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सबकी आंखें बिहार पर टिकी हैं

सामाजार्थिक न्याय का एजेंडा सबसे बड़ा एजेंडा है, जिसमें सब कुछ समाहित होगा. सामाजिक, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक चेतना, सामाजार्थिक न्याय की दिशा में बिहार की पहल और सक्रियता समय की मांग है. लोकतंत्र की शक्ति और खूबसूरती विपक्ष की शक्ति और सक्रियता से जुड़ी है. केंद्र में पचीस वर्ष बाद स्पष्ट बहुमत की सरकार है. […]

सामाजार्थिक न्याय का एजेंडा सबसे बड़ा एजेंडा है, जिसमें सब कुछ समाहित होगा. सामाजिक, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक चेतना, सामाजार्थिक न्याय की दिशा में बिहार की पहल और सक्रियता समय की मांग है.

लोकतंत्र की शक्ति और खूबसूरती विपक्ष की शक्ति और सक्रियता से जुड़ी है. केंद्र में पचीस वर्ष बाद स्पष्ट बहुमत की सरकार है. अटल-आडवाणी युग समाप्त हो चुका है और मोदी-शाह युग का आरंभ हो चुका है. संसदीय चुनाव में मोदी ने कांग्रेस-मुक्त भारत की बात कही थी. अब अमित शाह इसे दोहरा रहे हैं, जब कांग्रेस धरा-ध्वस्त हो चुकी है. संसद में वह विपक्षी दल की भी भूमिका में नहीं है. देश में फिलहाल एक ही प्रमुख राष्ट्रीय दल है-भाजपा. कांग्रेस राष्ट्रीय दल है, पर दल में अंतर्कलह जारी है. जयललिता, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, शिबू सोरेन, मुलायम में उस क्षमता, उत्साह और लगन का अभाव है, जिससे एक सशक्त विपक्ष, जो लोकतंत्र के लिए अत्यावश्यक है, की उपस्थिति बन सके. कांग्रेस-मुक्त भारत की बात करना विपक्ष-मुक्त भारत की भी बात करना है. लोकतंत्र केवल संख्याओं का खेल नहीं है. वह एक जीवन-मूल्य भी है. लालू-नीतीश मिलन मात्र ‘मित्र-मिलन’ नहीं है. यह एक जरूरी कदम भी है.

लालू-नीतीश की राजनीति जेपी आंदोलन से आरंभ हुई थी. 1977 की जनता पार्टी चार बेमेल पार्टियों से बनी थी, जो अंतर्विरोधों और तीन नेताओं की निजी महत्वाकांक्षाओं के कारण टिक नहीं सकी. वीपी सिंह का राष्ट्रीय मोरचा 11 महीने बाद बिखर गया. चंद्रशेखर मात्र चार महीने प्रधानमंत्री रहे. टूटने-बिखरने की प्रक्रिया क्षेत्रीय दलों के बीच जारी रही. अस्सी के दशक के मध्य से विश्व-परिदृश्य बदलने लगा था. शीतयुद्ध समाप्त हो चुका था और पूंजीवाद एक नये रूप में प्रस्तुत हो चुका था. उसके लिए विचारधारा का कोई महत्व नहीं था. ‘विचारधारा का अंत’ की बात सुनियोजित ढंग से पचास के दशक से ही की जाने लगी थी. लोहिया-जेपी के बाद समाजवादी विचारधारा की बात करनेवालों की मुख्य चिंता येन-केन प्रकारेण सत्ता-प्राप्ति थी. केंद्र में भाजपा की पहली सरकार मात्र 13 दिन टिकी. 1998 में एक वोट के कारण उसकी सरकार गिरी. राजग एक और दो में अंतर है. यह संप्रग एक और दो के अंतर से कहीं भिन्न है. मंडल 2 की बात करना आत्मघाती होगा. राजग 1 में कई दल एक साथ थे. वहां वैचारिक एकता नहीं थी. राजग 2 में भाजपा स्पष्ट बहुमत में है. भाजपा कभी अपने वैचारिक-सैद्धांतिक आधार से नहीं डिगी. वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनीतिक दल है और संघ सावरकर-गोलवलकर की वैचारिकी-सैद्धांतिकी के साथ है.

बीस वर्ष बाद लालू-नीतीश मिलन, बिहार के लिए ही नहीं, देश के लिए भी एक बड़ा राजनीतिक संकेत है. यह सच है कि इन दो नेताओं को प्रांत में मुख्यत: अपने राजनीतिक अस्तित्व-भविष्य की चिंता है, पर इसे केवल इसी रूप में देखना गलत होगा. सोलहवें लोकसभा चुनाव में भाजपा और उसके दो सहयोगी दलों- लोजपा और रालोसपा (राष्ट्रीय लोक समता पार्टी) को बिहार में 38.8 प्रतिशत वोट मिले थे और इन तीन दलों ने मिल कर 40 में से 31 सीटें जीती थीं. राजद-कांग्रेस गंठबंधन को 29.8 और जदयू को 15.8 प्रतिशत वोट मिले थे और इन्हें क्रमश: सात और दो सीटें मिलीं. सीधा गणित यह है कि राजद, कांग्रेस और जदयू वोट प्रतिशत 45.6 है. भाजपा, लोजपा और रालोसपा से सात प्रतिशत अधिक. यह प्रतिनिधिक लोकतंत्र का कमाल है कि कम प्रतिशत वोट पाकर भी दलों की सांसद-संख्या अधिक हो जाती है.

