अनंतमूर्ति ने सदैव भूमंडलीकरण का विरोध किया, भारतीय भाषाओं को सर्वाधिक महत्व दिया, राजा राममोहन राय के विचार से असहमति प्रकट की कि अंगरेजी के बिना भारत की प्रगति असंभव है. वे हिंदी को ‘भारतीय’ बनता देखना चाहते थे.
जिस समय भारतीय लेखक और सार्वजनिक बुद्धिजीवी बहुत कम हों, उस समय उडुपी रंगनाथाचार्य अनंतमूर्ति, (21 दिसंबर 1932-22 अगस्त 2014) जिन्हें सब यूआर अनंतमूर्ति नाम से जानते हैं, का निधन एक बहुत बड़ी क्षति है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके निधन को कन्नड़ साहित्य की क्षति कहा है, जिसे मुकुल केसवन ने, अपने लेख ‘फुल्ली ह्यूमन’ में सबसे बड़ी प्रशंसोक्ति कह कर यह बताया है कि कन्नड़ उनका घर था और दुनिया इसका प्रदेश (कन्नड़ वाज होम एंड वर्ल्ड वाज इट्स प्रोविंस).
कन्नड़ में 1950 से विनायक कृष्ण गोकाक और गोपाल कृष्ण अडिग ने जिस ‘नव्या आंदोलन’ का प्रवर्तन किया, अनंतमूर्ति उसके प्रवक्ता बने. अनंतमूर्ति के साथ पी लंकेश, एके रामानुजन, चंद्रशेखर कंबार, गिरीश कर्नाड आदि कई लेखक इस आंदोलन से जुड़े थे. 1966 में बर्मिघम विवि से पीएचडी करनेवाले अनंतमूर्ति का शोध कार्य ‘तीस के दशक की यूरोपीय राजनीति’ पर था. ‘शक्ति’ और ‘गुण’ को वे सदैव एक साथ नहीं देखते थे. उनके लिए ‘सृजन’ का पसीने और मिट्टी की गंध से संबंध है. राजनेता उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं रहे. वे लोहिया से प्रभावित थे. उन्होंने लोहिया को ‘उच्चकोटि का निर्लिप्त शोधकर्ता’ कहा है. लेखन-कार्य की दृष्टि से ही नहीं ‘अपने कन्नड़ साहित्य की जानकारी पाने’ में भी उन्हें लोहिया की चिंतन-प्रणाली उपयुक्त लगी थी. वे सत्य की बहुमुखता के प्रति लोहिया की सजगता के कायल थे.
अनंतमूर्ति ने अपने को ‘आचोलचनाशील अंतरवासी,’ अंदर का आलोचक (क्रिटिकल इनसाइडर) कहा है. कन्नड़ भाषा की हजार वर्ष की जीवंत परंपरा से वे जुड़े थे. ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित (1994) होने पर अपने अभिभाषण में उन्होंने यह कहा था कि परंपरा से झगड़े बगैर वर्तमान में हम सज्जन कर्म नहीं कर सकते. उनके लिए भारतीय भाषा और संस्कृति महत्वपूर्ण थी.
चौबीस वर्ष की आयु में मैसूर विवि से अंगरेजी (एमए) में स्वर्ण पदक प्राप्त करनेवाले अनंतमूर्ति का समस्त लेखन कन्नड़ में है. ‘संस्कार’ (1965) उपन्यास के प्रकाशन के पूर्व उनके दो कहानी संग्रह-‘ऐंदेदू मुगियद कथे’(कभी समाप्त न होनेवाली कहानी) 1955 में और ‘प्रश्ने’ (प्रश्न) 1963 में प्रकाशित हो चुके थे. ‘संस्कार’ उपन्यास से उन्हें राष्ट्रीय ख्याति मिली. अडिग के ‘भूत’ काव्य की पंक्तियों ने उन्हें ‘संस्कार’ लिखने की प्रेरणा दी. ‘संस्कार’ लिखते समय उनका ध्यान विषमताओं के प्रति था. उनको, जैसा कि आजकल हिंदी में चलन है, किसी विभक्तिवादी नजरिये से नहीं देखा जा सकता. ‘संस्कार’ पर कुछ स्त्रीवादी आलोचकों का यह आरोप था कि वह पुरुष पात्रों की तुलना में स्त्री पात्रों का महत्व नहीं है. जहां तक स्त्री-स्वतंत्रता का प्रश्न है, उन्होंने अपने यहां अधिक स्वतंत्र स्त्रियां नहीं देखी थीं. ‘जो है, वही लिखना चाहिए, जो नहीं है, उसका इशारा भर कर देना चाहिए.’
