राजनाथ सिंह, यहां तक कि आडवाणी भी करुणानिधि या जयललिता के लिए तमिलनाडु, नवीन पटनायक के लिए ओडिशा या ममता बनर्जी के लिए पश्चिम बंगाल में मुश्किल खड़ी कर सकते हैं?
ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि अगर इन राष्ट्रीय नेताओं के लिए क्षेत्रीय नेताओं को उनके गृह राज्य में चुनौती देना मुश्किल है, तो क्या अब तक गुजरात में सीमित रहे नरेंद्र मोदी उनके गृह राज्य में उन्हें चुनौती दे पाएंगे? फिलहाल भारतीय राजनीति में यह बड़ा सवाल तब तक बना रहेगा, जबतक कि इसे परखा न जाये. मेरी व्यक्तिगत राय है कि मोदी के लिए क्षेत्रीय नेताओं को चुनौती दे पाना काफी मुश्किल काम होगा.