कैसे ऊंचा हो चेतना का स्तर!
जिन राज्यों में डायन करार दिये जाने के कारण महिलाएं प्रताड़ित होती हैं, उन राज्यों ने इसके खिलाफ कानून बना लिया है, लेकिन इसके उन्मूलन के लिए कानून अपर्याप्त है. साथ ही, कानून का सख्ती से पालन भी होना चाहिए. केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने पिछले दिनों देशभर में जादू-टोना एवं […]
जिन राज्यों में डायन करार दिये जाने के कारण महिलाएं प्रताड़ित होती हैं, उन राज्यों ने इसके खिलाफ कानून बना लिया है, लेकिन इसके उन्मूलन के लिए कानून अपर्याप्त है. साथ ही, कानून का सख्ती से पालन भी होना चाहिए.
केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने पिछले दिनों देशभर में जादू-टोना एवं डायन के नाम पर होनेवाली हत्याओं का ब्योरा पेश किया. उसके मुताबिक पिछले साल डायन के नाम पर 160 महिलाएं मारी गयीं तथा इस साल मार्च तक 8 महिलाएं मारी जा चुकी हैं. इस मामले में गत वर्ष 55 हत्याओं के साथ झारखंड पहले स्थान पर था, तो दूसरे पर 24 हत्याओं के साथ ओड़िशा, तीसरे पर तमिलनाडु तथा चौथे पर आंध प्रदेश था. हालांकि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि स्थानों पर जहां महिलाओं के खिलाफ यौनिक हिंसा की घटनाएं बड़ी तादाद में होती हैं, वहां डायन हत्या जैसी घटना का कोई उदाहरण मीडिया या राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के माध्यम से सामने नहीं आया है. कई राज्यों में जहां स्त्री विरोधी मानसिकता है तथा हिंसा भी खूब होती है, पिछड़ापन भी है, इसके बावजूद डायन हत्या के नाम पर घटनाएं सामने नहीं आयी हैं. सवाल है कि क्या हत्या या उत्पीड़न के जो उदाहरण लोग आसपास देखते हैं, उसे ही आजमाते जाते हैं?
मूल मसला यह है कि आज इतनी बड़ी संख्या में हिंसाचार तथा हत्याओं से निपटने के लिए हमारी सरकार तथा समाज ने क्या तैयारी की है. केंद्र सरकार कहती है कि इन अपराधों से निपटने तथा कानून व्यवस्था की जिम्मेवारी राज्य सरकारों की है. ये हत्याएं पहली बार नहीं होने लगी हैं, लेकिन इनसे निपटने की जवाबदेही तथा तैयारी का नितांत अभाव दिखता है. कुछ अध्ययनों तथा सर्वेक्षणों से यह जरूर खुलासा हुआ है कि डायन के नाम पर होनेवाली हत्याओं का कारण महज जादू-टोना नहीं, बल्कि संपत्ति हथियाने सहित अन्य विवादों के कारण भी होता है. लेकिन निश्चित तौर पर पिछड़ापन और अंधविश्वास भी एक कारण है, जिसमें हत्या के अलावा रोजाना बड़े पैमाने पर महिलाएं प्रताड़ना की शिकार होती हैं. सरकार ने नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के हवाले से पिछले तीन साल का आंकड़ा भी बताया, जिसमें 2011, 2012 और 2013 में कुल 519 महिलाओं की हत्या डायन के नाम पर हुई.
राष्ट्रीय महिला आयोग कुछ जागरूकता कार्यशालाओं का आयोजन कर देता है, लेकिन लोग ऐसी मानसिकता में क्यों हैं तथा उनके मानसिक विकास में क्या बाधाएं हैं, क्या यह बात सरकारों को पता लगाना असंभव है? जिन राज्यों में डायन करार दिये जाने के कारण महिलाएं प्रताड़ित होती हैं उन राज्यों ने इसके खिलाफ कानून बना लिया है, लेकिन इसके उन्मूलन के लिए कानून अपर्याप्त है. यद्यपि ऐसे सामाजिक अपराधों के खिलाफ कानून जरूरी है और उसका सख्ती से पालन भी होना चाहिए.
छत्तीसगढ़ में टोनही प्रथा महिलाओं को प्रताड़ित करती है. एक अखबार के संवाददाता ने अपने एक रिपोर्ताज में बताया कि महिला को टोनही करार देकर उस पर जुल्म ढाया जाता है. 2005 में जब टोनही प्रताड़ना निवारण कानून बना, तो महिलाओं की क्रूर शारीरिक हिंसा में कमी आयी. समस्या के मद्देनजर सरकार ने कानून बनाया, यह सराहनीय था, लेकिन उसका प्रचार-प्रसार भी जरूरी है. राज्य महिला आयोग के आंकड़ों की मानें, तो 2005 के अक्तूबर तक महिलाओं के खिलाफ विभिन्न अपराधों के 2,675 मामलों में 36 मामले टोनही प्रताड़ना के थे.
जहां तक जादू-टोना एवं अंधविश्वास की बात है तो महाराष्ट्र के चर्चित अंधश्रद्घा निर्मूलन समिति के अग्रणी डा नरेंद्र दाभोलकर की पिछले साल हत्या इसी के लिए कर दी गयी, क्योंकि वे इसके खिलाफ मुहिम छेड़े हुए थे तथा महाराष्ट्र विधानसभा में एक बिल विचाराधीन था, जिसे पारित करने के लिए वह जोर दे रहे थे. उनकी हत्या के बाद महाराष्ट्र सरकार ने इस बिल को पारित किया. इस तरह का कानून देश के पैमाने पर बनना चाहिए, लेकिन सरकारों को क्या पड़ी है कि वह लोगों को जागरूक बनाने में रुचि लेने लगे. दूसरी तरफ हम यह भी देख सकते हैं कि समाज के पैमाने पर भारत जनविज्ञान जत्था तथा इसी तरह के अन्य समूहों एवं समाज सुधार मुहिम में लगे अभियानों में भारी कमी आयी है. एक तरफ तो लगता है कि लोग अब खुद जागरूक हो रहे हैं, लेकिन वहीं पर वे बर्बरता की नयी नयी मिसाल भी कायम करते जा रहे हैं.
ऐसे अपराधों की रोकथाम के कानूनी उपाय के साथ ही पूरे समाज के चेतना के स्तर को कैसे ऊंचा उठाना है, इस बारे में सोचना होगा. सिर्फ इसी समस्या के लिए नहीं, बल्कि विभिन्न दूसरी समस्याओं के लिए भी जरूरी है कि व्यक्ति के व्यक्तिगत अधिकारों तथा गरिमा को सुुनिश्चित किया जाये. सामूहिकता तथा सामुदायिकता की भावना एवं संस्कृति की आड़ में अक्सर झुंडवादी मनोवृत्ति भी घर करने लगती है. इसमें तर्क, विवेक और सीमाओं से परे जाकर कथित तौर पर ‘समाज’ और लोगों की राय की बात होने लगती है, पूरी बिरादरी या गांव लोगों के निजी मामलों में फैसला सुनाने के लिए पंचायतें आयोजित कर अपने ही स्तर से प्रताड़ना भी दे डालते हैं. इस बारे में गंभीरता से सोचना होगा.
अंजलि सिन्हा
महिला मामलों की जानकार
anjali.sinha1@gmail.com