महागंठबंधन ने इस जीत से कई लक्ष्य एक साथ साधे

।।विश्‍लेषण:अजय कुमार।। राजनीति का समाजशास्त्रीय गणित हमेशा दो और दो चार नहीं होता. यह छह भी होता है. बिहार विधानसभा की 10 सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे भाजपा के लिए जहां झटके की तरह है, वहीं राजद, जदयू और कांग्रेस के महागंठबंधन को इसने उत्साह से भर दिया है. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 26, 2014 11:30 AM
an image

।।विश्‍लेषण:अजय कुमार।।

राजनीति का समाजशास्त्रीय गणित हमेशा दो और दो चार नहीं होता. यह छह भी होता है. बिहार विधानसभा की 10 सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे भाजपा के लिए जहां झटके की तरह है, वहीं राजद, जदयू और कांग्रेस के महागंठबंधन को इसने उत्साह से भर दिया है. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के गंठजोड़ ने साबित किया है कि सामाजिक स्तर पर उसने अपने आधार को भाजपा के खिलाफ खड़ा किया है. हाजीपुर, नरकटियागंज, बांका और मोहनिया सीटों पर भाजपा ने कब्जा जमाया, तो महागंठबंधन के खाते में जाले, मोहिउद्दीननगर, छपरा, राजनगर, परबत्ता और भागलपुर सीटें आयीं. महागंठबंधन ने इस जीत से कई लक्ष्य एक साथ साध लिये. लोकसभा चुनाव के बाद बिहार में एक प्रकार से यह बड़ा चुनाव हो रहा था. संसदीय चुनाव की छाया में हुए इस उपचुनाव की स्थितियां अलहदा थीं. राजद और जदयू ने जहां संसदीय चुनाव अलग-अलग होकर लड़ा था, वहीं भाजपा ने दोनों पार्टियों को शिकस्त देते हुए अपनी ताकत का इजहार किया था. माना जा रहा था कि सामाजिक न्याय की ताकतों का एक हिस्सा बिखर कर भाजपा की ओर चला गया.

भाजपा के साथ लोजपा और राष्ट्रीय लोक समता के आने के बाद सामाजिक न्याय के आधार के रुझान को लेकर एक दुविधा की स्थिति पैदा हुई थी. इसलिए इस उपचुनाव को महागंठबंधन के लिए लिटमस टेस्ट कहा जा रहा था. इसमें दो राय नहीं कि इस टेस्ट में महागंठबंधन पास हो गया है. लेकिन, इसकी असली परीक्षा अब विधानसभा के अगले साल होनेवाले आम चुनाव में होने जा रहा है. इन 10 सीटों पर 2010 के विधानसभा के आम चुनाव में भाजपा को छह सीटें मिली थीं. राजद को तीन और एक सीट जदयू को मिली थी. सीटों की जीत का यह आंकड़ा उपचुनाव में बदल गया. महागंठबंधन ने भाजपा की दो सीटें छीन लीं और उसने अपने खाते में छह सीटें हासिल कर लीं. जिन 10 सीटों पर उपचुनाव हुआ है, उनमें दो (मोहनिया व नरकटियागंज) को छोड़ कर बाकी आठ सीटों पर तीन माह पहले हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को बढ़त मिली थी. लोकसभा चुनाव के बाद हुए लालू प्रसाद और नीतीश कुमार का गंठबंधन हुआ, तो यह उम्मीद की जा रही थी कि चुनाव परिणाम अनुकूल नहीं होंगे.

