पाकिस्तान के मामले में उनकी भावनाएं उन पर हावी हो जाती हैं और यह हमारे लिए दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि ऐतिहासिक रूप से इस मसले में खतरे की आशंका हमेशा है. बातचीत को जारी रखना नरेंद्र मोदी के लिए अधिक दूरदर्शितापूर्ण होता.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कार्यभार संभालने के बाद ऐसे कई निर्णय लिये हैं, जो उनके चुनावी वादों से उलट हैं. जैसे, मोदी नागरिकों की बायोमेट्रिक पंजीकरण की विशिष्ट पहचान व्यवस्था (आधार) के धुर विरोधी थे. आशंका यह थी कि इस पंजीकरण से अवैध लोगों, अर्थात् बांग्लादेशियों, को एक प्रकार से वैधानिकता मिल जायेगी या वे राजकीय लाभों को प्राप्त करने लगेंगे, जिसके लिए वे योग्य नहीं हैं. परंतु, संभवत: इस व्यवस्था के रचनाकार नंदन नीलेकणि, जो खरबपति हैं और कॉरपोरेट जीवन छोड़ कर अब समाज सेवा में संलग्न हैं, के साथ एक बैठक के बाद मोदी ने इस मामले में अपनी राय में परिवर्तन किया. मेरे विचार में, यह परिवर्तन बहुत ही बढ़िया निर्णय है, क्योंकि यह अच्छा कार्यक्रम चल रहा है. इससे संकेत मिलता है कि मोदी व्यावहारिक व्यक्ति हैं तथा अपने रुख में बदलाव को लेकर नरम हैं. जटिलता-भरे राष्ट्रों में शासन के लिए आवश्यक है कि शासक अपने सिद्धांतों में जरूरत के अनुरूप संशोधन करे. मोदी को यह अहसास है और गुजरात में विकास व वितरण इस व्यावहारिकता के परिचायक हैं.
हालांकि, मेरा यह भी मानना है कि जब पाकिस्तान की बात आयेगी, तो यह स्थिति दूसरी होगी. चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने पड़ोसी देश को लेकर जो कठोर भावनाएं प्रकट की थी, उन्हें गहनता से अनुभव किया गया और उनमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता है. पाकिस्तान के प्रति नापसंदगी, शायद सही शब्द घृणा है, मोदी के भाषण या प्रचार रणनीति का ही नहीं, बल्कि उनकी विश्व-दृष्टि का हिस्सा भी है. दोनों देशों के बीच होनेवाली विदेश सचिव स्तर की बातचीत को भारत द्वारा रद्द किया जाना इसी का एक पहलू है.
इससे मोदी उस मसले पर दोस्ताना आधार पर विचार करने से बच गये, जो कि असल में वे करना ही नहीं चाहते हैं. हमें यह अपेक्षा करनी चाहिए कि विदेश नीति से जुड़े मामलों पर, जिनमें बांग्लादेश भी शामिल है, मोदी का लचीला रुख एक बार फिर, और शायद अक्सर, सामने आयेगा, लेकिन जहां तक पाकिस्तान की बात है, उनका रवैया कठोर बना रहेगा. रिपोर्ट बताती है कि पीएम ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को भरोसे में लिये बिना बातचीत से बाहर आने का फैसला किया है. मुङो नहीं पता है कि ये खबरें कहां तक सही हैं, पर अगर सच हैं, तो मुङो कोई आश्चर्य नहीं. व्यक्तित्व-आधारित नीति लागू करने के तेवर वाला यह निर्णय मोदी के अकेले फैसले लेने के तौर-तरीके और उनकी विचारधारा के बिल्कुल अनुरूप है. हालांकि, अधिकतर अखबारों ने बातचीत रद्द करने पर मोदी का समर्थन किया है, पर मेरे विचार से यह एक भूल है. सत्ता में आने के बाद मोदी ने यह पहली बड़ी गलती की है. यह निर्णय भावना और उत्तेजना के आधार पर लिया गया है. बातचीत रद्द होना अभी एक समस्या इसलिए नहीं है कि इस वक्त हमें पाकिस्तान से बातचीत की जरूरत नहीं है. आधिकारिक रूप से दोनों देशों के बीच व्यापार बहुत कम है और निकट भविष्य में इस स्थिति में बदलाव के आसार नहीं हैं तथा मुंबई के हमलावरों पर मुकदमे में कोई प्रगति नहीं हो रही है. हालांकि, अभी पाकिस्तान को अनदेखा करने का सबसे महत्वपूर्ण एक कारण यह है कि सीमा-पार आतंकवाद ऐतिहासिक रूप से सबसे निचले स्तर पर है और आतंकवाद के कारण कश्मीर से बाहर होनेवाली मौतें न के बराबर हैं.
