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इकलौता बेटा प्यारा होता है, दुलारा होता है, मां-बाप की पूरी जायदाद का अकेला वारिस होता है, लेकिन इकलौता होने का दर्द क्या होता है, मुझसे पूछिए. बूढ़े मां-बाप गांव में और हम फटीचर नौकरी के लिए हजार किलोमीटर दूर स्थित शहर में. बुरा हो उसका जिसने मोबाइल बनाया, रोज-रोज ताना सुनना पड़ता था कि […]

इकलौता बेटा प्यारा होता है, दुलारा होता है, मां-बाप की पूरी जायदाद का अकेला वारिस होता है, लेकिन इकलौता होने का दर्द क्या होता है, मुझसे पूछिए. बूढ़े मां-बाप गांव में और हम फटीचर नौकरी के लिए हजार किलोमीटर दूर स्थित शहर में.

बुरा हो उसका जिसने मोबाइल बनाया, रोज-रोज ताना सुनना पड़ता था कि ‘बेटा, हम लोगों के बारे में भी सोचो. नौकरी छोड़ कर घर नहीं आ सकते, तो कम से कम बहू ले आओ, हम बूढ़ों को दो जून ठीक से खाना तो मिल जायेगा.’ अब कोई करोड़पति खानदान के तो हैं नहीं कि मां-बाप की सेवा के लिए नौकरी को लात मार दें, सो शादी कर ली. लेकिन जैसा सोचा था, हुआ उसका उल्टा. पत्नी को ‘पिया परेदस में’ रास नहीं आ रहा. वह साथ रहने का हठ ठाने हुए है.

स्त्रीहठ के आगे रामचंद्र जी के पिताजी जब हार गये थे, तो भला मैं किस खेत की मूली हूं. बार-बार समझाता हूं कि साथ रहने से ज्यादा जरूरी कभी-कभी फर्ज निभाना होता है. लेकिन वह समझने को राजी नहीं. बोलती है, मैं बहू का धर्म निभाने को तैयार हूं, लेकिन आप भी पति धर्म निभायें. रामजी तो वनवास में भी पत्नी को साथ लेकर गये थे. मैं कहता हूं कि मुङो भी अलग रहना अच्छा नहीं लगता, लेकिन क्या करूं मजबूरी है. मां-बाप के लिए दो वक्त रोटी का इंतजाम करना ज्यादा जरूरी है. इस पर पत्नी का तर्क होता है कि अब तक रोटी का इंतजाम कैसे होता आ रहा था? और, बहुत कसक है तो खुद ही क्यों नहीं आ जाते मां-बाप की सेवा करने, श्रवण कुमार? वह यह भी नहीं समझती कि अगर मैं घर पर रहूंगा तो पैसे कहां से आयेंगे. अगर अपने पैरों पर हम खड़े न हुए, तो आत्मसम्मान और आत्मविश्वास कहां से आयेगा? पत्नी का कहना है कि मैं तुम्हारे मां-बाप की सेवा करने के लिए नौकरानी तो हूं नहीं, कुछ और इंतजाम कर लो. खैर, अब तो माता- पिता को भी लगता है कि बहू यहां खुश नहीं है. उसे बेटे के पास जाना चाहिए.

आखिर शादी तो साथ रहने के लिए ही होती है. अब इन सबके बीच में पिसता आखिर मैं हूं. न घर पर बेरोजगार बैठ सकता हूं और न ही मां-बाप को बुढ़ापे में काम करते और भोजन-पानी के लिए परेशान होते देखा जाता है. मां-बाप भी अपनी मेहनत से बनाया मकान, नातेदार, रिश्तेदार छोड़ कर मेरे पास नहीं रहना चाहते. आप भी कहेंगे क्या राम कहानी लेकर बैठ गया, लेकिन मित्रो, दुविधा तो है ही.

मन है कि मानता नहीं. वह कहता है कि अपने को कष्ट हो तो चलेगा, अपने प्रियजनों को कष्ट नहीं होना चाहिए. लेकिन यह आज की पीढ़ी नहीं मानती. उसे तो केवल अपने सुख से ही मतलब है. अपनी यह दशा कई लोगों से गाहे-ब-गाहे कही. लेकिन सभी को लगता है कि पत्नी के साथ ज्यादती कर रहा हूं. आप पाठकगण भी मुङो पुराने जमाने का और दकियानूसी समझ रहे होंगे. काश कि मैं भी स्वार्थी हो पाता! मां-बाप को छोड़ कर भी बेफिक्र हो पाता!

अजीत पांडेय

प्रभात खबर, रांची

centraldesk.ran@prabhatkhabar.in

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