बासित का कश्मीर कार्ड क्यों बरदाश्त करें?
जब पाक विदेश मंत्रालय अपने बयान में कश्मीर को ‘भारत का विवादित हिस्सा’ कहता है, तो उससे वार्ता करने का कोई मतलब नहीं है. पाकिस्तान पहले जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग माने, तभी उससे बात की जाये. किन वजहों से अब्दुल बासित को नयी दिल्ली में पाकिस्तान के उच्चायुक्त पद के लिए सबसे योग्य […]
जब पाक विदेश मंत्रालय अपने बयान में कश्मीर को ‘भारत का विवादित हिस्सा’ कहता है, तो उससे वार्ता करने का कोई मतलब नहीं है. पाकिस्तान पहले जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग माने, तभी उससे बात की जाये.
किन वजहों से अब्दुल बासित को नयी दिल्ली में पाकिस्तान के उच्चायुक्त पद के लिए सबसे योग्य कूटनीतिक समझा गया, यदि इस पर समय से पहले गौर कर लिया जाता, तो शायद नवाज शरीफ को समझने में आसानी होती. अब्दुल बासित 3 मार्च, 2014 को नयी दिल्ली पदभार के लिए पहुंचे थे. बासित, दिल्ली आने से पूर्व जर्मनी में पाकिस्तान के राजदूत थे, और इसके ठीक 27 दिन पहले, 5 फरवरी, 2014 को उन्होंने बर्लिन में ‘कश्मीर सॉलिडारिटी डे’ मनाया था, जिसमें अलगाववाद को पसंद करनेवाले लोगों ने शिरकत की थी. बासित पाकिस्तान के विदेश सचिव बनाये जाने की लिस्ट में थे, लेकिन, पाकिस्तानी विदेश मंत्रलय ने उनके ‘कश्मीर प्रेम’ को देखते हुए उन्हें नयी दिल्ली भेजना बेहतर समझा. मास्को, न्यूयॉर्क, सना, जेनेवा और लंदन में पाकिस्तान का दूत रहते हुए भारत स्थित कश्मीरियों के मानवाधिकार की आवाज बासित लगातार उठाते रहे हैं. जेकेएलएफ के नेता यासीन मलिक और हुर्रियत नेताओं से बासित नयी दिल्ली में पहली बार नहीं मिल रहे थे. पाकिस्तान और दुनिया के दूसरे हिस्सों में इनसे मुलाकातें हो चुकी हैं. क्या भारत सरकार को बासित जैसे दूत का क्रिडेंशल (प्रत्यय-पत्र) स्वीकार करना चाहिए था?
बासित पाकिस्तान विदेश मंत्रलय के प्रवक्ता भी रहे हैं. वह यह भूल गये कि इस समय वह इस्लामाबाद में नहीं, बल्कि नयी दिल्ली में हैं. बासित, बस कश्मीर पर दिल्ली में दुष्प्रचार करना चाह रहे थे. ‘फॉरेन करेस्पोंडेट क्लब’ में प्रेस सम्मेलन कर बासित ने हुर्रियत नेताओं से मुलाकात को सही ठहराया, और आरोप लगाया कि उनके उच्चायुक्त रहते नियंत्रण रेखा पर भारत दर्जनों बार युद्घ विराम का उलंघन कर चुका है. क्या पाक उच्चायुक्त इस तरह से प्रेस कांफ्रेंस कर ‘कूटनीतिक नियंत्रण रेखा’ का उलंघन नहीं कर रहे थे? बासित को याद तो होगा कि 18 अप्रैल, 1961 के विएना कन्वेंशन में कूटनीतिकों के लिए क्या-क्या प्रावधान तय किये गये हैं. क्या अब्दुल बासित 25 अगस्त को भारत-पाक विदेश सचिव स्तर की वार्ता की विफलता के जिम्मेदार नहीं हैं?
अब्दुल बासित को यदि अलगाववादी नेताओं से बातचीत न करने की गुजारिश भारतीय विदेश मंत्रलय की थी, तो उन्हें उसका सम्मान करना चाहिए था. बासित, हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी व जेकेएलएफ नेता यासीन मलिक से मिलना जायज समझते हैं. उन्हें तीसरा पक्ष जरूरी लगता है. बासित ऐसा वक्तव्य देते समय 1972 में हुए शिमला समझौते का उलंघन कर रहे थे, जिसमें सिर्फ दो पक्ष, भारत और पाकिस्तान को बातचीत की स्वीकृति दी गयी थी. बासित से विवादास्पद मुलाकात के बाद श्रीनगर लौटे हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी फिर से नजरबंद कर लिये गये हैं. यह तब भी हो सकता था, जब गिलानी व मलिक दिल्ली कूच कर रहे थे. उन्हें दिल्ली आने देने का मतलब क्या था? या तो केंद्र सरकार, बासित को ‘एक्सपोज’ करना चाहती थी, या फिर हमारे खुफिया अधिकारी सो रहे थे.
