यूआर अनंतमूर्ति का लगभग समूचा लेखन कन्नड़ में है, फिर भी उनके प्रशंसकों की बड़ी संख्या है. वे सौभाग्यशाली थे कि उनकी कुछ उत्कृष्ट रचनाएं अंगरेजी सहित अन्य भाषाओं में अनुदित हुईं. यह महत्वपूर्ण है कि अनंतमूर्ति ने जाति-व्यवस्था के अपमान और पतन के बारे में कहा-लिखा, जबकि वे जाति से स्वयं ब्राह्नाण थे. वे जन्म पर आधारित सामाजिक विषमता के एक लाभार्थी थे, लेकिन इसके विरुद्ध उन्होंने विद्रोह किया.
दोयम दर्जे के हमारे वर्तमान बौद्धिक विमर्श के परिदृश्य में निरंतर गहन और गंभीर बनी रही एक आवाज अब हमारे बीच नहीं है. यूआर अनंतमूर्ति के 22 अगस्त को निधन के साथ देश ने एक प्रभावशाली लेखक, विचारक, दार्शनिक और लोक कार्यकर्ता खो दिया है. उनका हमेशा यह मानना था कि लेखक एक तटस्थ इकाई नहीं होता, जो अपनी दृष्टि की अभिव्यक्ति तो करता है, लेकिन उसके विचार में उचित बातों के पक्ष में हो रहे संघर्ष में उसकी आवश्यकता नहीं होती. उनके विचार में लेखक समाज और राजनीति का सचेत हिस्सा होता है, और उसे अपने समय के महत्वपूर्ण मसलों से जूझने के लिए अपनी कलम का इस्तेमाल करना चाहिए. आज के ‘लोक’ बहस के नीरस औचित्य में वे मौलिक रूप से चलताऊ परिपाटी से अलग रहे और उन्होंने आवश्यकता के अनुरूप अपना विरोधी स्वर गुंजायमान किया, न कि महज चर्चा में बने रहने के इरादे से.
अनंतमूर्ति को मैंने पहली बार ठीक से तब जाना, जब उन्होंने अफ्रो-एशियन लिटरेरी फेस्टिवल में आने के मेरे आमंत्रण को स्वीकृत किया. यह फेस्टिवल 2006 में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् द्वारा आयोजित किया गया था, जब मैं इसका महानिदेशक था. आयोजन-स्थल दिल्ली के निकट स्थित ऐतिहासिक नीमराना किला था, जिसका अमन नाथ और फ्रांसिस वाक्जिराग ने बहुत सुरुचिपूर्ण ढंग से पुनर्निर्माण किया है. उस समय अनंतमूर्ति का स्वास्थ्य पहले से ही खराब था, फिर भी वे ठीक-ठाक तरीके से चल-फिर सकते थे. किले में प्रवेश के लिए बड़ी-बड़ी सीढ़ियां चढ़नी थी, और मैं उनकी क्षमता को लेकर आशंकित था, पर अनंतमूर्ति ने बड़ी सहजता से यह चुनौती स्वीकार कर ली थी.
यह सम्मेलन एक अन्य महान लेखक गुलजार की उपस्थिति के कारण भी स्मरणीय था. उस यादगार जगह पर गुलजार से हमारी मुलाकात, कम-से-कम मेरे लिए, बहुत महत्वपूर्ण थी. इसका परिणाम एक ऐसी दोस्ती का मिलना था, जो मेरी सबसे कीमती संपत्तियों में एक है, और वे कई किताबें हैं, जिनमें उनकी कविताओं के मेरे अनुवाद हैं और मेरी महाकाव्यात्मक रचना युधिष्ठिर और द्रौपदी का उनका अनुवाद है.
अनंतमूर्ति की यादों की ओर लौटें. वे उस आयोजन में अपनी मातृभाषा में लिखने के महत्व और अपनी भाषाओं को सम्मान देने के आग्रह को लेकर सबसे शक्तिशाली आवाजों में से एक थे. यह कोई नया तर्क नहीं था, लेकिन इस सम्मेलन के संदर्भ में, जहां भारत के अलावा एशिया और अफ्रीका के बहुत-सारे जाने-माने लेखक उपस्थित थे, इस बात ने बहुत प्रभाव डाला. उनके सरल, लेकिन दृढ़ तर्क से यह बात रेखांकित हुई कि उपनिवेशवाद की जकड़न में रहे समाजों को हुए सबसे बड़े नुकसानों में एक, उनकी अपनी भाषाओं का खो जाना है. कुछ समय बाद दिल्ली में एक व्याख्यान में उन्होंने इस बात को दोहराया- ‘हमारी स्मृतियां खो जायेंगी. हमें अंगरेजी की जरूरत है, लेकिन ‘कॉल सेंटर’ जैसी नहीं. यह ज्ञान का द्वार नहीं है. हमें अपनी भाषा गढ़ने की आवश्यकता है. भारत में अंगरेजी अभिजन साधारण जन की तरह सुसंस्कृत नहीं है. अंगरेजी जरूर पढ़ायी जानी चाहिए, लेकिन विद्यालयों में बच्चों को अपनी भाषा की निर्मित करनी होगी, क्योंकि हम अंगरेजी में नहीं सोचते हैं. यह एक प्राप्त भाषा है.’
