दिमाग में लगे जाले हटाने का वक्त
देश का अल्पसंख्यक जानता है कि जब भी पाकिस्तान के साथ संबंध तनावग्रस्त होते हैं, तब यह निदरेष समुदाय नाहक ही शक के दायरे में आने लगता है और उसका देश प्रेम एवं राष्ट्र-निर्माण में उसका योगदान धूमिल हो जाता है. हाल के दिनों में भारत-पाकिस्तान सीमा एवं नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम उल्लंघन की […]
देश का अल्पसंख्यक जानता है कि जब भी पाकिस्तान के साथ संबंध तनावग्रस्त होते हैं, तब यह निदरेष समुदाय नाहक ही शक के दायरे में आने लगता है और उसका देश प्रेम एवं राष्ट्र-निर्माण में उसका योगदान धूमिल हो जाता है.
हाल के दिनों में भारत-पाकिस्तान सीमा एवं नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम उल्लंघन की घटनाएं चिंताजनक ढंग से बढ़ गयी हैं. भड़काऊ घुसपैठ ही नहीं, गोलाबारी में भी अचानक तेजी आ गयी है. हर रोज भारतीय सेना या सह सैनिक दस्तों के दो चार जवान या अफसर शहीद हो रहे हैं. निहत्थे ग्रामीण नागरिक भी इस अघोषित जंग की चपेट में आते रहते हैं. सोचने की जरूरत है कि क्या तनाव में वृद्धि सिर्फ प्रतीकात्मक है? क्या इस तरह पाकिस्तान के हुक्मरान मोदी सरकार के उस राजनयिक फैसले का सैनिक जवाब दे रहे हैं, जिसके तहत उन्होंने भारत में तैनात पाकिस्तानी उच्चायुक्त द्वारा हुर्रियत के अलगाववादी तत्वों से नाजायज बातचीत के बाद दो देशों के बीच विदेश सचिव स्तर पर होनेवाली बातचीत को खारिज कर दिया था? निकट भविष्य में जम्मू-कश्मीर में चुनाव होनेवाले हैं. भाजपा ने मिशन-44 का ऐलान कर दिया है. इससे न केवल सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस वरन् प्रतिपक्षी पीडीपी खेमें में भी खलबली मची है. यह सुझाना तर्कसंगत है कि सभी न्यस्त स्वार्थ अपने हितसाधन के लिए एकजुट हो रहे हैं और यह गलतफहमी पाल रहे हैं कि सरहद पर संकट बढ़ने में उनका ही फायदा है. ये बातें अपनी जगह पर ठीक हैं, परंतु अपने दिमाग पर लगे मकड़ी के जालों को हमेशा के लिए हटाने का वक्त आ गया है.
पहली बात पाकिस्तान के साथ हर कीमत पर, हर हालत में संवाद (निर्थक ही सही और सामरिक नजरिये से खतरनाक) जारी रखने की दलील के तटस्थ मूल्यांकन की है. मनमोहन सिंह का कुतर्क कि हम अपने पड़ोसी नहीं बदल सकते या कि बातचीत का विकल्प अनिवार्यत: युद्ध है, देश को बहुत भारी पड़ा है. इससे तत्काल मुक्त होने की दरकार है. संवाद जारी रख कर हम संबंध सामान्य बनाने अथवा परस्पर भरोसा बढ़ाने की दिशा में एक छोटा सा कदम भी नहीं उठा सके हैं.
लगभग पूरा एक दशक एक मरीचिका के पीछे भटकने में बरबाद हो चुका है. पाकिस्तान ने इस मोहलत का लाभ धरातल पर अपनी सामरिक स्थिति मजबूत कर उठाया है. सरकारें बदलने और पाकिस्तानी नागरिक समाज की आत्ममुग्ध लफ्फाजी के बावजूद पाकिस्तान से प्रायोजित अलगाववादी दहशतगर्दी पर अंकुश लगाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है. आतंकवाद का उन्मूलन तो बहुत दूर की बात है. तुर्रा यह है कि जब भी हाफिज सईद या दाऊद इब्राहिम की बात होती है, पाकिस्तानी सरकार तमाम चश्मदीद गवाही को अनदेखा कर यह कहते हुए अपने हाथ झाड़ लेती है कि वह तो खुद आतंकवाद का शिकार है, उसे इन तलाशशुदा लोगों के बारे में जानकारी नहीं. कभी यह तर्क बदल जाता है- पाकिस्तान में कानून का राज है, बिना अकाटय़ सबूतों के वह कुछ नहीं कर सकती. हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है. संवाद जारी रखने का ही नतीजा है कि हाफिज सईद जहर उगलता, वातावरण दूषित करता, कश्मीरी अलगाववादियों का हौसला बढ़ाता रहा है.
