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राजनीतिक एजेंट नहीं है राज्यपाल

सरकार बदलने के बाद प्रशासनिक व्यवस्था बदलती ही है, पर कितनी? अब यह विचार करने का समय है कि किन बातों को राजनीतिक नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए? कौन से पद राजनीतिक हैं और किन पदों को राजनीति से परे रखा जाना चाहिए? महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल के शंकरनारायणन के बाद केरल की राज्यपाल […]

सरकार बदलने के बाद प्रशासनिक व्यवस्था बदलती ही है, पर कितनी? अब यह विचार करने का समय है कि किन बातों को राजनीतिक नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए? कौन से पद राजनीतिक हैं और किन पदों को राजनीति से परे रखा जाना चाहिए?

महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल के शंकरनारायणन के बाद केरल की राज्यपाल शीला दीक्षित ने भी इस्तीफा देकर मोदी सरकार के काम को आसान कर दिया है. अब राज्यपालों की बर्खास्तगी और नियुक्ति को लेकर राष्ट्रीय विमर्श का समय आ गया है. सरकारिया आयोग ने सुझाव दिया था कि संविधान के अनुच्छेद 155 में संशोधन करके राज्यपालों की योग्यता और नियुक्ति प्रक्रिया को तय किया जाना चाहिए. यह भी तय किया जाना चाहिए कि राज्यपाल का पद क्या इस हद तक राजनीतिक है कि सरकार बदलते ही उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए या उनका कार्यकाल तय हो, जैसी कि सरकारिया आयोग की सलाह थी. 2004 में जब यूपीए ने एनडीए के राज्यपाल हटाये थे, तब भाजपा के जो तर्क थे, वही आज कांग्रेसी जुबान पर हैं.

राज्यपाल का पद बदरंग होता जा रहा है. पार्टियां अपने सीनियर नेताओं को वक्त काटने के लिए इस पद पर नियुक्त कर रही हैं. राज्यपाल का काम महलों में रहना, दावतों में शामिल होना, समारोहों में शिरकत करना और दस्तावेजों पर दस्तखत करना ही नहीं था. संविधान सभा ने जब इस पद को लेकर विमर्श किया था, तब यह पद राज्यों के कार्यपालिका प्रमुख ही नहीं संघीय व्यवस्था में केंद्र और राज्य के बीच महत्वपूर्ण सेतु का था, पर बन गया वह केंद्र का राजनीतिक एजेंट, जिसे न तो सरकारिया आयोग ने सही माना और न ही सुप्रीम कोर्ट ने.

पिछले हफ्ते उत्तराखंड के राज्यपाल अजीज कुरैशी का मसला अदालत में उठा है, जिसमें राज्यपाल ने सवाल उठाया है कि मुङो राष्ट्रपति ने नियुक्त किया है. गृहमंत्री मुङो हटानेवाले कौन होते हैं? यूपीए सरकार के समय में नियुक्त किये गये कुछ राज्यपालों ने एनडीए सरकार द्वारा गृह सचिव के जरिये भेजे गये संदेश के बाद पद छोड़ दिया था, लेकिन कुरैशी ने मोदी सरकार से टकराने का फैसला किया. अब अदालत के सामने राज्यपालों की नियुक्ति और उन्हें हटाये जाने से जुड़े ज्यादा बड़े सवाल भी सामने आयेंगे. यह भी कि इस पद की सांविधानिक भूमिका कितनी है और इसके पीछे की राजनीति क्या है.

संसदीय लोकतंत्र की खूबी यह है कि हरेक संस्था को अपने दायरे में स्वतंत्र होकर काम करने की छूट है. यह व्यवस्था किसी को निर्द्वद होकर काम करने की छूट नहीं देती. उत्तर प्रदेश के नये राज्यपाल राम नाइक ने राज्यपाल पद पर नियुक्ति की घोषणा के बाद 15 जुलाई को भारतीय जनता पार्टी की प्राथमिक सदस्यता के साथ-साथ सभी पदों से इस्तीफा दे दिया था. एक इंटरव्यू में वे कहते हैं कि राज्यपाल नियुक्त करने की जो परंपरा है सो है, पर नियुक्ति के बाद उन्हें पार्टी के हितों से ऊपर उठ कर काम करना चाहिए. दूसरी महत्वपूर्ण बात वे यह कहते हैं कि यह राजनीतिक नियुक्ति है और केंद्र में सरकार बदलने के बाद राज्यपाल को खुद पद से हट जाना चाहिए. सवाल है कि क्या यह बात व्यक्तियों के विवेक पर छोड़ी जानी चाहिए?

केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के पहले से ही इस बात की चर्चा शुरू हो गयी थी कि सबसे पहले वे राज्यपाल हटाये जायेंगे, जो कांग्रेस से सीधे जुड़े हुए हैं. इसके बाद खबर आयी कि छह राज्यपालों को सलाह दी गयी है कि वे इस्तीफा दे दें. कुछ ने इस्तीफे दे दिये, तो कुछ ने आना-कानी की. ताजा मामला महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल के शंकरनारायणन का है, जिनका तबादला मिजोरम कर दिया गया था. उन्होंने वहां जाने के बजाय इस्तीफा देना उचित समझा. हाल में कमला बेनीवाल वहीं लाने के बाद हटायी गयी थीं. अंदेशा इस बात का था कि अब केरल की राज्यपाल शीला दीक्षित का तबादला मिजोरम होगा. ऐसा होने के पहले ही शीला दीक्षित ने भी इस्तीफा दे दिया है.

राज्यपाल के पद का दुरुपयोग लगभग सभी ताकतों ने अलग-अलग वक्त पर किया है. कांग्रेस को खासतौर से इसका श्रेय जाता है. यह काम 1950 के दशक से चल रहा है, जब केरल की सरकार को बर्खास्त करने में राज्यपाल का इस्तेमाल किया गया. 2004 में यूपीए सरकार बनने पर राज्यपालों को बर्खास्त किया गया था. इसके खिलाफ भाजपा के पूर्व सांसद बीपी सिंघल ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी, जिस पर मई, 2010 में अदालत की संविधान पीठ ने कुछ दिशा-निर्देश जारी किये थे. अदालत ने कहा कि यदि बर्खास्त राज्यपाल अदालत आयेंगे तो सरकार को अपने निर्णय का औचित्य सिद्ध करना होगा. अदालत ने कहा, राज्यपाल केंद्र सरकार का एजेंट नहीं है और न किसी राजनीतिक टीम का सदस्य है.

केंद्र में सरकार बदलने के बाद प्रशासनिक व्यवस्था बदलती ही है, पर कितनी? अब यह विचार करने का समय है कि किन बातों को राजनीतिक नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए? कौन से पद राजनीतिक हैं और किन पदों को राजनीति से परे रखा जाना चाहिए? पिछले हफ्ते राज्यपाल, लोकसभा में विपक्ष के नेता और सीएजी को लेकर कुछ गंभीर सवाल उठे हैं. पूर्व सीएजी विनोद राय ने कहा कि यूपीए सरकार ने उन पर दबाव डाला था कि घोटाले में शामिल कुछ मंत्रियों के नाम अपनी रिपोर्ट से हटा दें. लोकसभा में विपक्ष के नेता की नियुक्ति नहीं हो पाने के पीछे क्या राजनीति है? सारे सवाल घूम-फिर कर इस बात पर केंद्रित होते हैं कि राजनीति और संस्थाओं के बीच कैसी रेखा होनी चाहिए? इसे कौन खींचेगा? और यह खींच भी दी गयी, तो इसके अनुपालन को कौन सुनिश्चित करेगा?

लंबी जद्दोजहद के बाद लोकपाल कानून बन तो गया, लेकिन अब नयी सरकार लोकपाल की नियुक्ति नहीं कर पा रही है. विपक्ष का नेता न हो पाने के कारण कानूनी पेंच आ गया है. विपक्ष के नेता का पद सदन के भीतर का मामला है, लेकिन प्रकारांतर से यह मसला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है. अदालत ने कहा कि सरकार नेता विपक्ष के विवाद को सुलझाने में नाकाम रहती है, तो हम निर्णायक फैसला सुना सकते हैं.

एक और मसला न्यायिक समीक्षा के लिए सामने आ सकता है, जो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के शक्ति-पृथक्करण को परिभाषित करेगा. संसद के दोनों सदनों ने न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना और उसे संवैधानिक दर्जा देनेवाले विधेयकों को लगभग सवार्नुमति से स्वीकार कर लिया. लेकिन इसके साथ न्यायपालिका और विधायिका के मतभेद की पृष्ठपीठिका भी तैयार हो गयी है. यह मसला न्यायपालिका और सरकार के परामर्श से सुलझाया जाना चाहिए था. बहरहाल, समस्याएं सामने आयी हैं, तो समाधान भी आयेंगे, इस यकीन के साथ इंतजार करें इन बातों की तार्किक परिणतियों का.

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