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आडवाणी का आखिरी हथियार

।। प्रमोद जोशी ।।(वरिष्ठ पत्रकार)– यूपीए के उलझाव के कारण भाजपा के सामने बेहतर मौका है, पर पिछले दो सालों में वह हर मौके पर गच्चा खाती रही है. भाजपा को मोदी और आडवाणी दोनों की जरूरत है. – भारतीय जनता पार्टी का मौजूदा संकट इस अर्थ में अभूतपूर्व है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का […]

।। प्रमोद जोशी ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
– यूपीए के उलझाव के कारण भाजपा के सामने बेहतर मौका है, पर पिछले दो सालों में वह हर मौके पर गच्चा खाती रही है. भाजपा को मोदी और आडवाणी दोनों की जरूरत है. –

भारतीय जनता पार्टी का मौजूदा संकट इस अर्थ में अभूतपूर्व है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का चाबुक भी काम नहीं कर पा रहा है. लालकृष्ण आडवाणी ने जून, 2005 में पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्ना की तारीफ के प्रसंग में इस्तीफा देकर उतना अपमान महसूस नहीं किया, जितना नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाये जाने पर महसूस कर रहे हैं. हालांकि मोदी को जो पद दिया गया है, वह 2004 में प्रमोद महाजन और 2009 में अरुण जेटली को दिया गया था.

यह कहीं से भावी प्रधानमंत्री का संकेत नहीं देता. संयोग से भाजपा सरकार बनी तो आडवाणी जी का दावा उस वक्त भी मजबूत होगा, पर उन्हें लगता है कि बाजी उनके हाथ से निकल चुकी है. इस्तीफा उनका आखिरी हथियार है. पार्टी के पदों से उनके इस्तीफों को राजनाथ सिंह ने स्वीकार नहीं किया है.

संभव है कि उन्हें मना लिया जाये. उनकी नाराजगी, जो अबतक खुल कर सामने नहीं आयी थी, अचानक फूट पड़ी है. नाराज वे अकेले नहीं हैं. उनके साथ मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, जसवंत सिंह और शत्रुघ्न सिन्हा समेत कुछ और वरिष्ठ नेता हैं.

यह नाराजगी क्या भाजपा और संघ के बीच की उस दरार को रेखांकित कर रही है जो नजर नहीं आती, पर महसूस होती है? इस वरिष्ठ नेतृत्व-मंडल को नाराज कर क्या पार्टी मोदी को सफलता दिला पायेगी? इसके विपरीत सवाल है कि क्या आडवाणी बदले हुए राजनीतिक यथार्थ को नहीं समझ पा रहे हैं? क्या वे 2014 के चुनाव में अपने दम पर पार्टी को सफलता दिला पाएंगे? क्या पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं की भावनाओं को वे नहीं समझ पा रहे हैं?

भाजपा नेतृत्व इस प्रकरण में इतना आगे जा चुका है कि पीछे जाना संभव नहीं होगा. मोदी के बारे में जो फैसला किया जा चुका है, वह वापस नहीं होगा, और हुआ तो उसका उल्टा असर होगा. पर आडवाणी के सख्त रुख के कारण मोदी का कामकाज मुश्किल हो जायेगा. मसलन उत्तर प्रदेश के नये प्रभारी अमित शाह 12 जून को लखनऊ जानेवाले हैं. उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए महत्वपूर्ण है. वहां राजनाथ सिंह से नाराज नेता अमित शाह के लिए दिक्कतें पेश कर सकते हैं. इस तरह का विवाद बढ़ा तो तकरीबन सारे राज्यों के भाजपा संगठन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा.

यूपी, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के चुनावी नतीजों पर गौर करें तो पाएंगे कि पार्टी की हार वरिष्ठ नेताओं के बीच मनमुटाव के कारण हुई. संयोग से कर्नाटक में आडवाणी और नरेंद्र मोदी का ही विवाद था. येद्दियुरप्पा के विरोधियों में आडवाणी खेमा था और येद्दियुरप्पा के साथ नरेंद्र मोदी.

पिछले साल जब मुंबई में पार्टी कार्यकारिणी में पहली बार मोदी भाग लेने आये तो येद्दियुरप्पा भी आये थे. जिस तरह आडवाणी ने राजनाथ सिंह को चिट्ठी लिखी है, तकरीबन उसी तरह कर्नाटक में एमएलसी लहर सिंह सिरोया ने आडवाणी जी को चार पेज की करारी चिट्ठी लिखी थी. सिरोया को पार्टी कोषाध्यक्ष पद से फौरन हटा दिया गया, पर सवाल खत्म नहीं हुए.

