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नीलांजन के तट पर कविता का दीपदान

अब कॉलेजों में छात्रों को साहित्य की जगह अधिकार की राजनीति सिखायी जाती है, जिसके लिए छात्र संघ गठित होते हैं. पाठय़-पुस्तकों में निराशा उत्पन्न करनेवाले मर्सिये रखे गये हैं, जो किशोर मन को आतंकित करते हैं. नीलांजन नदी का उत्स झारखंड के चतरा जिले में है. अपने मूलस्थान पर यह नदी लीलाजन नाम से […]

अब कॉलेजों में छात्रों को साहित्य की जगह अधिकार की राजनीति सिखायी जाती है, जिसके लिए छात्र संघ गठित होते हैं. पाठय़-पुस्तकों में निराशा उत्पन्न करनेवाले मर्सिये रखे गये हैं, जो किशोर मन को आतंकित करते हैं.

नीलांजन नदी का उत्स झारखंड के चतरा जिले में है. अपने मूलस्थान पर यह नदी लीलाजन नाम से या पुराने निरंजन नाम से जानी जाती है. यही जब मोहाना नदी के साथ मिल कर गया पहुंचती है, तो इसका नाम फल्गु (फाल्गुनी) हो जाता है, जिसके किनारे असंख्य श्रद्धालु आश्विन मास के पितृपक्ष में पिंडदान करते हैं. शास्त्रीय मान्यता है कि जब तक गया में पिंडदान नहीं होता, तब तक पितरों को मोक्ष नहीं मिलता. सीता के शाप के कारण पावस ऋतु के कुछ दिनों को छोड़ कर फल्गु में पानी नहीं रहता. रेत कुरेद कर पानी निकाला जाता है. गया के पिंडदान के कारण फल्गु नदी को सभी जानते हैं, लेकिन नीलांजन को चतरा जिले के लोग ही. स्थानीय जन मानते हैं कि गौतम बुद्ध ने ज्ञान-प्राप्ति के बाद इसी नीलांजन नदी में पहला स्नान किया था. गया और चतरा के बीच इस नदी के किनारे एक छोटा-सा कस्बा हंटरगंज भी है, जिसका नाम बदल कर अब शालिग्राम रामनरायनपुर कर दिया गया है, मगर लोग अब भी उसे हंटरगंज ही कहते हैं. पुनर्नामकरण के समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि नया नाम पुराने नाम के बराबर या उससे छोटा हो.

झुमरी तिलैया कभी रेडियो सिलोन वाले बिनाका प्रोग्राम के श्रोताओं में बहुत लोकप्रिय था, क्योंकि यहां से गीतों की फरमाइशें बहुत ज्यादा हुआ करती थीं; मगर इसके रेलवे स्टेशन कोडरमा को कम ही लोग जानते हैं. कोडरमा से चतरा लगभग नब्बे किमी है, जिसमें राजपथ वाला हिस्सा तो बहुत आरामदेह है, मगर चौपारण के बाद सड़क खराब है. कोडरमा में ट्रेन से उतर कर चतरा आते समय मुङो नीलांजन नदी मिली, बरसाती पानी से गदरायी हुई और बड़ी तेजी से गया की ओर भागती हुई. बरसात के मटमैले जल से उसके दोनों तीर ऊब-डूब रहे थे. चारों ओर हरीतिमा का विशाल साम्राज्य था.

रास्ते में इटखोरी पड़ा, जहां का भद्रकाली मंदिर बहुत सिद्ध और प्रसिद्ध है. कहते हैं कि राजा सुरथ ने यहीं तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया था. मंदिर का प्रांगण विशाल, भव्य और सुव्यवस्थित है. कुछ मास पहले वयोवृद्ध लेखक पंडित विद्यानंद झा की पुस्तक ‘भद्रकाली’ का लोकार्पण यहीं हुआ था, जिसमें मैं आया था. उस यात्र में एक दिन मैं चतरा के साहित्यिक पुलिस अधीक्षक प्रशांत करण के आवास पर आत्मीय अतिथि बन कर रहा था. प्रशांत जी आइपीएस तो हैं ही, मगर वनस्पति विज्ञान के मेधावी छात्र रहे हैं. इसलिए, जब पुलिस सेवा का श्रीगणोश उन्होंने किरिबुरू माइंस (स्टील ऑथारिटी) से किया, तो अपने निवास पर केवल पत्ताेंवाले वनस्पतियों को एकत्र किया था. मुङो उसी समय वे कुछ भिन्न पुलिस अधिकारी लगे, क्योंकि फूलों के सौंदर्य पर तो सारा जग मोहित है, मगर पत्ताें का भी अपना वैविध्यपूर्ण सौंदर्य है, इसे देखनेवाला कोई-कोई होता है. चतरा नक्सल-प्रभावित क्षेत्र है, इसलिए हमेशा पुलिस को चौकन्ना रहना पड़ता है. उस दिन भी किसी का अपहरण हो गया था और मेरे साथ भोजन करने के लिए परोसी थाली छोड़ कर आधे घंटे में लौट आने का वादा करके गये और तीन बजे घर लौटे. उसी समय यह तय हुआ कि समाज में बढ़ते नकारात्मक सोच को दूर करने के लिए क्यों न साहित्य का सहारा लिया जाये. बात यहां तक पहुंची कि चतरा में एक कवि सम्मेलन किया जाये, जिसमें टीवी चैनलों और आम कवि सम्मेलनों में लतीफे सुना कर श्रोताओं को ‘लोटपोट’ करनेवाले हास्य कवियों के बजाय उन कवियों को आमंत्रित किया जाये, जिनकी कविता आत्मा को आनंदलहरी प्रदान करती है. इसके लिए श्रोताओं की भीड़ जुटाने के बजाय क्षेत्र के रसज्ञ श्रोताओं को चुन कर बुलाया जाये.