लोकसभा चुनाव में 58 प्रतिशत मतदान की तुलना में 66 प्रतिशत मतदान जनता की बढ़ी जागरूकता का प्रमाण है. भाजपा को 32 प्रतिशत मतदाताओं ने भी वोट नहीं दिया है और केंद्र में वह बहुमत में है. इस स्पष्ट बहुमत के पीछे नरेंद्र मोदी का कुशल नेतृत्व था. उनके पक्ष में कई बातें हैं. उनकी कोई निजी एजेंडा नहीं था. परिवारवाद और संपत्ति-संग्रह से वे कोसों दूर हैं. उनके साथ संघ की स्थायी विचारधारा के साथ नवउदारवादी अर्थव्यवस्था की शक्ति है. चुनाव में उन्होंने केवल ‘विकास’ और ‘सुशासन’ की बात कही. जनता यही चाहती है. धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा ‘विकास’ और ‘सुशासन’ के मुद्दे के समक्ष गौण हो जाता है. हकीकत यह है कि भाजपा का एक भी सांसद मुसलमान नहीं है और राजग 2 के 336 में से मात्र एक सांसद मुसलमान है. पिछले कुछ महीनों में सांप्रदायिक घटनाएं बढ़ी हैं, भाजपा और उसके सहयोगी दलों के दो-चार सांसदों ने ‘हिंदू राज्य’ बनाने की बात कही है और संघ प्रमुख मोहन भागवत ने यह घोषणा की है कि सभी भारतवासी हिंदू हैं.

भारत को ‘हिंदू पाकिस्तान’ न बनने देने के लिए ही नहीं, यहां पूंजीवादी अंधाधुंध विकास को रोकने के लिए, 80 करोड़ सामान्य जनता की गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण आदि दूर करने के लिए भी जनतांत्रिक शक्तियों की वास्तविक-सार्थक एकजुटता जरूरी है. पहल लालू-नीतीश ने की है. फिलहाल इसे महागंठबंधन कहना गलत होगा. दस विधानसभा सीटों पर चुनाव में यह मिलन एक छोटा-सा कदम है, पर है बेहद जरूरी कदम. बिहार में भाजपा, लोजपा और रालोसपा एक साथ हैं और जदयू, राजद, कांग्रेस एक साथ. एक राष्ट्रीय दल के साथ दो क्षेत्रीय दल. लोकतंत्र को सुदृढ़ करने, पारदर्शी बनाने, जनोन्मुख करने की मुख्य जिम्मेवारी राजनीतिक दलों के साथ उस शिक्षित-बौद्धिक समुदाय की भी है, जिससे समाज को अपेक्षा है. मायावती के लिए लोकतंत्र से बड़ा उनका स्वाभिमान हो सकता है, जिससे वे मुलायम सिंह से मिल कर राजनीतिक परिदृश्य बदलने को बेचैन न हों. ऐसे में यह तय है कि उत्तर प्रदेश में अगली सरकार भाजपा की ही बनेगी.

बिहार में अभी संभावनाएं शेष हैं. बहुत कुछ नष्ट नहीं हुआ है. लालू-नीतीश आज भी बिहार के सबसे बड़े नेता हैं. अब एजेंडा बदलना होगा और यह एजेंडा सामाजार्थिक न्याय का होगा, केवल ‘सामाजिक न्याय’ का पुराना एजेंडा नहीं. इस सामाजार्थिक न्याय के एजेंडे में बिहार की ही नहीं, देश की भी बहुसंख्यक आबादी शामिल होगी. भाजपा ने जातिवादी राजनीति में भी सेंध लगा दी है. लालू-नीतीश का राजनीतिक कद है. वे क्षेत्रीय-राष्ट्रीय राजनीति में दखल रखते रहे हैं. केंद्रीय मंत्रिमंडल में रह चुके हैं. किसी भी क्षेत्रीय नेता की तुलना में उन्हें राजनीति की अच्छी समझ है. चुनावी राजनीति के साथ आज जनराजनीति की अधिक जरूरत है. समाज के प्रत्येक वर्ग में भाजपा पैठ बना चुकी है. उसके पास एक स्पष्ट विचारधारा है. भाजपा का विरोध केवल वैचारिक धरातल पर नहीं होगा, उसने ‘विकास’ एजेंडा सामने रखा है. सामाजार्थिक न्याय का एजेंडा सबसे बड़ा एजेंडा है, जिसमें सब कुछ समाहित होगा. सामाजिक, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक चेतना, सामाजार्थिक न्याय की दिशा में बिहार की पहल और सक्रियता समय की मांग है. अब बिहार पर ही देश की आंखें टिकी हुई हैं.

रविभूषण

वरिष्ठ साहित्यकार

delhi@prabhatkhabar.in

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