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जापानी चाय जैसी कूटनीति का जायका

मोदी जी जिस तरह से बयानों के प्रक्षेपास्त्र दाग रहे हैं, क्या उससे पड़ोसी देशों से संबंध ठीक हो पायेंगे? ऐसा लगता है, जैसे मोदी जी ‘अनगाइडेड मिसाइल’ हैं, जो बयान देने से पहले विदेश मंत्रालय के कूटनीतिकों से मशविरा नहीं करते. तकरीबन बीसेक साल पहले जापानी दूतावास ने चाय का आयोजन किया था, तब […]

मोदी जी जिस तरह से बयानों के प्रक्षेपास्त्र दाग रहे हैं, क्या उससे पड़ोसी देशों से संबंध ठीक हो पायेंगे? ऐसा लगता है, जैसे मोदी जी ‘अनगाइडेड मिसाइल’ हैं, जो बयान देने से पहले विदेश मंत्रालय के कूटनीतिकों से मशविरा नहीं करते.

तकरीबन बीसेक साल पहले जापानी दूतावास ने चाय का आयोजन किया था, तब हम सभी पत्रकारों और दूसरे अतिथियों को अंदाजा नहीं था कि जापानी चाय पीने में आधा दिन निकल जाता है. किमोनो पहने कमसिन युवतियां फुट भर की ऊंचाई वाले टेबल पर हमें तरह-तरह के कोर्स से रूबरू करा रही थीं. हरी पत्तियों वाली फीकी जापानी चाय के लिए इतना तामझाम! कहां हम ढाबों और ठेलों की कड़क चाय पीने के आदी थे, और कहां चार घंटे की जापानी चाय! रेलवे स्टेशनों और ट्रेन में तो मुंह से निकला नहीं कि केतली की चोंच से चाय बाहर! स्टेशन मार्का फटाफट चाय के आदी मोदी जी को कूटनीति में जापानी चाय का जायका कैसा लगा, शायद वे देश से इसका अनुभव साझा करें. शिंजो आबे ने अपने समकक्ष मोदी जी को संदेश दे दिया है कि प्याली में तूफान पैदा करना संभव नहीं है, पांच साल में जापानी एफडीआइ डबल कीजिए, इंफ्रास्ट्रक्चर, स्मार्ट सिटी में सहयोग लीजिए, सिविल नाभिकीय समझौता जल्दबाजी में नहीं हो सकता. क्या इसके पीछे योशीहिरो नोडा की डेमोक्रेटिक पार्टी का दबाव है? भद्रता प्रदर्शित करनेवाला जापान, हमारी तरह भावविह्वल नहीं होता. जापान की अपनी शर्ते हैं. यानी, भारत पहले यह सुनिश्चित करे कि परिशोधित यूरेनियम से वह बम नहीं बनायेगा, या कोई परीक्षण नहीं करेगा.

जापान के पास नाभिकीय हथियार नहीं है, लेकिन वह नाभिकीय नीति तय करता है. 1994 में जापानी दैनिक ‘मैनीची शिंम्बुन’ ने एक गोपनीय दस्तावेज छापा, जिससे पता चला कि जापान परमाणु हथियार नहीं बनायेगा, लेकिन इससे जुड़ी तकनीक और अर्थव्यवस्था को अपने अधीन रखेगा. इस नीति को टेक्नोलॉजिकल डेटरंस (तकनीकी निरोधकारी) नाम दिया गया था. मार्च, 2014 में हेग में तीसरी नाभिकीय सुरक्षा शिखर-वार्ता में जापान ने कार्ड खोला कि वह अमेरिका को सात सौ पाउंड ‘विपन ग्रेड प्लूटोनियम’ उपलब्ध करायेगा. 1988 से अमेरिका-जापान के बीच नाभिकीय सहयोग जारी है, जिसकी मियाद 2018 में समाप्त हो रही है. शिंजो से कोई पूछे कि अमेरिका, ‘विपन ग्रेड प्लूटोनियम’ से क्या कर रहा है?

एक तरफ जापान है, जो प्लूटोनियम के लिए भारत पर शर्ते लगा रहा है, दूसरी ओर भारत है, जो बिना शर्त यूरेनियम से भी कीमती धातु, रेयर अर्थ एलीमेंट (आरइइ) जापान को दे रहा है. आरइइ नामक धातु स्मार्ट फोन, हाइब्रिड कार बैट्री, फ्लोरसेंट टीवी स्क्रीन, सीएफएल बनाने के काम आता है. दुनियाभर में आरइइ का 90 प्रतिशत भंडार चीन के पास है. तस्करी के कारण चीन ने आरइइ के निर्यात को काफी कंट्रोल कर रखा है. भारत के पास यह मात्र तीन प्रतिशत है, जिस पर परमाणु ऊर्जा विभाग का नियंत्रण है. नवंबर, 2012 में आरइइ जापान निर्यात किये जाने पर भारत दस्तखत कर चुका है, अबकी बार मोदी सरकार ने उसकी सप्लाई और बढ़ाने के लिए सहमति दे दी है. सवाल यह है कि क्या आरइइ को भारतीय उद्योग के लिए संचित करना जरूरी नहीं है?