भारत-पाक ‘शांति प्रक्रिया’ को अनेक स्तर पर संचालित करने के तामझाम में अमेरिकियों का योगदान है. ‘ट्रैक टू’ एवं ‘ट्रैक थ्री’ नामक जिन संवादों का प्रायोजन परदे के पीछे या जगजाहिर बहु प्रचारित तरीके से खुले मंच पर किया जाता है, उनकी तुलना कठपुतलियों के तमाशे से ही की जा सकती है. पत्रकार, प्राध्यापक, सामाजिक कार्यकर्ता, अवकाश प्राप्त जनरल और राजदूत, न्यायाधीश कभी नीमराना तो कभी कोलंबो या काठमांडो में मिलते रहते हैं. भरम यह है कि सरकार नहीं तो जनता खुद पहल कर सकती है. बरसों से जारी इस नौटंकी की पोल बहुत पहले खुल चुकी है. इन तमाशों के प्रायोजकों के चेहरे कई बार बेनकाब हो चुके हैं. कभी पाकिस्तानी गुप्तचर संगठन द्वारा पोषित गैरसरकारी अमेरिका में प्रवासी पाकिस्तानियों के संगठन तो कभी अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के सेवक ‘थिंक टैंक’ इन गोष्ठियों का आयोजन करते रहे हैं. एक पुरानी कहावत है- जो पैसा खर्च करता है वही मनपसंद राग अलपवाता है. इस संदर्भ में भी पैसा फेंकनेवाला ही तमाशा देखता-दिखलाता रहा है. विडंबना यह है कि लगातार चालू यह क्रियाकलाप रफ्तार पकड़ने के साथ सुर्खियों में अपनी जगह बनाने में कामयाब रहा है. इस वक्त नमक-अदायगी के दबाव में मजबूर विद्वान-विश्लेषक मुखर होने लगे हैं- ‘मोदी ने बहुत बड़ी गलती की है’ से लेकर ‘मोदी ने बहुत कुछ एक ही दावं पर लगा दिया है’- जैसी बातें सुनने को मिल रही हैं.
‘अमन की आशा’ की जो पेशेवर भाषा विकसित हुई है उसका लाभ इस छोटे परजीवी खुदगर्ज तबके को ही होता रहा है. वक्त आ गया है कि इन अधिवक्ताओं को हाशिये पर पहुंचाया जाये. कुलदीप नैय्यर, राजेंद्र सच्चर जैसे भलेमानुस आज जमीनी हकीकत से बहुत दूर हैं और न ही नौजवान हिंदुस्तानियों की नब्ज पहचानते हैं. भाव विह्वल पंजाबी शरणार्थी मानसिकता कहिये या अपने को प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष उदार मानवाधिकारों का संतरी समझने का घातक लालच हर कीमत पर, हर हालत में चांटे खाते जाने के बाद दूसरा गाल पाकिस्तान को पेश करने की उतावली का समर्थन आज भारतीय समाज का बहुमत नहीं करता.
यहां यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि बहुमत शब्द का अनुवाद बहुसंख्यक नहीं किया जा सकता. जिन्हें सांप्रदायिकता वाली बहस के सिलसिले में अल्पसंख्यक कहा जाता है, वे भी पाकिस्तान की धूर्तता से तंग हैं. वे भली भांति जानते हैं कि जब भी पाकिस्तान के साथ संबंध तनावग्रस्त होते हैं, तब यह निदरेष समुदाय नाहक शक के दायरे में आने लगता है और उनका देश प्रेम, राष्ट्र-निर्माण में उनका योगदान धूमिल हो जाता है. इससे भी बड़ा दुर्भाग्य है कि कश्मीर घाटी की संवेदनशीलता और वहां सक्रिय अलगाववादियों की संदिग्ध हरकतों के कारण देश भर के अल्पसंख्यक कष्ट पाते हैं. उनके अधिकारों की हिफाजत को तुष्टीकरण कहा जाता है. संक्षेप में, कश्मीरी अलगाववादियों की हरकतें हमेशा देश भर में सांप्रदायिक सद्भाव के लिए बेहद नुकसानदेह रही हैं. चाहे गिलानी हों, यासीन मलिक हों या शब्बीर शाह, इनमें कोई भी जनाधार वाला नेता नहीं. ये पाकिस्तानी उच्चायोग के समर्थन-प्रोत्साहन से बारंबार स्वास्थ्य लाभ कर अखाड़े में उतरनेवाले नूरा-कुश्ती में माहिर पहलवान हैं. भयादोहन ही इनका सबसे बड़ा दावं-पेच है.
कहा जाता है कि भारतीय सेना नियंत्रण रेखा के उल्लंघन का मुकाबला करने में सक्षम है. यदि पाकिस्तान बाज नहीं आया, तो उसे मुंहतोड़ जवाब दिया जायेगा. अब तक सद्भावना बढ़ाने के प्रयासों तथा संवाद जारी रखने का कोई फायदा सामने नहीं आया है. इसलिए दलगत पक्षधरता से ऊपर उठ कर बहस में हिस्सेदारी की जरूरत है.
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant @gmail.com