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असहमति पर मीडिया से असहज कांग्रेस

मीडिया के असर से कितने मतदाता प्रभावित होते हैं, यह शोध का विषय हो सकता है, लेकिन यह भी सच है कि सिर्फ मीडिया के जरिये न तो चुनाव लड़े जा सकते हैं और न ही जीते जा सकते हैं.

कांग्रेस के लंबे समय तक प्रवक्ता रहे विट्ठल नरहरि गाडगिल राजनीति में आने से पहले पत्रकार थे. उनकी एक विशेषता थी. प्रेस ब्रीफिंग में अपनी बात तो वह कुशलता से कह लेते थे, लेकिन असहज सवाल पूछने पर वह बहरे हो जाते थे. उनका एक ही जवाब होता था कि उन्होंने सुना नहीं. पत्रकार दो-तीन बार सवाल दुहराता और इतने में गाडगिल साहब चाय की घोषणा कर देते. उनके जिक्र की जरूरत इंडिया गठबंधन की ओर से 14 टीवी एंकरों के कार्यक्रमों के बहिष्कार की घोषणा के बाद महसूस हो रही है.

कांग्रेस को लेकर पत्रकारिता जगत में एक सोच रही है कि कठोर से कठोर सवाल पूछने पर भी उनके नेता संतुलित ही रहेंगे. ऐसा नहीं कि कांग्रेस पहली बार विपक्ष में है. वाजपेयी के शासनकाल के दौरान भी कांग्रेस प्रवक्ताओं की ओर से कभी पत्रकारों के साथ ऐसा सलूक नहीं हुआ. कांग्रेस की ओर से पत्रकारों को संभालने की कमान तब कपिल सिब्बल, अजीत जोगी, मार्गरेट अल्वा या एस जयपाल रेड्डी के हाथों में थी.

हां, उस दौर में उसके मीडिया सेल में कार्यरत और अब भाजपा के केरल के नेता बन चुके टॉम वडक्कन राष्ट्रवादी पत्रकारों को अक्सर मीडिया ब्रीफिंग से निकाल बाहर करते रहे. कांग्रेस के प्रवक्ता तब असहज सवालों से बचने के लिए अपने खेमे के पत्रकारों को भी मुस्तैद रखा करते थे, जो बीच में ही अपने सहज सवाल लेकर लपक पड़ते थे. वामपंथी वर्चस्व के दौर में पश्चिम बंगाल में भी एक हद तक ऐसी प्रवृत्ति रही है.

उनके शासन काल में पत्रकारिता को सब अच्छा ही दिखता रहा. आज का टेलीग्राफ अखबार प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ जिस तरह की शब्दावली का इस्तेमाल करता है, वैसी शब्दावली आज भी वह न तो ममता के खिलाफ करता है और न ही अतीत में कभी वाममोर्चे के शासनकाल के खिलाफ करता रहा.

ऐसा नहीं कि कांग्रेस पत्रकारिता के लिए स्वर्गीय माहौल ही उपलब्ध कराती रही है, लेकिन यह जरूर रहा कि उसने अगर किसी पत्रकार को कभी प्रभावित करने की कोशिश की, तो वह सब पर्दे के पीछे से हुआ. रिकॉर्ड पर कांग्रेसी नेता संयमित रूख ही अपनाते रहे. आखिर कांग्रेस के रुख में ऐसा बदलाव क्यों आया. गंभीरता से विचार करें, तो इसके पीछे कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व के सलाहकारों की राय ही नजर आती है.

मल्लिकार्जुन खरगे भले ही कांग्रेस के अध्यक्ष हों, लेकिन कांग्रेस की असल कमान अब भी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के ही हाथ है. उनके ज्यादातर सलाहकार दिल्ली के लाल दुर्ग कहे जाने वाले जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अतिवादी वामपंथी राजनीति करते रहे लोग हैं. उनकी सोच साफ है. अगर आप उनके मुताबिक बात करें, तो आप पत्रकार हैं, अन्यथा सांप्रदायिक हैं, चरण चुंबक हैं. राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान जब दिल्ली में लाल किला पहुंचे थे, तो वहां जुटे प्रेस पर उन्होंने तंज किया था. तब उन्होंने कहा था कि आप लोग क्यों आये हो, क्योंकि मेरी बात तो दिखाओगे नहीं. राहुल कई बार ऐसा कह चुके हैं. हालांकि उनका कथन अर्ध सत्य है. उन्हें भी खूब कवरेज मिलती है.

एंकरों के बहिष्कार से कांग्रेस एक गलत परिपाटी शुरू कर रही है. कांग्रेस, उसके नेता और उसके समर्थक बौद्धिकों को जब भी भाजपा पर हमला करना होता है, तो उसे सांप्रदायिक के साथ ही अलोकतांत्रिक बताते नहीं थकते. ऐसे में उन्हें नेहरू और उनकी लोकतांत्रिक सोच खूब याद आती है. वे अक्सर नेहरू द्वारा असहमति को सम्मान देने का उदाहरण देते रहते हैं. सवाल यह है कि एंकरों का बहिष्कार क्या असहमति को सम्मान देने का तरीका है.

इंडिया में शामिल समाजवादी खेमा पत्रकारिता से सहज रिश्ता रखने वाला रहा है. नीतीश कुमार अपने खिलाफ लिखी या बोली चीजों को भुला नहीं पाते, लेकिन कुल मिला कर अपने खिलाफ रिपोर्ट करने या बोलने वाले पत्रकार से मिलने पर कभी तीखा व्यवहार नहीं करते रहे. लालू यादव के शासनकाल की गड़बड़ियों को मीडिया ने ही उछाला. तब वे मीडिया पर बरसते थे, लेकिन पत्रकारों से अशोभन व्यवहार उनकी ओर से कम ही हुआ.

हां, शिवसेना का रुख हमेशा आक्रामक रहा है. एंकर बहिष्कार की नीति एक तरह से पत्रकारिता को लेकर कांग्रेस के भावी रूख को भी सामने लाती है. साफ है कि अगर उसकी सत्ता रही तो वह अपने खिलाफ बोलने वाले लोगों को दंडित भी करेगी. दंडित करने का तरीका क्या होगा, उसे समझने के लिए राहुल गांधी की पेरिस में हाल ही में कही गयी बात को ध्यान में रखना होगा, जिसका भाव यह रहा कि सत्ता में आने पर वे सबको देख लेंगे.

एंकर बहिष्कार से ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को आगामी चुनाव में मीडिया के जरिए ही जीत मिलेगी. मीडिया के असर से कितने मतदाता प्रभावित होते हैं, यह शोध का विषय हो सकता है, लेकिन यह भी सच है कि सिर्फ मीडिया के जरिये न तो चुनाव लड़े जा सकते हैं और न ही जीते जा सकते हैं, लेकिन एक बात तय है कि ऐसे फैसलों से राजनीतिक दलों में पत्रकारों को निर्देश देने की प्रवृत्ति जरूर पैदा होगी. यह न तो लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा, न ही पत्रकारिता के लिए.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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