।। प्रमोद भार्गव ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
भाजपा के वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी के पदों से इस्तीफा भले वापस ले लिया हो, लेकिन इस इस्तीफे के जरिये उन्होंने भाजपा में तेजी से पनप रहे मोदीवाद को झटका दिया. हालांकि आडवाणी ने अपने त्याग-पत्र में व्यक्तिवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने की जो बात कही थी, उस व्यक्तिवाद को आडवाणी भी बढ़ावा देते रहे थे.
मोदी जिस व्यक्तिवादी आचरण में ढल कर राष्ट्रीय फलक पर उभरे हैं, उसे एक हद तक अंदरूनी शह और मुखर प्रोत्साहन आडवाणी से ही मिला है. जब गुजरात में नरेंद्र मोदी के बढ़ते व्यक्तिवादी एजेंडे का केशुभाई पटेल ने विरोध किया था, तब आडवाणी ने इसकी अनसुनी कर दी थी. आज जब यही व्यक्तिवाद आडवाणी के सियासी वर्चस्व और प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा के बरक्स संकट बन कर उभरा, तब यह एजेंडा पार्टी का हो गया!
लोकतंत्र की स्वस्थ परंपरा के लिए जरूरी है कि दलों की राजनीति व्यक्ति केंद्रित न हो. लेकिन हमारे यहां चाहे राष्ट्रीय दल हों या क्षेत्रीय, सभी की भूमिका व्यक्ति केंद्रित मंशा से फलीभूत हो रही है. भाजपा में नरेंद्र मोदी तो कांग्रेस में राहुल गांधी को इसी भाव के साथ आगे बढ़ाया जा रहा है. क्षेत्रीय दलों में भी बसपा में मायावती, सपा में मुलायम सिंह, राजद में लालू प्रसाद, तृणमूल कांग्रेस में ममता बनर्जी, अन्ना द्रमुक में जयललिता, नेशनल कॉन्फ्रेंस में फारूक अब्दुल्ला, टीडीपी में चंद्रबाबू नायडू और जनता दल सेकुलर में एचडी देवगौड़ा व्यक्ति केंद्रित राजनीति के ही प्रतीक हैं.
यह राजनीति वंशवाद को भी बढ़ावा देती है. मुलायम सिंह, देवगौड़ा और फारूक वंशवादी राजनीति को ही आगे बढ़ा रहे हैं. ऐसी एकतंत्रीय राजनीति के हठधर्मी और तानाशाह हो जाने के भी खतरे हैं. यह स्थिति इसलिए भी मजबूत हो रही है, क्योंकि साम्यवादी दलों को छोड़ कर शेष में आतंरिक लोकतंत्र की व्यवस्था खत्म हो गयी है. इसलिए दलों में निर्वाचन प्रक्रिया को संविधान सम्मत बनाने की जरूरत है.
नरेंद्र मोदी की अब तक की कार्यशैली में एकतंत्री हुकूमत ऐन-केन-प्रकारेण प्रोत्साहित करने की हठधर्मिता परिलक्षित है. भाजपा का जो विधान है, उसमें ऐसा प्रावधान नहीं है कि कार्यकारिणी बैठक में एक चुनाव अभियान समिति का गठन हो और उसका अध्यक्ष मनोनीत किया जाये, लेकिन मोदी का कद बढ़ाने और उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर महिमामंडित करने की दृष्टि से संघ के कहने पर राजनाथ सिंह ने इस फैसले को अंजाम तक पहुचाया.
इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा को राष्ट्रीय फलक पर खड़ा करने और 2 से 182 सांसदों की पार्टी बनाने का श्रेय आडवाणी को जाता है. हालांकि इस जीत की पृष्ठभूमि में हिंदुत्व और राम मंदिर निर्माण जैसे संघ के मुद्दे ही अंगड़ाई ले रहे थे. आडवाणी के कद का अब तक जो विस्तार हुआ, उसे हिंदुत्व की कट्टरता से ही ऊर्जा मिली. बार-बार रथयात्र करके वे व्यक्तिवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने के उदाहरण पेश करते रहे.
इस लिहाज से इस लौहपुरुष का यह कहना कि पार्टी आदर्शो से किनारा करके व्यक्तिवाद को बढ़ावा दे रही है, उचित नहीं लगता. असल में उनके इस्तीफे की पृष्ठभूमि में अपनी पहचान का संकट खड़ा हो जाना है, जिसे वह आजीवन बनाये रखना चाहते हैं. देश को अल्पसंख्यकवाद, छद्म धर्मनिरपेक्षतावाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे मुहावरे देकर जनता को झकझोरने वाले आडवाणी प्रखर बौद्धिकता के धनी व्यक्ति हैं, इसमें संदेह नहीं, लेकिन बौद्धिकता की परिणति चालाकी में कैसे होती है, यह आडवाणी के इस्तीफा देने और वापस लेने से साफ हो गया है.
आडवाणी ने इस्तीफे के साथ अपने सारे पत्ते नहीं खोले. उन्होंने राजग अध्यक्ष, पार्टी के सांसद और प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया. इससे अर्थ निकलता है कि मान-सम्मान और अपनी एकाध शर्त मनवाने की गारंटी के साथ पार्टी में बने रहने के मूड में वे पहले से थे. राजनाथ सिंह ने भी कार्यकारिणी की बैठक में उनका इस्तीफा नामंजूर करके साफ कर दिया है कि पार्टी आडवाणी को छोड़ना नहीं चाहती है और आखिर में पार्टी नेता उन्हें मनाने में कामयाब भी हो गये.
मोदी ने चुनाव अभियान की कमान जरूर संभाल ली है, लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनने का रास्ता अब भी साफ नहीं है. वैसे भी यह नियुक्ति भाजपा के विधान के अनुसार नहीं होगी. मोदी अपनी लोकप्रियता को वोट में कितना बदल पाते हैं, यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलेगा. फिलहाल भाजपा में पीएम पद को लेकर बढ़ता अंतर्कलह ‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम्-लट्ठा’ कहावत को चरितार्थ कर रहा है. इसके नतीजे राजग को कमजोर करने की हद तक पहुंच सकते हैं.