आजादी की सीख और आगे की राह
पंद्रह अगस्त का दिन स्वयं से यह सवाल पूछने की जरूरी वजह बन कर सामने आता है कि ‘हम कौन थे, क्या हो गये, और क्या होंगे अभी.’ यह भारतीय राष्ट्रीयता का बीज-प्रश्न है. ‘पंद्रह अगस्त’- आजादी का दिन होने से यह शब्द गर्व का बोधक तो है ही, लेकिन आजादी अपने साथ जिम्मेदारी लेकर […]
पंद्रह अगस्त का दिन स्वयं से यह सवाल पूछने की जरूरी वजह बन कर सामने आता है कि ‘हम कौन थे, क्या हो गये, और क्या होंगे अभी.’ यह भारतीय राष्ट्रीयता का बीज-प्रश्न है.
‘पंद्रह अगस्त’- आजादी का दिन होने से यह शब्द गर्व का बोधक तो है ही, लेकिन आजादी अपने साथ जिम्मेदारी लेकर भी आती है. इसलिए, यह शब्द बतौर राष्ट्र हमारे लिए समीक्षा का भी सूचक है. पंद्रह अगस्त का दिन स्वयं से यह सवाल पूछने की जरूरी वजह बन कर सामने आता है कि ‘हम कौन थे, क्या हो गये, और क्या होंगे अभी.’ यह भारतीय राष्ट्रीयता का बीज-प्रश्न है और इसका उत्तर बहुत कुछ उत्तर देनेवाले की अपने अतीत की कल्पना तथा भविष्य की आकांक्षा पर निर्भर करता है, जो वर्तमान में उसकी अपनी मौजूदगी और उस मौजूदगी को हासिल हैसियत से तय होती है. इसीलिए, न तो आजादी की लड़ाई के दौरान इस प्रश्न का कोई सर्व-सम्मत उत्तर मिला और न ही आज इसका कोई बंधा हुआ उत्तर देना संभव है. तब किसी को लगता था कि सांस्कृतिक आधार पर भारत भले एक हो, पर इस संस्कृति की सामाजिक भूमि बहुत उबड़-खाबड़ है. उस सोच के मुताबिक, जाति-भेद से भरे भारत में जब तक सामाजिक बराबरी कायम नहीं हो जाती, तब तक राजनीतिक आजादी की बात स्थगित ही रहे तो अच्छा. इससे बिल्कुल अलग कोई और कहता था कि भारत एक राष्ट्र है ही नहीं, बल्कि ऐसा अखाड़ा है, जहां धर्म-आधारित दो राष्ट्रीयताएं एक-दूसरे से अलग होने के लिए परस्पर संघर्षरत हैं. भारत विषयक संकल्पना का एक छोर और था, जिस पर खड़े लोग दुनिया के इतिहास को अनिवार्य रूप से वर्ग-संघर्ष का इतिहास मानते थे. स्वतंत्रता संघर्ष को लेकर वे सशंकित थे. उन्हें आजादी की लड़ाई का नेतृत्व कर रहे नवोदित बुजरुआ वर्ग पर भरोसा न था. भारत विषयक परस्पर आड़ी-तिरछी संकल्पनाओं के बीच एक चौरस और खुली जमीन तलाशने की कोशिश कर रही थी गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस. इस संदर्भ में कांग्रेस का अपना कोई विशेष विचार नहीं था, बल्कि ‘विरुद्धों के सामंजस्य’ का प्रयास था. गांधी की कांग्रेस भारत विषयक परस्पर विरोधी संकल्पनाओं में अंटे अतिरेकों से इतर उनमें बसी सच्चाई के अंशों के योग से भारतीयता की मूर्ति तैयार करना चाहती थी. ऐसी एक मूर्ति जिसके पैर पीछे (अतीत) की ओर ना मुड़े हों, बल्कि जिनमें रास्ता बनाने और आगे बढ़ने का आत्मविश्वास हो.
विचारों के परस्पर संघर्ष की एक मर्मातक परिणति आजादी की विहान-विला में देखने को मिली. जो समझ सामाजिक बराबरी को कायम किये बगैर राजनीतिक आजादी को व्यर्थ मानती थी, उसी समझ के सर्वोच्च प्रतिनिधि के हाथों इस देश का संविधान तैयार हुआ. उसने सवाल पूछा- राजनीति में हम ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ का सिद्धांत स्वीकार कर रहे हैं, जबकि सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम अपने आर्थिक-सामाजिक संरचना की वजह से ‘एक व्यक्ति- एक मोल’ के सिद्धांत को नकारते रहेंगे. अंतर्विरोध का यह जीवन हम कितने लंबे समय तक जीना जारी रखेंगे? बहरहाल, राजनीतिक और सामाजिक जीवन के अंतर्विरोध को समाप्त करने वाले औजार के रूप में हमें संविधान हासिल हो चुका था. जो भारत को दो धर्म-आधारित राष्ट्रीयताओं की असहज इकाई मानते थे, उन्होंने देखा कि इस भाव के उन्माद में देश बंटा और गांधी की हत्या हुई, लेकिन भारत ने शुभ के प्रति अपना श्रद्धाभाव नहीं गंवाया, उसने अपने को धर्म-आधारित राज्य घोषित नहीं किया, बल्कि अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक जीवन की रक्षा की गारंटी दी. और, जिन्हें लगता था कि देश पर किसान-मजदूरों का शासन स्थापित होना चाहिए, उन्होंने पहले तो घोषित किया कि ‘यह आजादी झूठी है’, लेकिन जल्दी ही उनके एक बड़े हिस्से को यह बात समझ आयी कि देश को बदलने का रास्ता संसद के गलियारों से निकलता है, बंदूक की नली से नहीं.
आजादी से अब तक के इतिहास को सामने रख कर हम गर्व से कह सकते हैं कि भारत विषयक विचार के भीतर तीन बीज प्रत्यय हैं- एक, सभी मामलों में राज्यसत्ता की सर्वोच्चता. भारत के लिए यह विचार अतीत की तुलना में एकदम ही अनूठा है. दूसरा, राज्यसत्ता को चलाने के लिए लोकतांत्रिक राजनीति, जो समाज के हर हिस्से को अपना भविष्य संवारने के लिए बराबरी के होड़ की गारंटी देती है. और तीसरा, यह नैतिकता कि किसी भी फैसले के वक्त ‘कतार में खड़े अंतिम जन’ का हित सर्वोपरि माना जाये. आज जब विश्वविजयी होने के सपने संजोये भारत तीव्र विकास की बुलेट ट्रेन पर सवार होना चाहता है, तो आजादी के संघर्ष से निकले इन तीन बीज प्रत्ययों को याद रखना गाड़ी को पटरी पर संतुलित रूप से गतिमान रखने के लिए बहुत जरूरी है.