‘संस्कार’ में नारायणम्मा और प्राणोशाचार्य के मन को संस्कार भूत बन कर सताते हैं. संस्कारबद्ध, परंपराबद्ध व्यक्ति यथास्थिति के समर्थक होते हैं. अनंतमूर्ति ‘ईसा’ और ‘मुहम्मद’ को ऐतिहासिक व्यक्ति मानते थे, राम को नहीं. वे भारतीय संस्कृति के हिमायती थे, न कि हिंदू संस्कृति के, जिसे ‘अब्रहामी’ बनाने का प्रयत्न किया जाता है. ईसाइयों, यहूदियों, मुसलमानों के मूल पुरुष अब्राहम से उत्पन्न भाव है, अब्रहामी. ‘हिंदू धार्मिकता को उतनी संभावनीयताएं या शास्त्रधार प्राप्त नहीं है, जितने ईसाई तथा इसलाम धर्म को प्राप्त है.’ भारतीय संस्कृति की विशेषता उसकी बहुलता है. उन्होंने कहा है कि साहित्य में कोई भी कट्टर सनातनी हिंदू ‘आदरणीय व आदर्श व्यक्ति’ नहीं है. स्वाभाविक था, उनके द्वारा निरंकुश शासन और धार्मिक कट्टरता का विरोध. अपनी इस समग्र भारतीय दृष्टि के कारण वे दक्षिणपंथी संगठनों के कोपभाजन बने. उनमें यह बौद्धिक साहस था कि वे अपनी स्वतंत्र आवाज सबके सामने रखे.
अनंतमूर्ति ‘वर्चस्व’ के खिलाफ थे. धर्म, जाति, संपद्राय और संकीर्ण सोच से उनका विरोध था. उनका साहित्यिक विकास ‘बेंद्र, कुवेंपू, मास्ति और गोपाल कृष्ण अडिग की परंपरा’ में हुआ है. ईमानदार विद्रोही साहित्य उन्होंने बसण्णा, अक्क, महादेवी और कबीर में देखा. उनकी कृतियों के अनेक भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुए. ‘संस्कार’ का हिंदी अनुवाद चंद्रकांत कुसनूर ने किया. एके रामानुजन ने इसका अंगरेजी अनुवाद कर इसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलायी. 2013 में अनंतमूर्ति मैन बुकर अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए नामित थे. ‘संस्कार’ और ‘भारतीपुर’ (1973) के अलावा अवस्थे (1978) और ‘भव’ (1994) उनके प्रमुख उपन्यास हैं.
उन्होंने ‘कन्नड़ काव्य संग्रह’ (1972) का संपादन और लाउत्से के सूत्रों का अनुवाद किया. (दाव्य जिंग -1994) एक आलोचक-विचारक और सार्वजनिक बुद्धिजीवी के रूप में वे हमारे लिए कहीं अधिक मूल्यवान हैं. उनकी आलोचना- पुस्तकों में प्रमुख हैं- ‘सन्निवेश’(1974), समक्षम (1980) (समक्ष), ‘प्रश्ने मत्तु परिसर’ (1971), पूर्वत्पर (1990), ‘बेत्तले पूजे याके कुडदू’ (996) (नगA पूजा-पद्धति क्यों मना है?), ‘संस्कृति मत्तु अडिग’ (1996). उनके कविता संग्रह हैं- ‘हैदिनैदु पद्यगुलु’ (1970) और ‘अज्जनहेगल सुक्कुगलु’(1989) (दादा के कंधों की झुर्रियां). उनका नाटक है- ‘आवाहने’ (1968) (आह्वान).
महत्वपूर्ण यह नहीं है कि वे कुछ समय के लिए आयोवा विवि में रहे या टफ्टस विवि और कई विश्वविद्यालयों में अतिथि प्राध्यापक, कोट्टायम (केरल) में महात्मा गांधी विवि के कुलपति (1987) रहे, नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष (1992) और केंद्रीय साहित्य अकादमी के अध्यक्ष (1993) बनेपद्मभूषण (1998) से सम्मानित हुए, महत्वपूर्ण यह है कि वे ‘सार्वजनिक साक्षरता’ के प्रवक्ता थे और यह मानते थे कि ‘सार्वजनिक साक्षर ज्ञान’ से ही ‘नयी प्रज्ञा का आविर्भाव’ संभव है. वे ‘निरक्षरता का उन्मूलन’ चाहते थे. साक्षरता के बिना वैचारिक क्रांति संभव नहीं मानते थे. उनकी दृष्टि में लेखक ‘विशिष्ट प्राणी’ नहीं है. लेखक को ‘सार्वजनिक विभूति’ होने से बचना चाहिए.
कर्नाटक के शिमोगा जिले के तीर्थहल्ली ताल्लुक के मेठिगे गांव में जन्मे अनंतमूर्ति ने सदैव भूमंडलीकरण का विरोध किया, भारतीय भाषाओं को सर्वाधिक महत्व दिया, राजा राममोहन राय के विचार से असहमति प्रकट की कि अंगरेजी के बिना भारत की प्रगति असंभव है. वे हिंदी को ‘भारतीय’ बनता देखना चाहते थे. उन्होंने केबी सुबन्ना के साथ मिल कर शिमोगा जिले के हेगगोदू गांव में ‘नीनासम’ जैसा सांस्कृतिक संगठन या ढांचा तैयार किया और यह लिखा कि भारत अनेक शताब्दियों से एक साथ रहने के कारण जीवित है.
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
delhi@prabhatkhabar.in