अटल बिहारी वाजपेयी को निर्विवाद नेता माना जाता है, पर विवाद उनके समय में भी थे. संयोग से उस चर्चा में भी आडवाणी थे. आडवाणी पार्टी के वरिष्ठतम नेता हैं और उनके मन में स्वाभाविक रूप से क्लेश है. जैन हवाला कांड न हुआ होता तो शायद 1996 में 13 दिन की सरकार का नेतृत्व करने का मौका अटल बिहारी वाजपेयी के बजाय आडवाणी जी को मिलता. इस बात को वे खुद कहते हैं.

अपनी किताब ‘माई कंट्री, माई लाइफ’ में वाजपेयी पर केंद्रित अध्याय में आडवाणी ने लिखा है कि 1995 में मुंबई अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष के नाते जब उन्होंने वाजपेयी को भावी पीएम घोषित किया, तब आरएसएस और पार्टी के ज्यादातर लोग मानते थे कि आडवाणी ही प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं.

13वीं लोकसभा 10 अक्तूबर, 1999 को गठित हुई थी. चुनाव अक्तूबर, 2004 के पहले हो सकते थे, पर एनडीए ने समय से पहले चुनाव कराने का फैसला किया. माना जाता है कि यह फैसला आडवाणी का था. उनकी किताब में इस बात का उल्लेख है कि वाजपेयी समय से पहले चुनाव के सुझाव पर उत्साहित नहीं थे, पर आडवाणी इसके पक्ष में थे. ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा भी उनका ही था.

शायद आडवाणी को उम्मीद थी कि 2004 का चुनाव उनके लिए सौगात लेकर आ रहा है. उन्हीं दिनों की बात है, प्रधानमंत्री वाजपेयी विदेश में थे और पार्टी कार्यकारिणी ने फैसला किया कि आनेवाले चुनाव में एक के बजाय दो नेताओं को सामने रख कर लड़ेंगे. वह वाजपेयी को हाशिये पर डालने की शुरुआत थी. ऐसा कौन चाहता था? वाजपेयी ने विदेश से वापसी के बाद अपने रोचक अंदाज में मीडिया से कहा था, न कोई टायर्ड, न रिटायर्ड, आडवाणी जी के नेतृत्व में पार्टी चुनाव में विजय की ओर प्रस्थान करे. वाजपेयी की वह उलटबांसी किसके समझ में नहीं आयी? बताया जाता है कि उन्हीं दिनों पूर्व सरसंघचालक राजेंद्र सिंह रज्जू भैया वाजपेयी से मिले और कहा, मैंने खराब स्वास्थ्य के कारण सुदर्शन को संघ का कार्यभार दे दिया था. आप भी आडवाणी जी को दायित्व सौंप कर राष्ट्रपति बन जाइये.

आडवाणी जी की विडंबना है कि वे ज्यादातर समय नंबर टू रहे. इतने लंबे समय तक ‘पीएम इन वेटिंग’ रहने का रिकॉर्ड उनके नाम ही है. राजनाथ सिंह को लिखे उनके पत्र के पीछे शायद यही विषाद है. यह पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छत्रछाया में काम करती है. 2005 के आडवाणी के इस्तीफे के बाद राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष बने और उसके बाद नितिन गडकरी. दोनों फैसलों पर संघ की स्वीकृति थी, पर संगठन में अराजकता बढ़ती रही. गडकरी के कार्यकाल में झारखंड में फजीहत हुई और फिर उत्तर प्रदेश में सफाया.

अनुशासनहीनता के कारण पिछले पंद्रह महीनों में भाजपा ने यूपी, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और कर्नाटक में विफलता का मुख देखा है. झारखंड में उसकी गंठबंधन सरकार समय से पहले डूब गयी. पंजाब में गंठबंधन सरकार बनी जरूर, पर भाजपा का प्रदर्शन पहले से खराब रहा. उसे केवल गोवा और गुजरात में सफलता मिली. भाजपा की सफलता के प्रतीक नरेंद्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह और मनोहर पर्रिकर हैं. कर्नाटक में येद्दियुरप्पा जैसा मजबूत नेता पार्टी छोड़ कर चला गया. लगभग उसी तरह उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह अलग हुए थे.

यह समझना होगा कि आडवाणी चाहते क्या हैं. शायद यह भरोसा चाहते हैं कि 2014 में संभावना बने तो उन्हें नेतृत्व का मौका मिले. हो सकता है उनके कुछ निजी गिले-शिकवे भी हों. उन्हें सुलझाया नहीं गया और उनकी नाराजगी लंबी चली तो पार्टी गहरे संकट में फंस जायेगी. यूपीए के उलझाव के कारण पार्टी के सामने बेहतर मौका है, पर पिछले दो सालों में वह हर मौके पर गच्चा खाती रही है. भाजपा को आडवाणी और मोदी दोनों की जरूरत है. इस बात को हमसे बेहतर भाजपा नेताओं को समझना है.

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