बदले-बदले से सरकार नजर आते हैं

एक वादे को घोषणा में बदलना और उसके तुरंत बाद काम शुरू कर देना रायसीना हिल्स की कार्य-संस्कृति में आये बड़े बदलाव को दिखा रहा है. अपनी जापान यात्रा में उन्होंने बुलेट ट्रेन की तकनीक के लिए समझौता निपटा लिया.. मोदी सरकार के 100 दिन पूरे होने का लेखा-जोखा हो, उनके जापान दौरे के आर्थिक-कूटनीतिक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 3, 2014 12:50 AM

एक वादे को घोषणा में बदलना और उसके तुरंत बाद काम शुरू कर देना रायसीना हिल्स की कार्य-संस्कृति में आये बड़े बदलाव को दिखा रहा है. अपनी जापान यात्रा में उन्होंने बुलेट ट्रेन की तकनीक के लिए समझौता निपटा लिया..

मोदी सरकार के 100 दिन पूरे होने का लेखा-जोखा हो, उनके जापान दौरे के आर्थिक-कूटनीतिक फलितार्थ हों या अभी-अभी सामने आये विकास दर के आंकड़े हों, इन सबमें एक बात समान रूप से सामने आ रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन सबमें एक ही संकेत दे रहे हैं- मोहि कहां विश्रम. जब तक लोग किसी नयी योजना की घोषणा पर यह मीन-मेख निकालने में जुटे होते हैं कि इस पर काम हो भी सकता है या नहीं, तब तक उस योजना के अमल की नयी खबरें आ जाती हैं.

स्वाधीनता दिवस के मौके पर लाल किले के प्राचीर से घोषित जन धन योजना को लोगों ने जरा समझना शुरू ही किया था कि दो हफ्ते के अंदर 28 अगस्त को प्रधानमंत्री ने इस योजना का आरंभ भी कर दिया. उसी दिन पौने दो करोड़ खाते खुलने का नया रिकॉर्ड भी बन गया. एक साफ संदेश गया है कि यह सरकार कुछ अलग ढंग से काम करती है. जितने समय में पहले सरकारी फाइलें एक टेबल से हिल कर दूसरी टेबल पर जाती थीं, उतने समय में यहां परिणाम दिखने लगता है.

जब बुलेट ट्रेन की बात चली थी, तो बहुत-से लोगों ने शुरू में कहा था कि घोषणापत्र में वादे करना आसान है, करके दिखाना मुश्किल. मगर अपने पहले ही बजट में मोदी सरकार ने इसकी घोषणा करके अपने इरादों का संकेत दे दिया. हालांकि, बुलेट ट्रेन प्राथमिकता होनी चाहिए या नहीं और वह तुलनात्मक रूप से भारत के लिए फायदेमंद है या नहीं, इस पर काफी लोग आश्वस्त नहीं हैं. मेरे मन में भी शंकाएं हैं. लेकिन एक वादे को घोषणा में बदलना और उसके तुरंत बाद काम शुरू कर देना रायसीना हिल्स की कार्य-संस्कृति में आये बड़े बदलाव को दिखा रहा है. अपनी जापान यात्र में उन्होंने बुलेट ट्रेन की तकनीक के लिए समझौता निपटा लिया. कोई और सरकार होती, तो शायद इन 100 दिनों में एक नयी समिति बनाने के बारे में ही विचार कर रही होती.

नरेंद्र मोदी ने बुलेट ट्रेन के समझौते के साथ-साथ वाराणसी-क्योटो समझौता भी किया! हालांकि कुछ लोगों की भौंहें इस पर भी टेढ़ी हैं. वे व्यंग्य में कह रहे हैं- हुंह, बड़े आये बनारस को क्योटो बनानेवाले! बनारस को बनारस ही रहने दें! लेकिन बनारस जैसा है, वैसा ही रहने देने पर साल भर बाद वे ही लोग ठेठ बनारसी अंदाज में पूछेंगे- का गुरु, का उखाड़ लेला! बनारस को क्योटो बनाने की जरूरत नहीं. लेकिन एक पुरातन शहर की सांस्कृतिक पहचान को बचाये रखते हुए आधुनिक विकास के रास्ते तलाशने में अगर क्योटो से कुछ सीखा जा सकता है, तो इसमें चिढ़नेवाली कौन-सी बात है? हम गंगा को मां कहते हैं, लेकिन उसके पानी को इतना गंदा करके रखते हैं कि भक्ति भाव हटा दें, तो पांव रखने में भी हिचक हो. ऐसे में अगर जापान से, या यूरोप के देशों से यह सीखा जा सके कि उद्योगों और बड़े शहरों के कचरे के बोझ से एक नदी को कैसे मुक्त किया जा सकता है, तो इसमें कैसा अहंकार?