द्वितीय विश्वयुद्घ के बाद पहली बार जापान ‘यूएस-2 एम्फीबिएन एयरक्राफ्ट’ भारत को बेच रहा है. भारतीय नौसेना को ऐसे पंद्रह विमानों की जरूरत है. 2010 से ही समुद्री सुरक्षा के लिए जापान ‘मेरीटाइम सेल्फ डिफेंस फोर्स’ का भारतीय नौसैनिकों से साझा अभ्यास और सैन्य उपकरण बेचने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहा था. क्या यह सब कुछ वैसे ही हो रहा है, जैसा कि अमेरिका चाहता था? इसे ध्यान में रखें कि नवंबर, 2011 में अमेरिका, एशिया-प्रशांत में भारत-जापान के साथ रणनीतिक सुरक्षा का ब्लूप्रिंट दे चुका था. प्रधानमंत्री शिंजो पहले ऐसे नेता हैं, जिन्होंने मार्च 2014 में, 1967 से लगे प्रतिबंध को पलट दिया, जिसमें यह तय किया गया था कि विश्व शांति का प्रणोता जापान, मिल्ट्री हार्डवेयर नहीं बेचेगा. जापान, अमेरिका के साथ मिल कर मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली, एफ-35 मल्टी फाइटर जेट, समुद्री सुरक्षा वाले वोट के निर्माण में व्यस्त है. ऐसी सैन्य सामग्री को बेचने के लिए जापान, इंडोनेशिया से शुरुआत कर रहा है, बाद में पूर्वी एशिया के कई देश उसकी ‘मिल्ट्री मार्केटिंग’ का हिस्सा बनेंगे. जापान के अतीत के कारण अब भी यूरोपीय उपनिवेशवादी उससे घबराते हैं. पूर्वी एशिया में बर्मा से लेकर मलय तक को आजाद कराने के पीछे जापान की मजबूत सैन्य शक्ति थी, जिसे हराने के लिए अमेरिका और पश्चिमी ताकतों को चीन का सहारा लेना पड़ा था. लेकिन अब जापान, अमेरिका का रणनीतिक साझीदार है, उसके साथ ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, न्यूजीलैंड जैसे देश, टोक्यो की ताकत बढ़ा रहे हैं. क्या जापान फिर से एशिया-प्रशांत में एक महान सैन्य शक्ति बनने के सपने पालने लगा है?

शिंजो जितने सहज दिखते हैं, उतने हैं नहीं. हमारे प्रधानमंत्री ने जापान यात्र की शुरुआत पाकिस्तान को कोसते हुए की. शिंजो चुप रहे. जापानी प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान द्वारा एलओसी पर गोलाबारी और आतंकवाद को बढ़ावा देने पर एक शब्द भी नहीं कहा. सोमवार को साझा प्रेस सम्मेलन में शिंजो ने यह भी नहीं कहा था कि मिस्टर मोदी आप चीन के विरुद्घ बयान दीजिए. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी, बिना चीन का नाम लिये बोल गये कि हमारे इर्द-गिर्द अठारहवीं सदी की मानसिकता वाले विस्तारवादी देश हैं, जो पड़ोस की समुद्री और थल सीमाओं में घुसपैठ करते हैं. चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स अपने एक संपादकीय में लिखता है, ‘आबे से मोदी की दोस्ती अच्छी बात है, पर जापान, भारत से काफी दूर है और चीन उसके पड़ोस में है. ‘ब्रिक्स’ में भारत से चीन की रणनीतिक समझदारी विकसित हो रही है. चीनी राष्ट्रपति शी चिनपिंग इसी महीने भारत जा रहे हैं, लेकिन चीनी नेता निकट भविष्य में किसी देश में नहीं जायेंगे, तो वह है जापान.’

चीनी मीडिया की प्रतिक्रिया से लग रहा है कि मोदी के बयान से चीनी नेता आहत हैं. मोदी जी जिस तरह से बयानों के प्रक्षेपास्त्र दाग रहे हैं, क्या उससे पड़ोसी देशों से संबंध ठीक हो पायेंगे? ऐसा लगता है, जैसे मोदी जी ‘अनगाइडेड मिसाइल’ हैं, जो बयान देने से पहले भारतीय विदेश मंत्रलय के कूटनीतिकों से मशविरा नहीं करते. ‘एको अहम्, द्वितीयो नास्ति’ में विश्वास करनेवाले प्रधानमंत्री मोदी, विदेश यात्र में नये-नये प्रतिमान स्थापित कर रहे हैं, उनमें से एक है उनकी यात्रओं में विदेश मंत्री, उद्योग मंत्री का नहीं होना. एक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे, जो अपनी विदेश यात्रओं में संभल कर, लिखा हुआ भाषण बोलते थे. दूसरे प्रधानमंत्री मोदी जी हैं, जो बांसुरी पर तान छेड़ते, तो कभी ड्रम बजाते, बच्चों में घुलते-मिलते, तो कभी नाचते-गाते बिंदास दिखते हैं. सौ दिन में देश, दो चरम सीमाओं से साक्षात्कार कर रहा है!

पुष्परंजन

ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक

pushpr1@rediffmail.com

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