बहुत सरल, पर अनंतमूर्ति द्वारा अर्थपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त किये गये इस विचार पर भारत में और बाहर उनके अनेक प्रतिष्ठित समकालीनों की सहमति है. प्रोफेसर नामवर सिंह ने यह महत्वपूर्ण बात कही है कि कोई भाषा किसी अन्य भाषा का स्थानापन्न नहीं हो सकती है. मां के दूध की तरह हमें मातृभाषा भी बचपन में प्राप्त होती है. कोई विदेशी भाषा अतिरिक्त रूप से सीखी जा सकती है, परंतु वह मातृभाषा का विकल्प कतई नहीं हो सकती है. मेधावी केन्याई लेखक गुगी वा थिंगो अपनी किताब ‘डिकोलोनाइजिंग द माइंड’ इस कथन से शुरू करते हैं कि अंगरेजी में यह उनकी अंतिम किताब होगी, और अब से वे सिर्फ गियुकु और किशवाहिली में ही लिखेंगे, क्योंकि एक विदेशी भाषा बस संचार की ही भाषा हो सकती है, संस्कृति और इतिहास का वाहक नहीं.
संस्कृत के महान अमेरिकी विद्वान शेल्डन पोलॉक ने बताया है कि 1947 तक, और उससे पहले सदियों तक, भारत में भाषा-शास्त्र के विद्वान होते रहे थे, जिनकी तुलना विश्व के महानतम विद्वानों से की जा सकती है. इन विद्वानों ने हमारी सारी भाषाओं में और फारसी, प्राकृत, संस्कृति और उर्दू में उत्कृष्ट काम किया, जो अमूल्य संदर्भ ग्रंथ हैं और हमारी संस्कृति की जड़ों को जानने के सूत्र हैं. दुर्भाग्यवश, पिछले कुछ दशकों से इस साहित्यिक धरोहर पर न के बराबर काम हुआ है. स्थिति यह है कि विदेशी विश्वविद्यालय हमारी भाषाओं से संबंधित अध्ययन केंद्रों को बंद कर रहे हैं. पोलॉक ने उदाहरण दिया है कि एक अमेरिकी संस्थान को ऐसा तेलुगू प्रोफेसर नहीं मिल सका, जिसकी क्लासिकल तेलुगू परंपरा पर विशेषज्ञता हो.
अनंतमूर्ति का लगभग समूचा लेखन कन्नड़ में है, फिर भी उनके प्रशंसकों की बड़ी संख्या है. वे सौभाग्यशाली थे कि उनकी कुछ उत्कृष्ट रचनाएं अंगरेजी सहित अन्य भाषाओं में अनुदित हुईं. उनके क्लासिक उपन्यास संस्कार, जो 1965 में लिखा गया था, पर एक फिल्म बनी, जिसने कई पुरस्कार जीते और यह उपन्यास एक ब्राrाण गांव की निर्थक और अनुचित मान्यताओं की जोरदार निंदा करने के कारण एक सनसनी बन गया था. यह महत्वपूर्ण है कि अनंतमूर्ति ने जाति-व्यवस्था के अपमान और पतन के बारे में कहा-लिखा, जबकि वे जाति से स्वयं ब्राrाण थे. वे जन्म पर आधारित सामाजिक विषमता के एक लाभार्थी थे, लेकिन इसके विरुद्ध उन्होंने विद्रोह किया, क्योंकि उनमें स्वयं के लिए सोचने की क्षमता थी और उन्होंने खूब अच्छी तरह पढ़ा था, जिनमें राममनोहर लोहिया का लेखन भी शामिल था.
हाल के दिनों में अस्वस्थ रहने और डायलिसिस पर होने के बावजूद, अनंतमूर्ति ने सांप्रदायिकता के खतरों, भारत के बहुलवादी मूल्यों और फासीवाद के उदय में जातिगत पहचान व धर्म के उपयोग पर निर्भीकता से अपनी बात रखी. संघ परिवार के अतिवादी तबकों ने उनकी बहुत निंदा की. ऐसी भी खबरें आयीं कि उनकी मृत्यु पर इन समूहों के कुछ सदस्यों ने आतिशबाजी कर खुशी मनायी. क्या इन लोगों ने उनकी किताबें पढ़ी हैं? क्या ये लोग उनके काम की बौद्धिक गहराई और स्तर से वाकिफ हैं? अपढ़ धर्माधों का अतिवाद हमारे समाज के सबसे बड़े खतरों में शामिल हो गया है. अनंतमूर्ति की भद्र, पर सुदृढ़ विरासत उन लोगों के लिए हमेशा प्रेरणास्नेत रहेगी, जो भारत के लिए एक भिन्न दृष्टिकोण रखते हैं.
पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
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