आजादी के उन मूल्यों का क्या हुआ!

नयी सरकार आने के दो-ढाई महीनों में ही देशवासियों में यह भाव घर करने लगा है कि सरकारें किसी भी रंग, रूप, डंडे या झंडे की हों, शोषितों व वंचितों को देने के लिए उनकी झोली में कुछ खास नहीं होता. अब से 67 साल पहले आज के दिन जो आजादी लाखों निदरेष देशवासियों की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 15, 2014 8:06 AM

नयी सरकार आने के दो-ढाई महीनों में ही देशवासियों में यह भाव घर करने लगा है कि सरकारें किसी भी रंग, रूप, डंडे या झंडे की हों, शोषितों व वंचितों को देने के लिए उनकी झोली में कुछ खास नहीं होता.

अब से 67 साल पहले आज के दिन जो आजादी लाखों निदरेष देशवासियों की लाशों पर चलती, करोड़ों लोगों को बेघरबार व विस्थापित और देश को विभाजित करती हुई हमारे पास पहुंची थी, जाहिर है कि उसे प्रश्नांकित होते देर नहीं लगनी थी. तभी तो उससे मोहभंग के कगार तक जा पहुंचे महान शायर फैज़ अहमद फैज़ को जल्दी ही पूछना पड़ा था-कौन आजाद हुआ, किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी? उन्हें जवाब मिल जाता और हम लंबे स्वाधीनता आंदोलन से अजिर्त समता, बंधुत्व और न्याय आदि के लोकतांत्रिक मूल्यों का लगातार क्षरण देखते रहने को अभिशप्त न होते, तो आगे चल कर बाबा नागाजरुन को भी फैज़ की ही तर्ज पर ‘किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है’ और ‘कौन यहां पस्त है, कौन यहां मस्त है’ जैसे असुविधाजनक सवाल नहीं करने पड़ते.

लेकिन, जिन कर्णधारों पर आजादी का तकिया था, उन्होंने ऐसे सवालों के जवाब देने के बजाय उनकी अनसुनी की परंपरा शुरू कर दी और स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस तक पर विचलित कर देनेवाला आचरण करने लगे तो क्षुब्ध होकर रघुवीर सहाय को भी प्रश्नाकुल होना पड़ा- मखमल टमटम बल्लम तुरही पगड़ी छत्र चंवर के साथ, तोप छुड़ा कर ढोल बजा कर जय-जय कौन कराता है? जनकवि अदम गोंडवी ने इस आजादी को सीधे कठघरे में खड़ा कर डाला- सौ में सत्तर आदमी जब देश में नाशाद है, दिल पे रखके हाथ कहिए देश ये आजाद है?

अनसुनी की वह परंपरा बहुत समृद्घ न हो गयी होती, तो हमारे नये प्रधानमंत्री को लाल किले की प्राचीर से पहली बार तिरंगा फहराते वक्त ये सवाल खासे बेचैन करते. मसलन, नाशादों की जो प्रजाति अब तक खत्म हो जानी चाहिए थी, वह इतनी बड़ी संख्या में हमारे सामने क्यों खड़ी है कि सरकारी तंत्र उसकी संख्या को ही विवादित करके रख दे? क्यों सांप्रदायिक हिंसा के जिन्न बार-बार बोतल से बाहर निकल आते हैं? क्यों हमारी आजादी दलित-वंचित तबकों के विरुद्घ खाये-पिये-अघाये वर्गो के हथियार में बदल गयी. क्यों आज भी अनेक क्षेत्रों में यह तथ्य जब-तब आम होता ही रहता है कि अपने प्राकृतिक साधनों तक की लूट से त्रस्त देश अरबों-खरबों की सरकारी योजनाएं डकार कर भी न अघानेवालों की भूख तो नहीं ही मिटा पा रहा, दो रोटियों से तुष्ट हो जानेवालों की बारी की प्रतीक्षा लंबी होने से भी नहीं रोक पा रहा?

सच पूछिये तो आजादी को खतरा यहीं, सवालों को लेकर कर्णधारों की इसी आपराधिक निश्चिंतता से शुरू होता है. कहां तो हमारे संविधान में समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म आदि की स्वतंत्रता व अवसर की समता प्राप्त कराने की बात कही गयी थी. उसके चौथे भाग में राज्य के निर्देशक तत्वों में कहा गया था कि अर्थव्यवस्था इस प्रकार चले, जिससे धन व उत्पादन के साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो. इस बात पर भी जोर दिया गया था कि राज्य अपनी जनता के दुर्बल वर्गो के शिक्षा व अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्घि करेगा और सामाजिक अन्याय व शोषण से उनकी रक्षा करेगा. और कहां अब उद्योगपतियों व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ नेताओं व माफियाओं की श्री व समृद्घि बढ़ाने में बढ़-चढ़ कर ‘उपयोगी’ सिद्घ हो रही हमारी आजादी अपने सच्चे लोककल्याणकारी रूप को भी नहीं बचा पा रही!

संविधान के समता जैसे सबसे बड़े, जरूरी मूल्य की तो इस दौरान इतनी दुर्गति की गयी है कि लगता है कि सत्ताधीशों का इरादा मौका पाते ही उसकी हत्या कर देने का हो! हमने कई सरकारें बदल कर देख लीं, उन्होंने अब तक विषमता बढ़ानेवाले कृत्य ही किये हैं और नागरिकों के बड़े समुदाय को तमाम निर्बलताओं के साथ उसके हाल पर छोड़ दिया है. ‘नये हिंद का नया ढंग हो, नीति निराली, मुट्ठी भर लोगों के चेहरों पर हो लाली’ की राह पर उनकी तेज रफ्तार यात्र के बीच आम आदमी गहरे तिरस्कार से पीड़ित है और उसे लगता है कि देश में संसद समेत सारा तंत्र ‘गणपतियों’ या अरबपतियों के लिए होकर रह गया है. इसका प्रमाण है कि देश की विकास दर जहां दो अंकों में होने को तरसती रहती है, वहीं अरबपतियों व ‘गणपतियों’ की शतप्रतिशत से भी कई गुना ज्यादा है.

दुख की बात है कि हमारी नयी सरकार भी रीति-नीति के स्तर पर किसी और दिशा में जाती नहीं दिखती. उसके दो-ढाई महीनों में ही देशवासियों में यह भाव घर करने लगा है कि सरकारें किसी भी रंग, रूप, डंडे या झंडे की हों, शोषितों व वंचितों को देने के लिए उनकी झोली में कुछ खास नहीं होता. ऐसी गहराती हुई निराशा समूची आजादी को निर्थक करके रख दे, देश इसके पहले उसके मूल्यों की रक्षा के लिए जाग उठे तो बेहतर. वरना उन मूल्यों का जैसा विनिवेश किया जा रहा है, उससे हर तरफ खल ही बली होंगे और खलबली ही मचेगी.

कृष्ण प्रताप सिंह

वरिष्ठ पत्रकार

kp_faizabad@yahoo.com

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