अब जबकि पाकिस्तान भारत से बातचीत का इच्छुक है, क्योंकि उसके लिए बहुत जरूरी मसलों पर कोई प्रगति नहीं हुई है, भारत अपने हिसाब से बातचीत की शर्ते तय कर सकता है, क्योंकि पाकिस्तान के बरक्स उसके सामने महत्वपूर्ण मसले नहीं हैं. पाक सरकार की आंतरिक समस्याओं के कारण प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का ध्यान भी भारत की ओर नहीं है. यह यथास्थिति तब तक बनी रहेगी, जब तक हालात में कोई खास बदलाव नहीं आता.
इससे कोई नतीजा निकलनेवाला नहीं है और भारत को अपने निर्णय को बदलना पड़ सकता है. अगर हम यह उम्मीद करते हैं कि पाकिस्तान हुर्रियत से बात करना बंद कर देगा, तो दूसरी बात है, क्योंकि वह ऐसा कभी नहीं करेगा. बातचीत रद्द करने के फैसले ने हमें यह क्षणिक भ्रम-भर दिया है कि स्थिति हमारे नियंत्रण में है. लेकिन, अगर पाकिस्तान इस मसले पर नहीं झुका, तो बातचीत की बहाली का निर्णय लेने का दबाव भारत के ऊपर ही होगा. अगर फिर से तनाव बढ़ेंगे, तो दुनिया इस फैसले पर भारत का समर्थन नहीं करेगी. एक अंगरेजी दैनिक की एक रिपोर्ट ने नयी दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट फॉर कांफ्लिक्ट मैनेजमेंट के विश्लेषक अजय साहनी को उद्धृत करते हुए इस पहलू को रेखांकित किया है- ‘साफ तौर पर, हुर्रियत के साथ एक बैठक को भारत-पाक संबंधों का आधार बनाने में मुङो कोई समझदारी नजर नहीं आती है. यह लगभग ऐसी ही बात है कि हमारी सरकार कहे कि नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी करनेवाले पाकिस्तान के साथ तो हम रह सकते हैं, पर अलगाववादियों के साथ उसका चाय पीना अक्षम्य है.’
मेरा सवाल यह है कि तब क्या होगा जब भारत को अपने पड़ोसी से कुछ कहने की जरूरत होगी. क्या हम वैसा कुछ करेंगे, जिसे बच्चे ‘कुट्टी कर देना’ कहते हैं? अगर ऐसा होता है तो हमारे पास उसका कारण क्या होगा? मान लें, कोई चमत्कार हो जाये और हाफिज सईद पर मुकदमे में कुछ कार्रवाई होती है तथा पाकिस्तान किसी खास सबूत पर हमसे स्पष्टीकरण मांगता है. क्या तब भी हम उससे बात करने से मना करेंगे? चूंकि हमने दृढ़ता से और सिद्धांतों के आधार पर निर्णय लिया है, तो हमें इसके परिणाम का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए.
शायद सरकार में यह सोच विद्यमान है कि हम अपनी रुचि के मसलों पर बात कर सकते हैं, राजनयिक मौजूदगी और सामान्य संबंध बनाये रखने का नाटक जारी रख सकते हैं, पर हम विदेश सचिव स्तर की बातचीत में हिस्सा नहीं लेंगे. यह सब मुङो बड़ा उटपटांग लग रहा है. हमें यह देखने के लिए इंतजार करना होगा कि पाकिस्तान और भारत में कौन पीछे हटता है, लेकिन मुङो नहीं लगता है कि पाकिस्तान से वार्ता करने में मोदी की कोई विशेष दिलचस्पी है. इसका मतलब यह है कि हमारे संबंधों के अन्य पहलुओं, जैसे- व्यापार, आवागमन आदि, की उन्हें बलि चढ़ानी होगी, जो पाकिस्तान से व्यापक बातचीत का हिस्सा हैं.
अब सवाल यह है कि क्या अन्य क्षेत्रों, जैसे- शिक्षा, आनुवांशिक रूप से संवर्धित खाद्य आदि, जिनमें आरएसएस की दिलचस्पी है, में भी वे कठोर रुख अख्तियार करेंगे. मेरा अनुमान है कि इन मामलों में उनका रवैया लचीला होगा, जो कि अच्छी बात है. पाकिस्तान मामले में उनकी भावनाएं उन पर हावी हो जाती हैं, जो हमारे लिए दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि ऐतिहासिक रूप से इस मसले में खतरे की आशंका हमेशा है. बातचीत को जारी रखना नरेंद्र मोदी के लिए अधिक दूरदर्शितापूर्ण होता.
आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
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