हम उल्लू नहीं बनेंगे लेकिन कब तक

जब-जब हमारे गांव में परधानी का चुनाव आता है, बिरादरी की दुहाई दी जाने लगती है. जातिगत गोलबंदी के साथ दूसरी जातियों से कुनबे को कितना खतरा है इसे बढ़ा-चढ़ा कर बताया जाता है. बचपन में लगता था कि केवल हमारे गांव में ही ऐसा होता है. उमर बढ़ी और कूप मंडूक से ग्लोबल मानुष […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 27, 2014 1:14 AM

जब-जब हमारे गांव में परधानी का चुनाव आता है, बिरादरी की दुहाई दी जाने लगती है. जातिगत गोलबंदी के साथ दूसरी जातियों से कुनबे को कितना खतरा है इसे बढ़ा-चढ़ा कर बताया जाता है.

बचपन में लगता था कि केवल हमारे गांव में ही ऐसा होता है. उमर बढ़ी और कूप मंडूक से ग्लोबल मानुष की कैटेगरी में आ खड़े हुए तो पता चला कि इस छोटे से फामरूले पर राजनीति की दुकानदारी फल-फूल रही है. गांव की चौपाल से लेकर विधानसभा व लोकसभा चुनाव तक यह फामरूला फारमुला कारगर रहता आया है.

बस किस नाम पर किसके खिलाफ गोलबंदी होनी है यह स्थान, काल पात्र के आधार पर तय होता रहा है. बिहार उपचुनाव में लालू-नीतीश की गलबहिया देख हमारे टीन एजर बबुआ व उसके नव युवा वोटर बने दोस्त की आंखें आश्चर्य से फटी रह गयी.

जब नतीजा आया तो इनका आक्रोश देखने लायक था. भुनभुनाते हुए जब इनकी टोली काका के सामने से गुजरी तो काका ने जबरन आशीर्वाद देते हुए उनके मुंह फुलाने का कारण पूछा. पहले से ही भरे पड़े नेट-चैट युगीन बच्चे काका के सामने फ ट पड़े. कहा,जबतक अनैतिक गंठबंधन की राजनीति रहेगी, तबतक देश का भला नहीं हो सकता. भाजपा को हराने के लिए बिहार में गोलबंदी की गयी. यह गलत है. काका ने बच्चों को पुचकारते हुए कहा, यह गोलबंदी कोई नयी बात नहीं. घर से लेकर जवार और देश से लेकर परदेस तक बरियार के खिलाफ गोलबंदी होती रही है. यह केवल अपने देश की ही बात नहीं है. पाकिस्तान, बांग्लादेश सहित अन्य देशों में भी यह होता रहा है.

काका ने अपना अनुभव सुनाते हुए कहा कि उनकी आंख के सामने ही 1977 में कांग्रेस (इंदिरा गांधी) के खिलाफ कम्युनिस्ट से लेकर जनसंघी तक ने गंठबंधन किया. जनता ने उनको सिर आंखों पर बिठाया, लेकिन ये एक न रह सके. 1989 (राजीव) में भी कांग्रेस के खिलाफ भाजपा, माकपा, जनता दल व अन्य छोटी पार्टियों ने गंठबंधन किया, जनता जनार्दन ने फिर से इनको सत्ता दी, लेकिन ये फि एक न रह सके. तब बरियार पार्टी कांग्रेस थी तो उसके खिलाफ गंठबंधन होता था. अब परिस्थितियां बदल गयी हैं. कांग्रेस को कोस कर पली बढ़ी पार्टियां अब उसी से हाथ मिला कर गंठबंधन कर रही हैं. क्यों न करें. उनके सामने अब एक दूसरी बरियार पार्टी जो खड़ी हो गयी है. जनता भी इनको समर्थन कर रही हैं. इसमें जीत- हार भले ही किसी की हो, उल्लू तो जनता ही बनती है. जनता को उल्लू बनाने का स्लोगन भले ही हाल-फिलहाल के विज्ञापन में हिट हुआ हो, परंपरा बहुत पहले से चली आ रही है, जो आज भी कायम है. अपना उल्लू सीधा करने के लिए जनता को जनार्दन से उल्लू बनाने वालों का बस नाम बदलता रहेगा. बनने वाले का नाम तो आप जानते ही हैं. जब तक जनता उल्लू बनने से परहेज करने के लिए कमर नहीं कसती, उन्सको उल्लू बनाने वाले बाज नहीं आयेंगे.

लोकनाथ तिवारी

प्रभात खबर, रांची

lokenathtiwary@gmail.com

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