आज से ठीक 45 साल पहले जब मैंने अनमने भाव से ही कवि सम्मेलन के मंच पर पांव रखा था, तब रात-रात भर के काव्यपाठों में हास्य कविता को भात-दाल में चटनी की मात्र भर स्थान मिलता था. सेमिनारों के टी-ब्रेक की तरह! प्राय: सभी शिक्षा संस्थानों में भी बच्चों को कविता के माध्यम से भाषा का संस्कार देने के लिए कवि सम्मेलन होते थे. उन्हें उन महान कवियों से साक्षात्कार का सुअवसर मिलता था, जिनकी कविताएं उनमें स्फूर्ति जगाती थी.

शिक्षालयों में इसे आयोजित करने के लिए साहित्य परिषद गठित होती थी. अब कॉलेजों में छात्रों को साहित्य की जगह अधिकार की राजनीति सिखायी जाती है, जिसके लिए छात्र संघ गठित होते हैं. पाठय़-पुस्तकों में निराशा उत्पन्न करनेवाले मर्सिये रखे गये हैं, जो किशोर मन को आतंकित करते हैं. स्वाभाविक है कि ऐसी कविताओं के रचयिताओं की छवि उन्हें डरावनी लगती होगी. इसलिए वे पाठ्यक्रम के कवियों से मिलने के बजाय उन हंसोड़ कवियों से मिलना चाहते हैं, जो चुटकुले सुना कर उनका मनोरंजन करें. लतीफे थोड़ी देर के लिए गुदगुदाते तो हैं, मगर उनसे श्रोता घर ले जाने लायक कुछ हासिल नहीं कर पाते.

इसीलिए शिक्षालयों में कवि सम्मेलनों के आयोजन कम हो गये हैं. जो होते है, तो टीवी चैनलों पर दिखनेवाले गुण में सस्ते और दाम में महंगे कवि ही बुलाये जाते हैं, जिससे मूल प्रयोजन उपेक्षित रह जाता है. बच्चे अच्छी कविता सुनना चाहते हैं, मगर उन्हें रद्दी कविता उपलब्ध करायी जाती है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अच्छे सकारात्मक कवियों को छात्रों के बीच लाने की पहल कर रचनात्मक भूमिका निभा सकता है, मगर उसकी नजर में ‘अच्छा कवि’ भी वही है, जो या तो प्रोफेसर है या पाठ्यक्रमों में दाखिल है. सच तो यह है कि हिंदी जगत में सकारात्मक सोच का कवि होना अभी भी गुनाह है.

ऐसे में एक साहित्यिक मन के पुलिस अधीक्षक द्वारा अपने आसपास के समाज में शुचिता और सौहार्द का संदेश देने लिए, पिछले 24 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित काव्य संध्या उन लोगों के लिए उत्साहवर्धक है, जो कवि सम्मेलनों में आजकल पढ़ी जानेवाली अश्लील और भद्दी कविताओं से दुखी होकर कवि सम्मेलनों में जाना छोड़ चुके हैं. पूरे आयोजन में न किसी राजनेता पर फब्ती कसी गयी, न पुलिस या पत्नी या किसी हीरो-हीरोइन को हास्य का विषय बनाया गया और न ही पाकिस्तान को दुनिया के नक्शे से मिटाया गया.

फिर भी श्रोता आनंद के सरोवर में मुक्त अवगाहन करते रहे. यह प्रयास आकाश में सुराख करने जैसा था, मगर सौ-सौ मील से चल कर आये श्रोताओं के चेहरे पर जो प्रसन्नता दिखी, उसने संयोजकों को यह भरोसा दिला दिया कि जिसमें कुछ अच्छा करने की लालसा व आत्मविश्वास है, उसे सफलता मिलेगी ही. निस्संदेह, नीलांजन नदी के तट पर किया गया वह विशुद्ध कविता का दीपदान, विभिन्न प्रकार के तमों से आवृत समाज को दूर तक और देर तक आलोकित करेगा.

डॉ बुद्धिनाथ मिश्र

वरिष्ठ साहित्यकार

buddhinathji @gmail.com

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