इसकी वजह करीब दो दशक तक नीतीश कुमार का लालू प्रसाद का विरोध करना रहा था. इन दोनों नेताओं ने दो दशक के बाद हाथ मिलाया, तो सब कुछ एक प्रकार से कोहरे में लिपटा हुआ था. लेकिन उपचुनाव में जदयू और राजद के खेमे में भरोसा पैदा कर दिया है. यह भरोसा सामाजिक न्याय की शक्तियों की गोलबंदी को लेकर है. लालू प्रसाद इसीलिए अपनी सभाओं में मंडल का बार-बार हवाला दे रहे थे. इसके जरिये वह कमंडल यानी भाजपा को जवाब देना चाहते थे. उपचुनाव के नतीजों ने भाजपा को पूरी तरह से नहीं, एक हद तक जवाब दे दिया है. इसे भाजपा के लिए पूरी तरह जवाब नहीं माना जा सकता. बिहार के दो दिग्गज नेताओं के साथ आने के बाद सीटों की कसौटी से उसकी ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता था. इस लिहाज से देखें, तो महागंठबंधन को अपने सामाजिक आधार के लिहाज से चुनौती बाकी है. सामाजिक न्याय की ताकतों के बीच महागंठबंधन को ज्यादा स्वीकार्य बनाना अभी बाकी है.

लोकसभा चुनाव के बाद जदयू और राजद के खेमे में जो पस्ती थी, उसे इस उपचुनाव ने एक हद तक दूर कर दिया है. इस परिणाम से गंठबंधन के आगे का रास्ता भी साफ हो गया है. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार को अगले विधानसभा चुनाव में साथ-साथ चलने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है. इस गंठबंधन को लेकर जदयू और राजद में जो विरोध के स्वर उभर रहे थे, इस नतीजे से अब वे दब जायेंगे. फर्ज करिए कि उपचुनाव के नतीजे आंकड़ों के लिहाज से कुछ दूसरे होते, तो राज्य का राजनैतिक परिदृश्य बदल जाता. तत्काल दोनों ही दलों में टूट-फूट की आशंका थी. राज्य सरकार की सेहत पर भी इससे असर पड़ता. चुनाव परिणाम के बाद जाहिर है कि दोनों आशंकाएं एक हद तक समाप्त हो गयी हैं. शायद इसीलिए जदयू नेता नीतीश कुमार ने इस परिणाम पर संतोष जाहिर किया है. उन्होंने कहा कि अब उन्माद और विभाजनकारी राजनीति के लिए कोई जगह नहीं है और बिहार के लोगों ने इसे साबित कर दिया है. उनकी बातों से जीत के महत्व को समझा जा सकता है. उन्होंने इस जीत को उन्माद की धारा की हार और सद्भाव की धारा की जीत बताया है.

इसके ठीक उलट भाजपा के लिए यह परिणाम अपेक्षित नहीं रहा. लोकसभा चुनाव की छाया में लड़े गये इस उपचुनाव में भाजपा बड़ी जीत हासिल कर बिहार की सत्ता की ओर कूच करने की रणनीति बना रही थी. लेकिन नतीजों ने उसे अपनी रणनीति पर मंथन करने का मौका दिया है. उपचुनाव से यह पता चलता है कि भाजपा को लोकसभा चुनाव की तरह दलितों, पिछड़ों और अति पिछड़ों के वोटों में हिस्सेदारी नहीं मिल सकी है. इस लिहाज से उसे सोशल इंजीनियरिंग की थ्योरी को दुरुस्त करना होगा. बिहार में कभी मंडल की राजनीति के खिलाफ केएन गोविंदाचार्य ने भाजपा में सोशल इंजीनियरिंग का सिद्घांत गढ़ा था. करीब दो दशक के बाद भाजपा को सोशल इंजीनियरिंग की थ्योरी को नया चेहरा देना होगा, तभी उसे महागंठबंधन से पार पाने में कामयाबी मिल सकती है. पर क्या भाजपा इसके लिए तैयार है? निश्चय ही भाजपा के लिए यह चुनाव परिणाम उसकी रणनीति पर विचार का मौका है. भाजपा ने जिस प्रकार जंगलराज वन और टू का नारा दिया, उससे बहुत हद तक संभव है कि उसने सामाजिक न्याय की जातियों को गोलबंद कर दिया हो. विधानसभा के आम चुनाव अगले साल होनेवाले हैं और जाहिर है कि इस उपचुनाव ने राजनीति की गरमी बढ़ा दी है.

Exit mobile version