सूर्योदय में उम्मीद की रोशनी नहीं
जब से अखबार के लिए काम करना शुरू किया है, तब से छठ पूजा की सुबह के अर्घ को छोड़ दें, तो शायद ही कभी सूर्योदय देखा हो. वैसे भी शहरों में सूर्योदय देखना लोगों की दिनचर्या में शामिल नहीं माना जाता. फिर भी, कुछ लोग तो जग ही जाते हैं. एक दिन मैं भी […]
जब से अखबार के लिए काम करना शुरू किया है, तब से छठ पूजा की सुबह के अर्घ को छोड़ दें, तो शायद ही कभी सूर्योदय देखा हो. वैसे भी शहरों में सूर्योदय देखना लोगों की दिनचर्या में शामिल नहीं माना जाता. फिर भी, कुछ लोग तो जग ही जाते हैं. एक दिन मैं भी पांच बजे के आसपास जग गया. कारण ठीक से याद नहीं. सोचा थोड़ी हवाखोरी की जाये. इसी बहाने सूर्योदय भी देख लूंगा.
बाहर निकला तो अपने शहर की पुरानी परंपरा देखने को मिली. लोगों को फल्गु व विष्णुपद मंदिर की तरफ जाते देखा. मैं भी चल दिया. रास्ते में दूध, फूल व सब्जी आदि की दुकानों पर लोगों की भीड़. ठेलों पर पूड़ी-जलेबी के लिए मारामारी. चाय की दुकान पर चाय की चुस्की के साथ ‘महागंठबंधन’ पर स्वयं-भू पैनलिस्टों की गरमागरम बहस. इन्हीं चीजों से तो सुबह की शोभा होती है. लेकिन, तभी इस मनोरम दृश्य में कुछ असंगत सा दिखा. सड़क पर कुछ बच्चों को देखा, जो कंधे पर बड़ा सा मटमैला बोरा लिये कूड़े-कचरे में कुछ तलाश रहे थे. उनमें से अधिकतर की उम्र इतनी थी, जिस उम्र के बच्चों को सरकार मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा देने की बात करती है. उन बच्चों को देख कर लगा कि संविधान के अनुच्छेद, सरकारी घोषणाएं व गैर सरकारी संस्थाओं के उद्देश्य व आदर्श कितने खोखले हैं. उनकी बातें मोटी-मोटी किताबों व फाइलों तक में ही क्यों सीमित रहती हैं? खैर, मैं चाय की एक दुकान पर बैठे उन बच्चों को प्लास्टिक की बोतलें, पॉलीथिन आदि चुनते देख रहा था. उनमें से एक बच्चे को बुलाया. इस पर उसे जितना आश्चर्य हुआ, उतनी ही लोगों को हैरानी. वह सकुचाते हुए मेरे पास तो आया, लेकिन वह बार-बार अपने साथियों को ही देख रहा था. शायद उसे यह लग रहा हो कि वे उससे ज्यादा बोतलें व पॉलीथिन न चुन लें. मैं उससे लगातार बात करने की कोशिश कर रहा था.
लेकिन, वह मेरे सवालों के घेरे से बाहर निकलना चाह रहा था. मैंने उससे पूछा- चाय पियोगे? उसने हां में सिर हिलाया. मैंने चायवाले से एक चाय देने को कहा. बिस्कुट के लिए भी पूछा- उसने मना नहीं किया. धीरे-धीरे वह खुलने लगा. उसकी बातों से अहसास हुआ कि हम चाहे जितना व्यवस्था परिवर्तन का स्वांग भर लें, बदलाव कोसों दूर है. पिछले दिनों सूबे के एक मंत्री के बालश्रम पर दिये गये भाषण को पढ़ा. बड़ी-बड़ी बातें. काश! उनके शब्द प्रभावकारी होते. उनकी बातें गया की सड़कों पर खाक छाननेवाले बच्चों की तकदीर नहीं बदल सकतीं. उस बच्चे को देख कर कई सारी मनोवृत्तियां सामने आयीं. बाद में अहसास हुआ कि जिस सूर्योदय को देखने मैं निकला था, दरअसल वह सूर्यास्त है. देश के भविष्य का. सोचा, अच्छा है मैं सूर्योदय के बाद ही उठता हूं. कम-से-कम देश के भविष्य को यों ही भटकते तो नहीं देखता. फिर, यह सोच भी सालता है कि केवल आंखें बंद कर लेने भर से रात नहीं आ जाती.
अजय पांडेय
प्रभात खबर, गया
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