हमें अपने देश की पिछली सरकारों से पूछना चाहिए कि मई 1995 में उस समय के पाक राष्ट्रपति फारूक लेधारी जब दक्षेस बैठक में दिल्ली आये, तो अलगाववादियों को उनसे क्यों मिलने दिया गया? यह सिलसिला थमा नहीं. 2001 में वाजपेयी सरकार के समय जनरल मुशर्रफ आगरा शिखर बैठक के लिए आये और अलगाववादी उनसे मिले. 2005 में मुशर्रफ एक बार फिर कश्मीरी अलगाववादियों से नयी दिल्ली में मिले. अप्रैल 2007 में तत्कालीन पाक पीएम शौकत अजीज, दक्षेस बैठक में नयी दिल्ली आये, और उनकी अलगाववादियों से मुलाकात हुई. जुलाई 2011 में तब की विदेशमंत्री हीना रब्बानी खार हुर्रियत नेताओं से नयी दिल्ली में मिलीं. नवंबर 2013 में पाकिस्तान के विदेश सलाहकार सरताज अजीज हार्डलाइनर हुर्रियत नेताओं से पाक उच्चायोग में मिले. इस बीच ऐसे कई अवसर आये, जब हुर्रियत व जेकेएलएफ नेता अपने आकाओं से मिलने पाकिस्तान गये. क्या उन्हें अनुमति देनेवाली केंद्र सरकार उतनी ही दोषी नहीं है? इसके लिए कांग्रेस, भाजपा और इस देश की कूटनीति तय करनेवाले नौकरशाह भी सवालों के घेरे में हैं. अलगाववादियों के लिए रस्सी ढीली रखने के पीछे यही भावना थी कि ‘टू ट्रैक डिप्लोमेसी’ में यह सब चलता है. लेकिन अलगाववादी इसे परंपरा मान बैठे और उनके अंदर यह बो दिया गया कि कश्मीर पर बातचीत के लिए ‘थर्ड पार्टी’ का बैठना जरूरी है.
यह तो अच्छी शुरुआत थी कि मोदी के शपथ समारोह में आये पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की अलगाववादी नेताओं से मुलाकात नहीं हुई. मोदी सरकार यदि नहीं चाहती थी कि आगे से अलगाववादी नेता अपने पाकिस्तानी सरपरस्तों से मिलें, तो देश के समक्ष इसे सार्वजनिक करने में क्या बुराई थी? इस पर संसद में चर्चा हो सकती थी. ध्यान रहे कि कश्मीर में चुनाव का समय आ रहा है, और वहां की जनता को गुमराह करने के लिए हुर्रियत का हार्डलाइनर खेमा खेल कर सकता है. गिलानी जैसे नेताओं को नजरबंद करने से बेहतर उनकी मंशा को मतदाताओं के समक्ष ‘एक्सपोज’ करना ज्यादा लोकतांत्रिक तरीका होता. वहां चुनाव के दौरान पाक अपनी हरकतों से बाज नहीं आयेगा. जब पाक विदेश मंत्रलय अपने बयान में कश्मीर को ‘भारत का विवादित हिस्सा’ कहता है, तो उससे वार्ता करने का कोई मतलब नहीं है. पाकिस्तान पहले जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग माने, तभी उससे बात की जाये.
लेकिन प्रधानमंत्री शरीफ, क्या वास्तव में कश्मीर मामले में शराफत दिखा रहे हैं? उनके दिल्ली आने और ‘शाल के बदले साड़ी कूटनीति’ प्रारंभ करने के बाद उम्मीद जगी थी भारत-पाक संबंध पटरी पर आ जायेंगे. लेकिन नियंत्रण रेखा पर उकसानेवाली गोलाबारी और बासित जैसे उच्चायुक्त की गतिविधियों को देख कर यही लगता है कि नवाज शरीफ से बड़ी ताकत, वहां की सेना, आइएसआइ सब कुछ तय कर रही है, या फिर शरीफ के दो चेहरे हैं. नवाज शरीफ जिस तरह से पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआइ) के नेता इमरान खान और पाकिस्तान अवामी तहरीक (पीएटी) के नेता मौलाना ताहिर-उल कादरी के लांग मार्च से घिरे हुए हैं, उससे सत्ता पलट की आशंका बनी हुई है. लेकिन अमेरिका और सेनाध्यक्ष जनरल राहिल शरीफ की कोशिश है कि बीच का रास्ता निकाला जाये. पाक सेना का एक बड़ा खेमा नवाज के विरुद्घ है, यह खेमा अमेरिकी दबाव में भी नहीं आ रहा है. ऐसा पहली बार हुआ कि लांग मार्च से ध्यान बंटाने के लिए कश्मीर पर दुष्प्रचार काम नहीं आ रहा है. देर ही सही, पर पाकिस्तान की जनता दुरुस्त समझ रही है!
पुष्परंजन
ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक
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