मोदी जापान से अगले पांच वर्षो में 2.1 लाख करोड़ रुपये के निवेश का वादा लेकर आ रहे हैं. जापान से हुए समझौतों के केंद्र में मुख्य रूप से भारत के बुनियादी ढांचे का विकास है. मोदी की इस यात्र की सफलता और दोनों देशों के बीच दिखी गर्मजोशी के अपने कूटनीतिक संदेश भी हैं. ये संदेश हैं अमेरिका और चीन के लिए. इन दोनों देशों के कूटनीतिक हलकों में छटपटाहट दिखनी शुरू हो गयी है. अब भारत को इस छटपटाहट का इस्तेमाल इन दोनों देशों के साथ अपने मोलभाव में करना है. इतना स्पष्ट है कि मोदी जब अमेरिका की यात्रा पर जायेंगे, तो भारत मजबूत मोलभाव करने की स्थिति में होगा.

हालांकि, लोग जब मोदी सरकार के 100 दिनों का लेखा-जोखा करने बैठते हैं, तो दो बातें ध्यान में आती हैं- महंगाई और काला धन. इन मोर्चो पर मोदी सरकार कोई प्रत्यक्ष परिणाम अब तक नहीं दिखा पायी है. हालांकि, वित्त मंत्री अरुण जेटली कहते रहते हैं कि महंगाई पर नियंत्रण पाना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है. भाजपा के प्रवक्ता प्रतिशत के आंकड़े देकर यह बताने की कोशिश करते हैं कि पिछले वर्षो की तुलना में इस बार महंगाई बढ़ने की गति कम रही है. लेकिन जनता तो केवल इतना देखती है कि बाजार जाने पर जेब कितनी हल्की हो रही है.

महंगाई की मार में कोई कमी न आते देख समाज के निचले तबकों ने अपनी निराशा जताना शुरू कर दिया है. अर्थव्यवस्था में सुधार और सरकार की कार्य-संस्कृति में बदलाव जैसी बातें समाज के बड़े हिस्से तक नहीं पहुंच पातीं. मोदी सरकार जिस लहर पर सवार होकर सत्ता में आयी है, उसे बचाये रखने के लिए जरूरी है कि वह महंगाई से राहत दिलाये. आपने आलू-प्याज को आवश्यक वस्तु अधिनियम में शामिल कर दिया, अच्छा किया. आपने जमाखोरी को गैर-जमानती अपराध बनाने का प्रस्ताव रखा है, अच्छा है. फल-सब्जियों को एपीएमसी एक्ट से बाहर करने की बात हो रही है, अच्छा है. लेकिन इन बातों का असर गली से गुजरते ठेलेवाले की सब्जियों के दामों पर दिखना जरूरी है.

सोशल मीडिया पर काले धन को लेकर चुटकुले फैलने भी शुरू कर दिये हैं. लोग बाबा रामदेव की तलाश कर रहे हैं, विदेश से वापस लाये गये काले धन में से अपना हिस्सा पाने के लिए! लेकिन इस हंसी-मजाक से अलग एक गंभीर प्रक्रिया सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में चल रही है. काले धन पर जो एसआइटी बनायी गयी है, उसकी कार्रवाई और तैयारियों के बारे में हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने भी संतोष जताया है.

शायद, यह पहला मौका होगा जब सर्वोच्च न्यायालय ने काले धन को लेकर होनेवाली कार्रवाई पर संतोष जताया हो. यह तो एक संयोग ही रहा है कि मोदी सरकार बनने के बाद इसका पहला बड़ा फैसला काले धन पर एसआइटी के गठन का ही था. हालांकि इस गठन का श्रेय काफी हद तक सर्वोच्च न्यायालय को ही जाता है, लेकिन इस बात को भी नजरअंदाज करना उचित नहीं होगा कि पिछली सरकार बार-बार अदालत की फटकार खाकर भी एसआइटी के गठन को टाल रही थी.

जहां तक अर्थव्यवस्था की बात है, अप्रैल-जून की पहली तिमाही में देश की विकास दर ने अप्रत्याशित ढंग से 5.7 प्रतिशत का स्तर छूकर सुखद आश्चर्य दिया है. इसे मोदी सरकार की अच्छी किस्मत कह लें या लोगों की उम्मीदों का असर, क्योंकि हकीकत तो यही है कि इस तिमाही के शुरू के दो महीने तो यूपीए सरकार के थे! लेकिन इस सरकार के कामकाज के असली नतीजे तो दूसरी तिमाही में ही दिखेंगे. पहली तिमाही में अरसे बाद पूंजी-निर्माण होता दिखा है, जो अर्थव्यवस्था में निवेश-चक्र संभलने का संकेत है. लेकिन दूसरी तिमाही में यह रुझान जारी रहने के बाद ही इसे पुख्ता तौर पर मानना बेहतर होगा.

राजीव रंजन झा

संपादक, शेयर मंथन

Rajeev@ sharemanthan.com

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